जरा ठहर जाओ संवाद
तुम्हे लिखते हुए
जैसे..जीने की
जिद करते हुए
पवन कम्पन की तरह
अमृत बूंदों का
मौन स्वर सौंप
आहटों के बिना
दिन-रात को
सीने में साटते
भावों के बहते पुकार
क्यों उग आते हैं ? ..
सांझे आसमान पर
दौड़ती हुई स्पर्श ध्वनि
टकराती..खिलखिलाती
मेरे कन्धे से लगकर
किसी रूह की कामनाएं
दिव्य जादुई स्वर की
करूण पुकार सुन
शून्य आकाश तले
क्यों बहके क़दमों को
रोक लेते हैं ?
जरा ठहर जाओ संवाद
क्षण दर क्षण
गुजरते उम्र का एक पूरा दिन ..
वहशी बदरंग दुनिया
से
बाहर खींच लाती है
न जाने कैसे..
हरदम ...
जीने की जिद करते हुए
भावों के बहते पुकार
क्यों उग आते हैं ?...
जरा ठहर जाओ संवाद
चटके चिनार
नर्म-नाजुक सी
बहकी बयारों में
दुःख बटोरती
दुबकी कविताओं
के दर्द ..
कच्चे रेशम सी
फूटती फहराती
लिपटी लहराती
नादाँ मिजाज
के दर्द ..
टूटते सितारों की
आहों में
परखच्चे-पसरे
ख्वाब के टुकड़ों
के दर्द ...
भरे-पूरे दरिया के
अधरों में
तिनके सा
हलचल
छिपाते
अरमानों
के दर्द ...
चटके चिनार
की
दरख्तों में
मुद्दत की खुशबू ओढ़े
दम घुटती रातों
के दर्द ...
पत्थर युग में
पतझड़ की तह सी
गिरती-बिछती
घर की दरों दीवार
के दर्द ...
शबनमी शोकगीत
चुराते हुए
छुई-मुई जिस्मों में
वणजारे बसंत की
आहट
के दर्द ...
सच ...
अजीब पत्ता है मन
आवेगों-संवेगों से
प्रारब्ध की शाखों पर
डोलता..उधम मचाता
सहमी हवाओं के
सूखे एहसासों को
अनगिन अँधेरे से
बाहर निकालता है
सच...कोई तो है
बिना कुछ कहे
..
जो ले जाता है
जीवन की ओर..................
हाथों की रेखाओं सी
है
पत्तों की फितरत
एक-दूसरे को
काटती
पार करती है..हमेशा
मेरे भीतर ही
चकित है
मेरी फितरत
अजीबोगरीब है
पवित्र नेह की प्रतिध्वनि
अदम्य आह्लाद से सराबोर
करता है प्रवेश
दर्द की दबी
शब्द यात्राओं को
थपकियाँ देता है ..
सच...कोई तो है
बिना कुछ कहे
..
जो ले जाता है
जीवन की ओर..................
पत्तों के इर्द-गिर्द
अल्हड़ भंवर की
सिर धुनती
फितरत
फिर से चकित है..
पत्तों के पास
कोई इतिहास नहीं
पत्तों के पास
कोई सियासत नहीं ...
मुझे रात तक
भीतर कोई आईना है
हर दिन संवरता है
टूटता है..
बिखरता है ..
चेहरे बदल जाते हैं अचानक
अपने
स्वभाव के साथ
उजाले थककर
स्याह हो जाते हैं
तब ..
अंधेरों की
हिफाजत के लिए
दिन का सूरज
मुझे रात तक
संभाल कर
रखना पड़ता है
हाँ .. भीतर कोई आईना है....
स्त्री जब भी रोती है
समय की आँखों से
टपकती है व्यथा
आद्रता के सागर में ...
तुम अपने होने की
जब भी कथा लिखते हो
अपने हिस्से रौशनी व
स्त्री के हिस्से में
धुएं की लकीरें
लिखते हो
दरअसल ..
भीतर जो आईना है
वह हर दिन संवरता है
टूटता है..
बिखरता है
भ्रम की
भीजती सांझ में
अपने को कब तक
अनचाहा करते रहोगे ?
अपने लिबास को
कब तक
खारिज करते रहोगे
तुम बेशक
धूप लिखते रहो
छाया बनेगी स्त्री
तुम बेशक
फूल गढ़ते रहो
खुशबू बनेगी स्त्री...
एकमेक किस्से की
सीधे-सादे कागजों पर
एकमेक किस्से की
कोरी स्याही लिखकर
हम स्वप्न हो जाना चाहते हैं ...
