यतमान...
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Rahul...
20 November 2010
नामुमकिन सा है
निगाहों में शिकन
को बहने दो...
लग के साहिल से
चुभता है धुआं
उसे..
सिर्फ बहने दो
कागजों की किश्तियाँ
कितनी दूर
कब तक
उसे..
सिर्फ बहने दो
दो पल के लिए...
जानता हूँ
नामुमकिन सा है
लौटना..
कागजों की किश्तियाँ
कितनी दूर
कब तक
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