Rahul...

31 January 2012

बाकी सब कुछ..

कितने फासलों में
रात
हमारे बीच के शब्दों
में फंदे सा..
झूलती..टंगी होती है
किसी बच्चे के पालने में

लटकी ..
आँखों को टिकाये
रखने जैसे खिलौने
ठीक वहीँ से
हम दोनों
या .. हम दोनों जैसे
बहुत सारे कितने
सलीब को बड़े जतन से
उठाते हैं
ठीक... उतने ही फासलों में ..
रात.. जार-जार रोती है
फिर तब.....
हम दोनों
या .. हम दोनों जैसे
बहुत सारे कितने
भोर को दुलारते..
सूत्रधार की याचना मांगते
वहीँ आकर अलग हो जाते हैं..
मंच वैसा ही
 चेहरा भी
 अनवरत.. सा

कितने फासलों में
रात
हमारे बीच के शब्दों
में फंदे सा..
झूलती..टंगी होती है
बस...
इसका बही खाता
नहीं होता
बाकी सब कुछ..
बच्चे.. पालने
और उनके लटकते खिलौने
...                                                          राहुल

28 January 2012

नासमझ मन

अनाम मौसम सा
तेरा नाम
उमड़ते बादलों सा
तेरा चेहरा
कुछ पत्तियों के
आँख खुलने जैसी
तुम्हारी बातें...
अधखुली..अनकही 
रोज बदलती तारीखों में
कोई एक दिन सा
अब भी होता है
मेरा दिन..
किश्तों में आते-जाते
बेपरवाह मौसम
 नहीं जानते
आसपास.
तुम नही..

कभी नहीं..
रोज बदलती तारीखों में
बेमौसम
बरसती..
गुनगुनाती धूप
 इतने कालचक्र को जीते
कहानियों में
नासमझ मन
जैसा होता है
अब भी मेरा बसंत..
                                                     राहुल






24 January 2012

खुद पर रोते-हंसते

दिन के कई हिस्सों में 
 बंटते हुए ..
 खुद पर रोते-हंसते 
रात जब मेरे घर में..
आती है..
मै तेरी ही कहानियों 
किस्सों में खुद को 
दफना देता हूँ..
ये सोचकर..
ये मानकर..
तुम फिर कहोगी 
नींद से जागकर 
करीब आकर ..
अपने सिरहाने 
मुद्दत से 
जो कुछ छिपाए बैठी हो..
उसे मेरे हाथों पर 
देते हुए ..
मौन हो जाओगी
पर तुम सोचोंगी ....
अब कुछ नहीं
कभी नहीं.. 
दिन...रात के दरम्यान 
सीने में उगते काँटों की..
वंशबेल...
रिवाजों की..
लिबास में नग्न दिखती 
मान्यताएं..
इन्हीं कुछ घंटों से 
वर्षों तक कितनी सदियाँ 
मेरे क़दमों में भंवर सा 
लोटती है 
मै दिन-रात 
कई बार..
कई हिस्सों में 
ना तो अब ख्वाब बुनता हूँ 
और ना ही..
तुम्हें जी पाता हूँ 
सच ये है कि
मै बार-बार
कितने हिस्सों में 
टूट जाता हूँ....

                                                   राहुल ...

21 January 2012

हर रोज.. हर लम्हा..



किस-किस मोड़ पर
मिल जाते हो..
हर रोज...
हर लम्हा...
कभी उनींदी आँखों से
तड़पते..कांपते
पवित्र स्पर्श को
सजाने लगती हूँ
तुम्हारे ही आसपास...
न जाने कितने..
गुलाब..काँटों की चुभन
और..
तेरा-मेरा हर रोज..
हर लम्हे में मिल जाना..
कितनी चीखें..
तेरे पवित्र स्पर्श
को कहाँ छुपा दूं
मै बुत सी होकर बस इतना ही..
तो मांगती हूँ..
सच... मगर
यकीन नहीं..
तुम इतना सा
देने की जिद में
किस-किस मोड़ पर
मिल जाते हो..
हर रोज...
हर लम्हा...
            हर रोज.. हर लम्हा..                              राहुल

10 January 2012

तुम कहते थे ना....


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 मीठी सी तन्हाई में ...
मेरे पास छोड़ जाते हो
कुछ गुमसुम सा सवाल
मै सोचती हूँ
तुम्हें क्या जवाब दूं..
क्या जवाब देना चाहिए...
मुझे याद आता है
तुम्हारा वो अंतहीन फासला
तुमने अचानक रोप दिया
मेरे सीने में...
मै हर बार तेरे लिए...
एक सवाल ही तो जीती हूँ
न जाने कब से ..
तुम आज भी...
अनमने से उदास जंगल को
शाप क्यों देते हो...
वो तो सिर्फ शरीक था..
अपनी असहाय सी
अनसुलझी गाथा का
तुम कहते थे ना....
मेरी टूट चूकी साँसों...
की दरख्तों में भी
मिल जाएगा जन्नत के निशां..
तुम कहते थे ना...
उसी अंतहीन फासले के
कतरे को जी लेना
सच तुमने कितनी
मासूम सी सजा
तय की है
मेरे लिए....
                                                                      राहुल

04 January 2012

मन पत्थर सा..

 
चाँद जो कभी आता है 
मेरे आसपास ...
घर के कोने में तुम्हारे
आने की आहट
आँख चुराती हुई
चुपके से जा बैठती है
अजनबी ख्वाब की डोर पर
मन पत्थर सा..
तेरे आगे अपलक है...
तुमने मेरी सदी के पन्नों पर
न लौटने के वादे किये थे....
कांच की बंदिश में
एकबारगी..एक सांस में 
चूर कर देती हो..
शब्दों को
जो पल अपना साँझा था...
एक पल में हमसे बाँट लिया
नहीं रहा अपना कुछ भी
बेनाम सपनों को चुराए 
सुबह का बेसुध पन्ना ..
समेट लेती हो...अपने साथ
तपती रात को अकेले
जीने के लिए...
हमने कभी याद दिलाया था
सदी के उसी पन्नों को
हाथों पर रखकर..
...अगर मिल गए
तेरे अजन्मे ख्वाब की डगर पर
तो मान लेना....
हजारों रातें...मुद्दतों और...
सौ जन्मों के फासले में
मिटते-मिटाते...
टूटते तारों की तरह
आ मिलेंगे
तेरे ही आँगन में...
                                             राहुल...