Rahul...

16 February 2011

छोटी सी इबादत-6

 
 
लम्बी रातों में बोझिल से दिखते मन की यात्रा में तुम निर्विकार जब मिल जाते थे... तो न फिर कोई दर्द........... अब कुछ नहीं बताना... आत्मबोध में बहती हुई तेरी बातें... सालों बाद वही रात.. उतना ही दर्द...   कहाँ से कहाँ सब चले गए.. तुम्हारा नाम तो मेरे पास ही रहेगा.. उस शब्द का सीधा सा मतलब..  

अपने गाँव में जमीं की देहरी पर कदम रखते ही बिखर गया  सब कुछ.. सब उस किताब की तरह.. जिसके  शब्द खुद के पन्नों में अपना वक़्त तलाश रहा है.. उस जमीं को सीने में दफ़न करने को...कुछ अंश तो मुझमें मिलेगा.. कभी तुम आये थे मेरे घर.. और मेरे आँगन में चुपचाप...दूसरों को सुनते... अकेले... अचानक से सुनते-सुनते चले गए.. फिर वो मंजर नहीं आया...
खुद में इतना खो जाना...कितनी वीरानगी.. जितना अन्दर जाती हूँ.. एक बेतरतीब कविता आकार लेती है.. लगता नहीं कि अब तुम... मेरी इबादत का पन्ना पहले भी अधूरा था... आज भी वैसा ही... तुम्हें एहसास तो जरूर होगा.. और डूबोगे भी... मुझे तो रेत की डगर पर चलकर जाना होगा...  फिर से जतन...
                                                                                                               .........................आगे और भी

12 February 2011

छोटी सी इबादत- ५

 
तुम हकीक़त ही थे.. मैंने ही इसे कुछ और चोला पहना दिया.. न बन सके उस रिश्ते का इलज़ाम तुम पर कैसे लगा दूं ? जो फलसफा मै तेरे चेहरे पे पढ़ नहीं पाई.. उसका खामियाजा मेरी लकीरों को भुगतना तो होगा ही............ये उदास-उदास चेहरे, वो हंसी- हंसी तबस्सुम ......तेरी अंजुमन में शायद अब कोई आइना नहीं है
तुम जब सवालों में घिरते थे तो फिर उस घर में, अपने कमरे के एकांत कोने में तुम्हें देख मै.. ना कुछ समझ पाती और ना ही कुछ समझा पाती तुमको.. चाहकर भी.....! मुझे तुमने उस पत्ते की मानिंद उड़ने को छोड़ दिया.. जिसका खुद का चेहरा जर्जर था.. और बेजार भी... आज कहा चला गया सब कुछ.
.....अजीब सी अदा.. पूरी तरह नाटकीय चलता जीवन चक्र.. रंगे चेहरे.. एक.. पर एक.. सब्जबाग.. किसको देखूं.. किसको छोड़ दूं... अपनी इस दुनियादारी में खुद के एहसानों का बोझ खुद पर इतना ज्यादा है कि किसी और के लिए तुमको छोड़कर कोई नाम याद नहीं आता.
तेरे घर.. तेरे कमरे.. ओह...भींगते पन्नों पर चुपचाप उतरती हुई ओस.. उस चांदनी रात का कर्ज है.. जो अकेले मैंने तुम्हारे लिए मांगी थी.. रात के अधरों पर बेचैन.. थकी सी हंसी चस्पा है.. अलसाये रातों की अंतहीन कड़ी है.. कुछ अजन्मा सा.. भोर भी..
                                                                                                                             ...आगे और भी

