Rahul...

25 December 2010

ना कोई चेहरा..


राख में मिलती जन्नत
 जब भींगी आँखो से
तेरे सजदे में ..
कई हाथ अनायास
दुआ के लिए उठे.. तो
कातर होते मन में.
ना तो कोई नाम होता है..
ना कोई चेहरा..
समय के खाक होते
अलबेले पन्नों में
कुछ सूखे रंग.. तो
जरा.. जरा सी मदहोशियाँ
नींद से जगती है
वैसे.. दुर्गम वक़्त के दायरे में;;
जन्नत राख में मिलती है
और..तब
 ना तो कोई नाम होता है..
ना कोई चेहरा..
मेरे सलीब पर..
उगते.. पनपते..
नन्हे पौधों की कहानियां
कुछ अमिट सा..
तेरे बदन  की साँसों में
गूंजता है.. तब
ना तो कोई नाम होता है..
ना कोई चेहरा..
                                       राहुल

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