Rahul...

09 June 2013

दार्जिलिंग डायरी-4


युमथांग वैली
दार्जिलिंग को करीब से देखते व उसे महसूस करते हुए मुझे कई बार ऐसी ख़बरों से दोचार होने का मौका मिला, जो पूरी तरह से अनचाहा था.. दिन-रात ख़बरों में सोते-जागते रहने के कारण भी अखबार के भाई-बंधुओं को एक सी आदत हो जाती है.. कुछ आम किस्म की ख़बरें रोज ही मिलती रहती है..रूटीन ख़बरों को लेकर हम सारे लोग एक ही ढर्रे पर काम करते हैं...सच कहा जाए तो 16  या 20 पन्नों के अखबार में  शायद ही कभी कोई ऐसी खबर होती है जो आपको अपनी ओर खींच सके.. दार्जिलिंग, गंगटोक, मिरिक, कालिम्पोंग व आसपास के कुछ इलाकों के सामाजिक ताने-बाने को हमने खबरों के माध्यम से समझने की कोशिश की.. कई बार मुझे लगा कि ये काफी मुश्किल भरा काम है.. जितना ही ज्यादा जानने की कोशिश करते, उतना ही सब कुछ अधूरा लगता.. हिंदी पट्टी की जीवनशैली से एकदम अलग-थलग..एक सहज, सरल जीवन जीने के लिए हिल के लोगों को कितनी हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ती है, इसे भी हमने नजदीक से देखा.. तमाम विसंगतियों को झेलते हुए ये लोग हर दिन नए इम्तहान से गुजरते  हैं और हमारे लिए सिर्फ खबर बनकर रह जाते हैं...डायरी के इस अंक में मैं सिर्फ दो खबरों की चर्चा करूँगा....
    मैंने अपने गंगटोक रिपोर्टर प्रवीण खालिंग को इससे पहले अपने ब्लॉग पर याद नहीं किया था..अभी  कर रहा हूँ... लड़कियों की तरह लम्बे बाल रखने वाले प्रवीण की गिनती गंगटोक के तेज-तर्रार पत्रकारों में की जाती है.. उनकी भी पहुँच काफी ऊपर तक है.. गोरखालैंड आन्दोलन से जुड़ी एक संस्था के सक्रिय सदस्य हैं... मूल रूप से नेपाली भाषा व साहित्य पर अच्छी पकड़ रखने वाले खालिंग एक अच्छे कवि भी हैं और अक्सर गंगटोक में आयोजित होने वाली काव्य गोष्ठियों में शिरकत करते रहते हैं...सिक्किम जैसे छोटे राज्य की तमाम राजनीतिक गतिविधियाँ और उनसे जुड़ी हुई खबर उन्हें सहज ही मिल जाती है.. 5 -6 बार गंगटोक जाने के बाद भी मैं सिक्किम के उन इलाकों में नहीं जा सका, जो गंगटोक से 50 किलोमीटर की ज्यादा दूरी पर है...सिर्फ एक बार मैं गंगटोक से 31 किलोमीटर की दूरी पर क्योंग्सला तक ही घूम पाया. कई बार मैंने उनके साथ घूमने का प्रोग्राम बनाया, पर कई कारणों से जा नहीं सका.. प्रवीण अक्सर  राजधानी गंगटोक से बाहर दूर-दराज के इलाकों में भी अक्सर घूम-घूमकर ख़बरों को बटोरते रहते हैं..कई बार उन्होंने  भारत-चीन सीमा के पास नाथुला दर्रा , छंगु व हांगु लेक, गुरु दोंग्मार झील, लाचेन, लाचुंग, बाबा मंदिर व आसपास के दुर्गम इलाकों में जाकर रिपोर्टिंग की... मुझे लाचेन गाँव से उनके द्वारा भेजी गयी एक रिपोर्ट की याद आ रही है... लाचेन पूरे भारत का पहला ऐसा पर्यटन स्थल है जहाँ प्लास्टिक और बोतलबंद पानी का प्रयोग पूरी तरह वर्जित है.. खलिंग ने पूरे लाचेन में घूम-घूम कर इस रिपोर्ट को तैयार किया था..उन्होंने बताया था कि किस तरह गाँव के लोगों ने इस अभियान में बिना सरकारी मदद के बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया.. वैसे भी लाचेन गाँव की खूबसूरती पर कुछ भी कहना कम होगा...ये एक ऐसी जगह है जो अभी तक टूरिज्म के नक़्शे पर बहुत ज्यादा सुर्खियाँ नहीं बटोर सका है..इसके साथ ही पश्चिम सिक्किम के योकसुम गाँव से दिखता माउन्ट काब्रु का मनोरम नजारा भी सबको हैरत में डालता है.. ज्ञात हो कि योकसुम गाँव जोंग्री व गोचुला ट्रैकिंग के आधार शिविर के लिए विख्यात है...