08 February 2011

छोटी सी इबादत-4

 
....सब कुछ कल्पनातीत सा.. नींद में यथार्थ से लड़ने का बोध.. ओह.. कैसा होगा हमारे चाहने.. न चाहने के द्वन्द में पिसता हमारा लम्हा... कातिल भी वही.. मुंसिब भी वही.. ये कहना कि तुम्हारा अंजाम.. तुम्हारे हक में मुनासिब नहीं रहा.... मै नहीं मानती... जार-जार तो नहीं.. हाँ कहूँगी कई-कई बार...इतने जर्जर.. कमजोर और बेबस हो जाओगे... पता नहीं था......
कोई आइना तेरे मिजाज को पढ़ तो नहीं सकता... आज भी तेरे नाम व तुझको समझने की गलती बार-बार दोहराती रहती हूँ. अगर कायनात में टूटी-फूटी जरा सा भी मेरे दामन में कुछ सौगात मिलना बाकी हो तो.. बस इतना हो कि गलती बार-बार करूं..
मुमकिन इतना तो अब भी लगता  है कि भोर की पनाह में जब सांस डूबती-उतराती है तो अनंत यात्रा पर.. मिट जाने को मन करता है.. दिन चढ़ते चला जाता है.. फिर ख्वाब.. आसपास चिपके हुए उस सीलन का.. जो अनचाहा है.. अकारण है.. शाम होती है... फिर देखती हूँ.. और नजरें खुद की चुभन को बर्दाश्त नहीं कर पाता...,  चारों तरफ  शब्दों का आडम्बर है.. रिश्तों की अनकही व्यथा है... ये कौन सी सदी है.. ये कौन सा जन्म है... तुम कतरों में बिखरते हो.. मै चीखों में सो जाती हूँ.. ....            
                                                                     ......    आगे और भी

07 February 2011

खुद के साये का पहरा है...

काल के अन्तःघट में
जो सहरा में गुजरा है..
खुद के साये का पहरा है
वो कौन है.. वो कौन है...
निर्दोष रेत के गर्भ में.
बेमन सांसों की परवाज है
उदास वन की रश्मियों में
नब्ज थमती हुई आवाज है
वो कौन है.. वो कौन है...
कुछ दर्द नाजुक पानी  है
नीरव उम्मीद रोमानी है
काल के अन्तःघट में
जिनकी बेलौस कहानी है
वो कौन है.. वो कौन है...
ना तेरा पल..ना मेरा पल
सांझ पहर के क़दमों में
गुमसुम सा जो ठहरा है
खुद के साये का पहरा है
वो कौन है.. वो कौन है...                     
                                                राहुल

05 February 2011

छोटी सी इबादत-३

 
.....कितनी बातें छूट जाती है.. सूनी-सूनी गलियों में हजारों मंजर भटक रहा है. उसी मोड़ पर... वक़्त की शाखों पर जो लम्हा टूट कर उन गलियों में बिखरा हुआ है.. सोचती हूँ.. उन्मुक्त आकाश में छोड़ दूं.. परिंदों की उड़ान में समाहित कर दूं. लेकिन ऐसा होगा.. लगता तो नहीं.. सच.. .....कितनी बातें छूट जाती है.. अथाह आसमान का गुनाह क्या हो सकता है ?  वो तो सब कुछ कैद करने को आतुर है. मै भी उस आसमान में ना तो बिखर सकी और न मिल सकी. आकाश आज भी कहता है....... गुजारिश करता है...... मगर..  तुमने कहाँ मुक्त होने दिया.. ना तो खुद में मिलने दिया और ना ही बिखरने दिया... इतना तो मै भी जानती हूँ कि कच्चे रेशम जैसे नर्म रिश्तों में पाने की कोई लालसा नहीं थी.. तुम यही चाहते थे.. सच तो ये भी है कि तुमने कभी कुछ चाहा ही नहीं... तुम आज भी वैसे ही होगे... 
......मुझे सपनों से सदा ही विरक्ति रही. अभी तो अभी... मिले ना मिले.. तुम्हारी बातें थोड़ी जुदा थी. एहसास इतना करती थी कि  तुम अपने अंतर्मन में कुछ गढ़ते रहते हो.. कभी-कभी तुम्हें देखती तो मालूम होता.. आज के सफ़र में मुझे सपनों की परीकथाएँ जीने के लिए तुमसे कुछ माँगना पड़ता है.. सब कुछ नीरव सा.
कहना असंभव है..जाने सो जाने..जिए सो जाने.. अनुभव हो जाये.. कबीर तो इतन ही कह गए.. जो भी अपने शीश को रख दे, ले जाये जो भी अपने शीश को गिरा दे, उस पर बरस जाता है प्रेम का मेघ, बहने लगता है उपर से, बंटने लगता है दूसरों को... और ऐसी मुक्ति.. जहाँ मोक्ष की भी चाह नहीं.....

                                                                                                                              आगे और भी...

