Rahul...
24 April 2012
09 April 2012
आग पर....
तेरी मेहरबानियों पर
रोती बहारें
जब दबे पाँव
झुलसते..
आग पर चलती है
रतजगा करती है
..तो हम
अपनी ही जंजीरों के
मोहपाश में
लिपटे
तुम्हारी मुस्कराहटों
की सेज पर
लहूलुहान होते हैं..
थकी थमी..
बेजार होती सड़कें
मेरे सीने पर
उन्हीं जंजीरों को
कसते हुए
नींद की खुशफहमी में ..
आग पर चलती है
रतजगा करती है...
तब भी..
हम उसी सेज पर
लहूलुहान होते हैं..
तेरी मेहरबानियों
की बहारें..
मेरे ही कटघरे में
मुझे कैद करती है...
दलीलें सुनती है
भूल कर..
न भूलने जैसा..
रोज बदल कर .
न बदलने जैसी
सजा मुक़र्रर करती है
तब...
प्रसव की वेदना जीता
मेरा अबोध शब्द
बेकल.. अजन्मा
निरुत्तर होता है
राहुल
04 April 2012
फैसलों की किताबों में
कभी मेरे..
झूमते बालों में
तुमने एक स्पंदन
रोपा था...
कभी मेरी..
तारीखों में
तुमने..
पानी के बुलबुले को
हाथों में
सहेजा था..
अभी भी
मेरी उलझी लकीरों को
तेरी गवाही की दरकार है.
तुमने तो मसीहा होकर
जिन्दा रहने..
की सजा तय की..
जीते रहे
तो ..जीते रहे
किताबों-किस्सों के
ढेर पर..
तेरा स्पंदन तलाशती हूँ
तेरे बुलबुले को
पन्नों से निकाल
माथे से लगाती हूँ
कभी माँ भी कह देती है
मन को जलाकर
आगे पांव रखना
अब स्पंदन को जाने दो....
हर बुलबुले का
अपना फैसला है
उन्हें उड़ जाने दो...
मै मूक सी...
हवा सी उदिग्न
फैसलों की किताबों में
तेरा स्पंदन तलाशती हूँ
शायद..और लगभग
शायद .. अब भी
मेरी उलझी लकीरों को
तेरी गवाही की दरकार है.........
राहुल
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