Rahul...

15 November 2010

अब यही मुनासिब है..

तेरी सुबह का
एक मोती
मेरी हथेलियों पे
टिका रहा
उस विरानी शाम तक
जैसे वीरान
एक जंगल...
कुछ मंजर ..
और . ..
तेरी सुबह का
एक मोती
जब लरजती धूप
बरसी... तो
विरानी शाम
कुछ मंजर
और . ..
तेरी सुबह का
एक मोती
गुनगुनाने की जिद में
मुद्दतों तक
तेरी मोती को समेटता रहा
अब यही मुनासिब है..
एक जंगल...
कुछ मंजर ..
और कुछ ..
विरानी शाम
                      Rahul

1 comment:

  1. कितना कुछ कह जाते हैं..कैसे लिख लेते हैं..मैं सोचते रह जाती हूँ..

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