04 February 2011

छोटी सी इबादत- 2

 
..... मै तब जानती थी कि बारिश की बूंदों का तुम पर कोई खास असर नहीं होने वाला. कितना हल्का सोचती थी. तुम हमेशा दूसरों को माफ़ करते थे. आज भी करते होगे. तुम यहाँ जस का तस रहोगे.
                   बारिश की कतरनें थोड़ी देर के लिए राहत  तो देती है.. बाद में उमस का सैलाब दम घोंट देता है. घर की देहरी और छतों पर तुम अनायास दिख जाते तो.. कुछ टूट जाने को होता.. मगर तुम ओझल हो जाते.. ये चुभ जाता. तेरे कमरे में सब कुछ करीने से होता.. चुप सा किस्सा बुना जाता.. जब तुम नहीं होते तो मै एक-एक चीज को देखती.. आत्मसात करती. और जो समेटना होता वो समेट लेती. जिन कामों के लिए उस कमरे में जाना होता.. वो काफी उमंग से होता.. लेकिन तुम चुप रहते. कभी- कभार तुम कुछ कहते तो अनायास ही सब कुछ बैठ जाता.. मन को आखिर एक असीम लज्जत की जरूरत होती है.. शब्द बेमानी हो जाते हैं अगर चुप्पी सटीक निशाने पर चुभ जाये.. तुमने यही किया.. कितनी बड़ी सजा दी है तुमने ? खुद को भी तो नहीं बख्शा तुमने. आज जहाँ कही मै हूँ और जहाँ तुम... वो करीने सा कमरा मेरे साथ-साथ रहेगा... तो तेरे पास मंद-मंद सी चुप्पी......
                  एक अकेला कोई कैसे तनहा रह सकता है ? दरअसल ये खजाना एक नेमत है. सदा सँभाल कर रखने के लिए.. ये नेमत जितना बिखरता है.. उसकी खुशबू उतनी लरजती है.. जितनी तपती है.. उतना ही निखार आता है.. वक़्त तो मुगालते में है कि सजा हमने तय कर दी.. अब भुगतो और प्रारब्ध को जीते रहो.. मगर ये पूरी तरह एकतरफा नहीं होता.. चलो.. स्वीकार किया.. देखेंगे.. किस्मत की लकीरों में कौन सी पर्ची निकलता है.. वक़्त का क्या है...........
                  ....... हाँ.. तो तुम कुछ मेरे लिए लाये थे.. कहाँ  से कहाँ खो जाती हूँ... शून्य में जन्मी यादें... आज तो सब कुछ भूल जाने को मन करता है... मन करता है कि  बीच गंगा की लहरों में विलीन होकर समाधि ले लूं.. तुम कुछ और भी थे... यह तब दिखा.. मेरे पास इतना ही शेष रह गया है.. तुम्हारे लिए सोच नहीं पाई कि क्या.......
                                                                            अभी और भी

03 February 2011

छोटी सी इबादत


 

कितना बदल गए. आँखों से दूर होकर भी तुम सबकुछ थे. कल भी रहोगे. चुप रहने की तुम्हारी जिद कभी खत्म नहीं होगी .तेरे नाम का मतलब कभी मुझे बताया गया था. छोटी सी इबादत में सिर्फ तुम ही थे. आज भी हो...
                        याद है तुम्हें.. शायद याद होगा.. एक बार भींगे मौसम में तुम बारिश में सराबोर होकर आये थे. मै चुपचाप तुम्हें देख रही थी. तुमने भी मुझे चुराकर देख लिया था. वो भींगा दिन हमेशा मुझसे चिपका रहा. तुम उस दिन कुछ कहना चाह रहे थे. वैसे तुम हमेशा खामोश रहते थे. मगर वो दिन मेरा था. मेरी कुछ मन्नत पूरी होने वाली थी. तुम बारिश में निमग्न थे. मै तुममे.. कितना अजीब था वो पल. उस घर में तुम हवा की तरह दिखते थे. घर से जब निकले तो चीख सा सन्नाटा.. और जब घर में लौट कर आते  तो दरवाजों के साथ कई चीजें खुलती.. मन... आत्मा और न जाने क्या-क्या ? तुम भागते.. और एकदम से दूर हो जाते.. तेरे घर में होकर मै सबकी थी.. सिर्फ तुम नहीं... खैर.. बात उस मौसम के गीले पन्नों की हो रही थी. मै हमेशा.. हर पल... तुमको खोती रहती.. 
           तुम कही और रहते.. मै हरपल तेरा अक्स तलाशती रहती. ठीक उस तरह.. जैसे साया को समेटने की जद्दोजेहद करती उम्मीदें.. जैसे साँसों में ग़ुम होती कहानियां...  आगे और भी