सफ़र में
सोचा था...
कहीं मिल जाता
वक़्त जो इतना था..
काँटों को समेटते..
बटोरते
तेरे अल्फाज
बिखर गए
उस सफ़र में
जहाँ..
घर आये मेहमान
जैसा दिखा
तेरे आँगन का रास्ता
जलती-तपती
वीरान सी बिखरती नींद
देर से.. मिले
कोई हद..
न तो तेरे नाम पर ..
जो सोचा था
जीया था
भोर में जन्म लेती
तेरी सदी के पहर में
बिखर गए
जहाँ तुम्हारे बाद
कोई चेहरा
आईने सा..
अब नहीं दिखेगा
जो बचेगा......
जलती-तपती नींद
उसी सदी में
तेरी मर्जी के
सफ़र में... शायद
होंगे........
राहुल
बेहतरीन .... .
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