       प्रवीण ने पिछले साल अगस्त में  उत्तर सिक्किम में स्थित  युमथांग वैली का दौरा किया था..तब उन्होंने अपने कैमरे में इस अतुल्य भारत की अनमोल संपदा को अपने कैमरे में कैद कर भेजा था. प्रवीण ख़बरों को लेकर काफी संजीदा रहते हैं...मैंने कई बार इस बात को महसूस किया... उनकी जिस रिपोर्ट की चर्चा अब मैं करने जा रहा हूँ, वो काफी जानदार है.. दरअसल रिपोर्टिंग करते-करते प्रवीण खुद भी उस खबर का हिस्सा बन गए थे.. 31 मई को प्रवीण ने नाथुला व छंगु से लौटकर आ रहे करीब 4 हजार टूरिस्टों के क्योंग्सला में भारी बारिश और भूस्खलन के कारण बुरी तरह फँस जाने की रिपोर्ट भेजी थी...घटना के मुताबिक़ जब  31  मई की शाम प्रवीण को भूस्खलन के कारण क्योंग्सला में रास्ता बंद होने की जानकारी मिली तो उन्होंने मुझे फ़ोन कर इस बात की जानकारी दी कि गंगटोक से बड़ी खबर के लिए तैयार रहिएगा... शायद आज की लीड यही हो... उसने ये भी कहा कि मैं क्योंग्सला जा रहा हूँ... वहां पहुँच कर फिर आपको खबर करूँगा... मैंने कहा कि ठीक है... अगर सम्भव हो तो फोटो का उपाय करियेगा... एहतियात के तौर पर मैंने कोलकाता डेस्क में बैठे अपने सहयोगी को पूरे मामले से अवगत कराया और कहा कि गंगटोक से बड़ी खबर आ रही है... उधर, प्रवीण के लिए क्योंग्सला पहुंचना काफी मुश्किल हो रहा  था, क्योंकि लगातार बारिश और पहाड़ों से मिट्टी खिसकने के कारण रास्ता पूरी तरह बंद हो गया था..हालांकि प्रवीण क्योंग्सला पहुँचने से पहले ही फँस गए थे...पर वे हार मानने वाले नहीं थे... मैं लगातार उनसे फ़ोन पर संपर्क साधने की कोशिश कर रहा था, लेकिन नेटवर्क का साथ नहीं मिल रहा था.. वे सिक्किम चेकपोस्ट पुलिस के राहत अभियान दल के साथ उस जगह पर पहुँचने की जद्दोजेहद कर रहे थे, जहाँ पर हजारों लोग अपने परिवार और बच्चों के साथ फंसे हुए थे..प्रवीण से जब कभी बात हो जाती तो वे कुछ अपडेट करा देते.. दस बजे रात तक किसी तरह प्रवीण सिक्किम चेकपोस्ट पुलिस के जवानों के साथ क्योंग्सला पहुँचने में कामयाब हो गए...वहां पहुंचकर उन्होंने फ़ोन कर गुजारिश भरे स्वर में कहा कि गंगटोक संस्करण अगर आधा घंटा लेट भी होता है तो कोई बात नहीं, इस खबर को पूरा कवरेज मिलना चाहिए...मैंने उनसे कहा कि अगर किसी तरह फोटो का उपाय हो जाता तो लीड तान देते...जबकि उस वक़्त वहां से फोटो भेजना काफी मुश्किल था, क्योंकि जिस जगह पर प्रवीण पहुंचे थे, वहां पर कोई साइबर कैफे या इन्टरनेट व्यवस्था के होने की संभावना न के बराबर थी.. फिर भी प्रवीण ने कहा कि मैं देखता हूँ और पूरी कोशिश करता हूँ फोटो भेजने की.. प्रवीण द्वारा फ़ोन पर दी गयी जानकारी और कंटेंट के आधार पर खबर तो तैयार हो गयी थी, पर फोटो का इन्तजार हो रहा था.. मुझे लग रहा था कि ये नामुमकिन है...मैंने अपने पेज-एक के डिज़ाइनर से कहा कि लेआउट के हिसाब से पेज मेकअप करके फोटो का स्पेस छोड़ कर रखिये..अगर तस्वीर आती है तो ठीक, नहीं तो कोई भी फाइल फोटो लगाकर पेज को विदा कर दिया जाएगा... मैंने तब तक कोलकाता डेस्क को भी ये खबर भेज दी और कहा कि फोटो के लिए धैर्य रखिये...
