Rahul...

20 December 2010

अजनबियों जैसे..

अजनबियों जैसे होते...पत्ते
अजनबियों जैसे
होते गए..
तेरे सामने के पत्ते
क़दमों के नीचे की
जमीं.. और दूब
जाने-अनजाने से
टप-टप रिसता ..
शाम की बारिश
कभी ऐसा नहीं होता.
जब तुम अजनबी से लगते हो..
ऐसा भी नहीं होता
कि.. समय के पार
तेरा चेहरा..
तेरा जिस्म
 नहीं दिखता..
कभी ऐसा नहीं होता.
जब मै उस पल में
नहीं होता..
जो होता है..
जो आंच सुलगती है
तेरे सीने में
तेरी अजनबी सी लगती
शाम में
यह मान सकता हूँ
कुछ अजनबी सा
कुछ टूटता सा
मद्धिम सी आंच
हाहाकार..
हाहाकार..
इतना ही होता मै
समय के पार भी..
अजनबियों जैसे
अजनबी की तरह.....
                                      राहुल

1 comment:

  1. Rahul Sir Aapki soch aur poem ke bare me aapko bata nahi sakti........ lekin Rahul Sir Very Nice Poem

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