नदी जो सवाल करती है
चुपचाप.. अनवरत..
बहती जाती
बेख़ौफ़ इठलाती
मचलती
नदी जो सवाल करती है...
चुप सी लगी रहती है
अरमानों को दबा के
भूलते-बिसरते
बेआसरा होकर
ठिकाना तलाशते
नदी जो सवाल करती है...
समय जो पीर सा है..
सीने में चुभता ..
तेरा गुजरा मरासिम
रात सी ढलती है
खिजां सी बिखरती है..
तुम इतना समझना सिर्फ.
कि..
मै बहता रहूँगा..
बिना किसी किनारे
चुपचाप.. अनवरत..
राहुल
बहुत खूब!अच्छी अभिव्यक्ति है.
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आभार