                 इधर, क्योंग्सला में सिक्किम चेकपोस्ट पुलिस, ट्रेवल एसोसिएशन ऑफ़ सिक्किम और आर्मी ट्रांजिट कैम्प की रेस्क्यू टीम ने टूरिस्टों को रात में ठहराने के लिए युद्ध स्तर पर काम करना शुरू कर दिया...रिपोर्टिंग करने के साथ-साथ प्रवीण भी उस अभियान का हिस्सा बन गए..समय बीता जा रहा था...अखबार का डेडलाइन भी ख़त्म हो चुका था... अंतत: तस्वीर भेजने का सारा उपाय विफल देख मैंने अंतिम बार प्रवीण से अपडेट लेते हुए फाइल फोटो लगाकर फ्रंट पेज को रवाना किया...कोलकाता वालों ने भी वही किया... उधर, प्रवीण रात भर टूरिस्टों को मदद पहुंचाने के लिए भिड़े रहे.. आर्मी के ट्रांजिट कैम्पों में बच्चों और महिलाओं को रखा गया और अन्य लोगों को आसपास के गाँव में स्थित घरों में ठहराया गया.. चार हजार टूरिस्टों के लिए सब कुछ मुहैया करना आसान काम नहीं था, पर जिस तरह से सेना के जवानों ने घनघोर मेहनत कर इस काम को अंजाम दिया, वो अद्भुत था.. प्रवीण रात भर जगे रहे और पूरे रेस्क्यू ऑपरेशन को अपनी आँखों से देखा...उन्होंने हर पल की घटना को कलमबंद किया..
         सुबह होने के बाद राहत अभियान को और तेज किया गया... सड़कों पर फैले मिट्टी और कीचड़ को हटाने के लिए काम शुरू हुआ..करीब 1500  के आसपास गाड़ियां जहाँ-तहां फँसी हुई थी...(सबसे ऊपर की तस्वीर ) ऐसे में ये जरुरी था कि पहले आवागमन को दुरुस्त किया जाए.. दोपहर एक बजे तक जब मलबा हटा तो फिर टूरिस्टों को वहां से निकाला गया... प्रवीण बिना खाए-पिये तब तक वहां मुस्तैदी से डटे रहे... अंत में प्रवीण 4 बजे गंगटोक पहुंचे... उस दिन हमने पूरी खबर का फ़ौलॉप विस्तार से देते हुए अलग से एक फीचर पेज तैयार किया.. प्रवीण की खिची हुई तस्वीर के साथ.... इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस तरह से प्रवीण ने जीवटता का परिचय दिया, वो नायाब था.. अगर वो चाहते तो उस दिन आराम से गंगटोक के अपने विशाल घर में कम्बल तान के सोये रहते, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया......सिलीगुड़ी ऑफिस में जब उनसे मेरी पहली मुलाक़ात हुई थी तो उस भोले और मासूम चेहरे के इंसान को देखकर एकदम अंदाजा ही नहीं हुआ कि इसी शख्स ने तन-मन से पत्रकारिता धर्म का बखूबी निर्वहन किया है.. इसमें भी कोई शक नहीं कि जितने कम शब्दों में मैंने प्रवीण के बारे में लिखा, वो सच में बेहद ही कम है....
         अपने मिरिक रिपोर्टर दीप मिलन प्रधान की चर्चा तो मैं कई बार कर चुका हूँ.. मिरिक और बुन्ग्कुलुंग पर रिपोर्ताज लिखने के समय  मैंने उन्हें करीब से परखा.. वे काफी मेहनती और साफ़ दिल इंसान हैं..मैंने उनके साथ मिरिक और आसपास के कई इलाकों का खूब भ्रमण किया...जब मैं पहली बार उनके गाँव फुबगड़ी गया था तो चाय बागान  के बीच बसे फुबगड़ी बस्ती को देखकर मंत्रमुग्ध हो गया था.. मुख्य सड़क से नीचे की ढलान पर उतरते हुए मैंने करीने से बने छोटे-छोटे मकानों को देखा..कही कोई गंदगी नहीं...  साफ़-साफ़ हरीतिमा...जब मैंने मिरिक पर रिपोर्ताज लिखी थी, तभी मैंने उनसे उनके गाँव आने का वादा किया था..मैंने ये वादा पूरा भी किया...
