जब कभी काँटों से मिला तेरी रहगुजर में |
और जो समझ पाया
तेरी रहगुजर में
कोई शर्त नहीं थी..
साथ-साथ मुस्कराने की..
..ना तो अब खलिश है..
तेरे लिबास पर
कुछ नज्म के अंश हैं
एक-दो गुलाब है
और.. हाँ
जंगल में विलीन होती..
परछाई..
आगे का शब्द
भूल रहा हूँ
तेरी रहगुजर में
कितना समय..
कितनी नदियाँ..
मौन थी
यह जान गया कि..
हमसब और ना समझे
बस..
उसको बेबस सा जी ले
तेरे लिए जो नज्म ..
अभी उगा है.. शायद
उस.. भोर में
इतना ही अंश फूटेगा
इतना ही शोर होगा
बस.. शायद
इतना ही समझ पाया......
राहुल
भाई दिल तो कर रहा था सभी पोस्ट्स पर टिप्पणियाँ कर दूँ ....पर के कारण नहीं कर पाया ..इसे हटा दें तो ज्यादा बेहतर होगा ....शुक्रिया
ReplyDeleteWord Verification Hata Den
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