तुमसे संदर्भित
तुमसे उच्चारित
तल्खियों की
हम ताबीर हो जाना चाहते हैं ...
तेरे अधरों से
लिपटी लताओं में
शून्य की स्मृतियों सा
हम विस्मृत हो जाना चाहते हैं ...
धरती को
अपलक
चूमते हुए
पाखी की तरह
हम पहाड़ हो जाना चाहते हैं ...
नदी के ह्रदय पर
दहकती हद से अलग
दोनों तीरों में
हम बेहद हो जाना चाहते हैं ...
कितना सा बेवजह है ...
मन के दरम्यान
जिन्दा होते रश्मोरिवाज
साये से जुदा
बंद खिड़कियों में
जब ठहर जाती है..
कहानियाँ
जो लकीर खींच रखी है ....
बेकार.. बेसबब
जानता हूँ
मेरा होना..न होना
अब है भी नहीं..
जब चुभती है
सहजता....
कितना सा बेवजह है ...
रातों की रुदाद
जो शाम डूब जाती है
ऐसे ही..
जानता हूँ
मेरा होना..न होना
अब है भी नहीं..
जब चुभती है
बारिश की शिद्दत ?
पलकों पे उतरती
धूप के होठों पर
छिपी तहरीर के साथ ..
जो शाम
डूब जाती है ऐसे ही..
जानता हूँ
मेरा होना..न होना
अब है भी नहीं..
जब टूटती है..
अकेली नज्म
ओस से तर लय
अधूरे शब्दों के बीच..
जो शाम डूब जाती है
ऐसे ही..
जानता हूँ
मेरा होना..न होना
अब है भी नही...
जैसे.. फासले से
हारे हुए ख्वाब की
प्रतिध्वनि के बीच
तुम आते हो जब...
खसलत की बेदिली में
गल्प का अम्बार लिए
अश्कों की कतारों में
लिख जाते हो
मेरा आदिम सच ?
खुली हवा के
बंधे पांव से पूछो
कब घूमना हुआ ?
हम दोनों के
परिमोक्ष के साथ
तुम आते हो जब...
पोर-पोर में रचे
ऐतबार के साथ
छोड़ जाते हो
अपनी असीमता ?
फिजाओं में बहकते
शुष्क सन्नाटों के बीच
अनछुए पल
वापस करने को
तुम आते हो जब..
बंद दरवाजों की
सांकल बजाते
अपने-पराये की
तर्क-समीक्षाओं से
अलग-थलग
तब सहेजकर
रखी जाती है
यातनाएं
जैसे ..करीने से
रखा जाता है स्पर्श
जैसे.. फासले से
रखी जाती है आग
जैसे.. सुकून से
रखा जाता है शोर ...
अलविदा कहना होगा..
धमाधम रौशनी
बरसती है
मेरे शहर के
सीने पर
उफनाई..पगलाई
रात का जिस्म
यायावर सा
झूमता-गिरता
सब कुछ समेटने की
जिद में है....
उस अहमक रात
का
जिस्म
किसका है ?
मुझे समझना होगा.....
कभी गलियों में
देहरी-आँगन में
मंद लौ की बाती
थरथराती लालटेन
थिरकती थी...
हम सब आह्लादित
दुःख-सुख की
परछाइयों के साथ
जय-विजय की
संधियों
में नहाते थे..
अब पहाड़ जैसी
ठंडी.. अवसाद भरी
कहानियों को
छोड़ना होगा
अपनी मुट्ठियों से..
मुझे समझना होगा
फिर से...
कुछ संबंधों को
धमाधम रोशनियों को
अलविदा कहना होगा..
कैसे शिनाख्त करोगे ?
मायावी खबर की
सलोनी सूरत पर
चिपका है
दम हारती
जिन्दगी का नक्शा......
घुप अंधेरों की दीवार में
इश्तिहार बनकर
तड़पती विपदाओं का संजाल
जहाँ...दुःख का गला
रेत रही है भूख......
पारदर्शी आंकड़ों की
काल कोठरी में डूबी है
गुलाब की लपटें
भस्म होती
रूमानियत की महक......
बेहद-बेहद
सहज
चेहरों का
क्रूर बाजार
रस-रंग मंचित
कोलाहल में
कामयाब होती देह गंध
तुम सब्जबाग के फर्क को
कैसे शिनाख्त करोगे ?
अतिरेक बहता
अवश परिंदों की
चटक घाम होती
झिलमिल चिराग की बातें
जो तुम कहती हो....