       मिरिक प्रेस क्लब के सचिव दीप मिलन भी कई मायनों में ख़बरों के पीछे छुपी खबर को बाहर निकालने की कोशिश में लगे रहने वाले पत्रकार हैं...काफी जुनूनी....अब उस रिपोर्ट की चर्चा जिसके लिए दीप ने सिलीगुड़ी से लेकर कोलकाता तक अपने नाम का लोहा मनवाया.... मिरिक से 20 किलोमीटर की दूरी पर बालासन नदी के किनारे लोअर जिम्बा गाँव है... इस गाँव की आबादी बहुत ही कम है और ये काफी पिछड़ा हुआ इलाका है... चारों  तरफ जंगल ही जंगल... घनघोर अभावों में मुश्किल से अपना गुजर-बसर करने वाले मजदूर लकड़ी के घर बनाकर किसी तरह जीवन-यापन करते हैं... सब घर एक दूसरे से काफी अलग-अलग.... शायद 10  या 11 जुलाई का वो दिन था... दीप ने शाम पांच बजे के आसपास मुझे फ़ोन किया और कहा कि आज खबर भेजने में थोड़ी देर हो जायेगी... जैसा होगा, मैं आपको फ़ोन करूँगा... दीप को एक खबर की भनक लग गयी थी....उन्होंने मुझे सिर्फ इतना कहा कि खबर काफी ह्रदय विदारक है, पर मैं लोअर जिम्बा गाँव जाकर ही कुछ बता सकूँगा.. दीप ने बताया कि जब तक खबर की पुष्टि नहीं हो जाती, कुछ भी कहना ठीक नहीं होगा... मैं तब तक समझ नहीं पा रहा था कि आखिर माजरा क्या है ? 
         तीन घंटे के बाद दीप ने मुझे फ़ोन किया और कहा कि मैं अभी जिम्बा गाँव से लौटकर आया हूँ.. मेरे पास उस खबर की तस्वीर भी है... मैंने कहा कि दीप बात क्या है ? उसने कहा कि खबर ये है कि उस गाँव में दोपहर के तीन बजे एक दम्पति अर्जुन तमांग और शोभा तमांग के घर में आग लगने से सात बच्चे जलकर राख..... उन्होंने बताया कि जिस वक़्त ये हादसा हुआ, उस वक़्त घर में बच्चों के अलावा कोई भी नहीं था... उनके माँ-बाप कहीं गाँव से बाहर मजदूरी करने गए हुए थे... दीप ने कहा कि आधे घन्टे में मैं पूरी रिपोर्ट और फोटो भेज रहा हूँ..दीप ने वही किया... आधे घंटे के बाद उन्होंने पूरी खबर और तस्वीर भेजी... मैं तब तक निश्चिंत भाव से अपने काम में लगा हुआ था, पर मेल से तस्वीर डाउनलोड करने के बाद उसे देखते ही मैं सकते में आ गया...मैं अन्दर तक हिल गया ... दीप ने दो तरह की तस्वीर भेजी थी.. सातों बच्चों के जलने के बाद बचे अवशेष.. राख में मिले हुए मासूम हड्डियों के टुकड़े... जबकि दूसरी उनकी वो तस्वीर जो उनके माँ-बाप ने जिन्दा रहते हुए खिंचवाई थी... पता नहीं कैसे दीप को वो तस्वीर कहाँ और कैसे मिल गयी ? जबकि उस अगलगी में सब कुछ स्वाहा हो गया था.... सात बच्चों में सबसे बड़े की उम्र नौ साल, जबकि सबसे छोटे की उम्र मात्र सात महीने....  आम तौर पर इस तरह की ख़बरों को देखने के बाद खुद में संतुलन बनाये रखना काफी मुश्किल होता है..पर मैंने अपने को संभालना भी सीखा था.. मैंने समझा कि चलो इस तरह तो होता ही रहता  है... पर न जाने क्यों बार-बार वो दोनों तस्वीर मेरी आँखों के सामने पलट कर आ जाता.. मैं उस खबर को ठीक कर भी रहा रहा था और अन्दर-अन्दर टूट भी रहा था...सात महीने के उस दूधमुंहे मासूम की तस्वीर पर जाकर मैं ठहर जाता.. कैसे हो गया ये सब ? किसी को कोई मौका नहीं मिला...? क्या वहां कोई भी नहीं था ? काल के इतने क्रूर हाथ ? अंत में मुझसे बर्दाश्त नहीं हो सका ... तब मैंने चुपचाप करीब दस मिनट तक अपने को बाथरूम में बंद कर लिया...
क्रमश: