Rahul...

30 December 2011

रात कहीं तनहा

 
नहीं था साकार होना..
उम्मीदों के दीए...
तुम कल जब चले जाओगे..
तपते सफ़र में
कुछ तो निशाँ छोड़ जाओगे
मेरा तो सब कुछ...
इतना सा मद्धिम है
रात कहीं तनहा
चुपके से गुजर जाएगी
न तो ये पल आएगा..
और न ही कभी तुम
पर इतना ही संतोष लेकर
दुनिया कुछ हाथ पर रख जाएगी
और फिर ये तस्वीर कभी नजर
नहीं आएगी .......................................

29 December 2011

जाते-जाते -4

.... अब नहीं लगता कि तुम्हारे बदलते चेहरे और करवट लेते इस साल के बीच कोई फासला बाकी रह गया हो. चलो माना कि मै कहीं नहीं था. सच में मै कहीं से तेरे आसपास होना भी नहीं चाहता था. रात के गहरे अंधकार में कोई गुमनाम सी किरण जैसे भटकती रहती हो.. सुनसान पगडंडियों में बार-बार रास्ते से भटकने जैसा.... अपने रास्तों में कहीं भी ठहराव जैसी चीज नहीं रही.. हाँ अगर कुछ रहा तो इतना कि कोई उम्मीद का दामन दूसरों के हवाले न कर दें... यह हमेशा मन के आसपास रहा..... और जब अंतहीन कथा यात्रा में कोई साथ हुआ तो मैंने सब कुछ सौंप दिया... मेरे साथ यह एक दिक्कत है..यहाँ से वो यात्रा शुरू हुई ..जिसका कोई मकसद नहीं था. मुझे हमेशा ये चीज अखरती कि किसी को बार-बार गलत समझा जाता रहा.. दुनिया को समझाने और सिखाने को हम प्रारब्ध नही नहीं थे. वर्ष के चढ़ते और ढलते वक़्त में एक मुद्दत का फासला दीखता है. कितना कुछ खोने का... हम तो पहले से इतने खुशनसीब थे कि खोने की रवायत को कभी मिटने नहीं दिया. शायद ऐसी खुशनसीबी सबको कहाँ मिलती है...... आज भी इतना कुछ अंतर्मन में शेष है ..... हम तो आदतन सब के liye एकला चलो रे... का संताप जीते हैं...इसी दम पर तो गर्व करने लायक कुछ मर्म अपनी झोली में अब तक है..... पर कुछ लोग अपने लिए अफ़सोस है..... कहकर सिमट जाते हैं... क्या कहना ? इतना ही तो तुमसे हो सकता था.... और तुमने इतना ही किया... तुम्हे अपने लिए हर मोड़ पर एक सिस्टम की दरकार होती रही.. हर चीज अपने लिए ... और जब किसी और का वक़्त आया तो फिर अफ़सोस जैसा शब्द.... अब से कुछ घंटों बाद न तो ये साल रहेगा और न ये अंतर्द्वन्द... सब उन्मुक्त हो जायेंगे... सब उस रौशनी में डूब जायेंगे जो कभी हमारे लिए नहीं था...............................
                                                              राहुल




27 December 2011

जाते-जाते- 3

पहली बार ऐसा ही हुआ. लगा जैसे आप कभी सिर्फ अपने में निमग्न नहीं हो सकते. कई लम्हा ऐसा है जो सिर्फ आपको डूबों सकता है. इतना तो नहीं जानता था कि जब वो पल आने वाला था तो सब कुछ बस यूं ही था. आज कुछ महीनों के बीतने के बाद जिस मुकाम पर खड़ा हूँ.. सब सपनों सा अदृश्य होता जा रहा है. अपनी नादानियों कि वजह से कितनों को तकलीफ दी... कई वाकई नाराज हुए. यहाँ यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि कोई गहरे अन्दर तक इतना आ गया कि सब मुझ पे टूट गए. क्या करते ? हमने अपनी आवाज को कभी मरने का मौका नहीं दिया. क्या फर्क पड़ता है... आख़िरकार कई लोग इतना ही समझे कि कुछ मामला है. आप अंदाज नहीं लगा सकते कि हर आदमी कैसे बेपर्द होकर सब कुछ कहने सुनने लगा. सामने जो आप तस्वीर देख रहे हैं... यह एकदम हमारी कहानी कहने जैसा आवरण में घिरा है. रंग तो उसके चारों तरफ बिखरा है.. पर खुद के हालात पर एक कतरा तक नहीं. मैंने हमेशा उस सिस्टम को तोड़ दिया जो कैदखाने से ज्यादा कुछ नहीं होता. क्या किसी को अपने अंतर्मन में छुपा लेना अपराध है ?  कैसे न करते अपराध..... ये सच है कि इसकी सजा आजीवन मुझे मिलती रहेगी. मुझे हमेशा ये मंजूर रहेगा..
                                            अभी और.... राहुल

24 December 2011

जाते-जाते

 
... हम शायद कभी  उनके बारे में नहीं सोचते.. जो सच में आपकी ओर उम्मीद भरी निगाहों से टकटकी लगाये रहते हैं... खुद के आसमान को हमने इतना फलक नहीं दिया, सदा अपने खोल में दुबके रहे.. इस डर से कि कुछ अनर्थ हो जायेगा.. यहीं चुक हो जाती है... खैर ऐसा तो सरेआम हो ही जाता है..
कुछ करीब रहनेवाले लोगों को एक चीज काफी नागवार लगा. इरादा ऐसा नहीं था. एकदम नहीं..... अचानक किसी को याद करते हुए इन  सब बातों से काफी चोट पहुंचती है.. पर यहाँ कहना शर्तिया जरुरी है... मै और  मेरे जैसे लोग अंतर्मन की आवाज को ख़ामोशी के अल्फाज में कहना जानते हैं.. अपने चित्त के आसपास रखने की मेरी छोटी सी अर्जी पर इतना बुरा मान गए... माफ़ कर देना भाई... शब्दों की माला जपने और बाजीगरी दिखाने  की कभी जरुरत नहीं हुई... और न दुनिया को बदलने की रत्ती भर कोशिश की... हम तो इतना भर लम्हा को रौशन करते हैं कि अपनी यायावरी कायम रहे... बाकी कुछ रहे न रहे.... आज भी खोने को इतना कुछ बचा है कि अपने आसपास अनगिनत मंजर बिखरा हुआ है...

..... फिर आगे.... राहुल 

23 December 2011

जाते-जाते

 
साल २०११ अवसान की ओर है. कुछ दिन, कुछ पल के बाद फिर उतनी सी तलाश की जद्दोजहद में डूब जायेंगे हम सब. वर्ष की शुरुआत में हमने यकीनन कुछ भी तय नहीं किया था. किधर जाना है... और किस मकसद को जीना है ? ऐसा भी नहीं था कि अपनी मर्जी से कुछ अलग  सोच लेते. समय ने कभी इतना मौका नहीं दिया. हमारे जैसे लोगों का इतना ही अंजाम होता है... मुझे यही लगा.. आप कुछ फासला तय नहीं करते.. पर कभी-कभी उनके लिए अकेले चलना पड़ता है... जो आपके सफ़र में कभी नहीं होते.. लेकिन वो हमेशा आपके हमसाया होते हैं.... न तो इसे कोई देख सकता है और न ही कोई इसे समझ सकता है..  इस साल हमसे बार-बार एक ही सवाल पूछा गया... मैंने हर बार जवाब दिया.. जब मेरे सामने अपने लिए एक सवाल आया तो सच मानिए.. मौसम बीत चुका था. हमने अपने हिस्से का वो खाली पन्ना भी खो दिया.. जिस पर कभी भी  मेरे लिए कुछ भी नहीं लिखा गया. वैसे कितने अधूरे पन्ने आज भी मेरे साथ हैं.. मै तो हमेशा यही चाहता था कि इन्हें उन्मुक्त आसमान में छोड़ दूं .. पर इन्होंने मुझे सीने से लगाकर रखा. आज जब मैं इन्हें फिर से अपनी बात दोहराता हूँ तो कोई कुछ नहीं बोलता. इन्होंने भी वही किया.....

 .......फिर आगे ....... राहुल 

19 December 2011

 
गुनगुनाती रातों में
निढाल होती यादें..
भूले-भटके मोड़ पर
लौटकर आती यादें
माँ के किस्सों में
पनाह मांगती यादें
वक़्त-बेवक्त दामन पर
दाग लगा जाती यादें
चुप रहने की आदत में
सब कुछ कह जाती यादें
तेरे चेहरें की शिकन में
रोती-हंसती यादें
ग़ुरबत की चादर में
खामोश सी यादें
                                                              राहुल....

03 December 2011

क्या सच में ऐसा होता है ?
जलते जख्म की
वेदना ताउम्र सालती है.....
क्या सच में मन
का काफिला चुप
रेत में फिसल जाता है...
मै उस वेदना को
बार-बार कहीं छोड़
सन्नाटा को जी लेता हूँ....
तुमने कुछ रेत की
बूंदों को होठों से छुआ था
क्या सच में ऐसा होता है ?
तेरी शहद घुली चुप्पी
में आहों की ...
क्या सच में ऐसा ही होता है ? ....