मेरे भीतर
अपना संकल्प
घोर शालीनता से
जहाँ नहीं है
अतिरेक बहता निर्जन पानी
जलते रंगों का
नमकीन स्वाद
जो तुम कहती हो....
जिस्म से उतरती
रूह तक
दौड़ती-भागती
अदम्य यात्रा कथाएँ
समंदर बहता रहता है...
कांच की डोर में
दोनों के बीच भी
और समानांतर भी
यह भी होता है कि
उड़ान भरता
खाली सा
दोनों का संकल्प
जो तुम कहती हो....
निर्वासित अधरों का
भींगा द्वन्द
अतिरेक बहता निर्जन पानी
यह जो हम हैं
भीतर में
जलते एहसासों के बीच
मिलता..
मन का नमकीन स्वाद
समंदर बहता रहता है...
अधूरे अक्षरों में
नहीं डूबेगा मन
मौत के हिस्से में
बराबर बंटकर भी...
ऐसा ही होता होगा
तारे टूटते होंगे
रंग चटकता होगा
सपने बस रह जाते होंगे
ऐसा ही होता होगा ..................
मदहोश नींदें
आती होंगी
रात मुस्कुराती होगी
पतझर बरसता होगा
ऐसा ही होता होगा .................
खिड़कियाँ खुलती होंगी
ज्वार फैलता होगा
निर्भय इच्छा जागती होंगी
हवा में सन्देश घुलता
होगा
ऐसा ही होता होगा....................
तसल्ली खनकती होगी
राख के फूल झरते होंगे
चाँद पलकों से उतरता होगा
भोर थक जाते होंगे
ऐसा ही होता होगा....................
बेतरतीब कोई आता होगा
सन्नाटे उग आते होंगे
धूप..हवा..पानी के बीच
माँ का चेहरा भी भींगता होगा
ऐसा ही होता होगा ..............
जख्म दर जख्म ..
हंसी के महामिलन में
अबोध आलिंगन का
उत्ताप
जख्म दर जख्म ..
मेरे पांव सजते हैं
तुम्हारी अंतरंगता में.....
विवश विलाप के
मादक उत्सव का
दावानल फैल रहा है...
सच ये भी कि ...
यज्ञ की परिधि में
अग्नि मन्त्रों का
उन्माद
उच्चारित करती हुई
मै...
जख्म दर जख्म ..
अपलक बहना चाहती हूँ.
सच तो है कि...
फैलते दावानल में
प्यार के व्यर्थ परिवेश
को
अन्दर संजोये
निरर्थक विनम्रताओं
के साथ
मुझे भरमाना चाहते हो ???
सच ये भी कि ...
मै...जख्म दर जख्म ..
तुम्हारे उत्सव.....
हाँ....
विवश विलाप के
मादक उत्सव में भी
जीना चाहती हूँ......
तुम जानते हो
वक़्त के मारक क्षणों का
अतृप्त इतिहास है
मेरे अन्दर.......
आलोकित शब्द
सूखे हरे रंगों वाले
ख्वाब की
अभिनव धरती पर
निर्वसन की
स्याही जैसी
पागलपन की बतकहियाँ..
उसी धरती के सीने में
भटकती
लालसाओं के
रेत मग्न बिम्ब
नि:शब्द पीड़ा की
ऊँगली थाम
आकाश में घुलता
भीतर का
बेसबब दर्प .......
अपनी दलीलों के
ठहरे हुए
पन्नों पर
अंजुरी में भरकर
कोई
चुपके से
ले आता है
अपनेपन का
आलोकित शब्द ....
मानसरोवर जैसे
आत्मिक शब्द.....
मेरे सिरहाने
कोई
अचानक
छोड़ जाता है
स्नेहिल स्वप्न ......
शोर रंजिश भरे
उपासना की
गहरी एकांतिकता में
जीवन की ओर
वापस आती
संवेद स्वर
की तासीर.......
लौटना चाहती है
देह-मन की
शिराओं को
पार कर
चोटिल कदमों की
धूल......
हम कब-कहाँ
सोच पाते हैं
तुम्हें..?
तुम्हारी मरूभूमि
के साथ
सिर्फ रास्तों के
संशय
का पता
छोड़ जाते हैं
हम वहां से
कहाँ लौट पाते हैं ?
संवेद स्वर
की
तासीर
ठंडी होगी एक दिन
मुझे पता है
उपासना की चुप्पी
प्रविष्ट हो जायेगी..
शोर रंजिश भरे
डूबते किस्सों की
सदियों में
हम वहां से अलग
जब सोच नहीं पाते हैं ...
मीठी नींद सी
बातें...
तुम्हारी मरूभूमि
के साथ.....