Rahul...

15 January 2011

मुनचुन के मन से...४

... गाँव के माहौल में बेफिक्री का जो आलम था,  वो शहरों में ख़त्म हो गया. मुझे आज भी यही महसूस होता है कि कम पढ़े लिखे लोग कितनी ईमानदारी  से अपनी जय-पराजय, गिला- शिकवा और हर पल की जद्दोजहद को सामने रख देते हैं. जितने चेहरे, उतनी बातें... दरअसल हम सब अपनी- अपनी व्यथा को जीते हैं. काल के गर्भ में पनपते एक आम आदमी के पास ऐसा कुछ भी नहीं होता, जिसे वो अपना कह सके. अगर कुछ अपना होता है तो वो है जुर्रत... हमेशा जिन्दा रहने की, सुकून से जीने और आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ जमा करने की.. ऐसे लोग हर वक़्त किसी दोराहे पर पहुँच कर ठिठक जाते हैं. ठगे जाते हैं. मुझे नहीं लगता कि उम्मीदों का सूरज उनके जीवन में कोई पुंज फैला पाता है. आधी जिन्दगी इसी में कट जात्ती है और आधी जिन्दगी का कोई हिसाब बन नहीं पाता.
मुझे वो पूरा मंजर अब भी सामने  दिखता है. घर में सामंती परिपाटी को जीने वाले कई लोग मुझसे कहते कि तुम जो सोचते हो, ऐसा यहाँ नहीं है. तुम अपनी  नेकनीयती अपने पास रखो. पटना में जो करते हो, वही करो. और भी बहुत कुछ.. सुनता. देखता रहता... पटना में जहाँ घर है. मेलजोल के अपने नजरिये से आसपास के बहुत लोग मेरे करीब नहीं आ सके. ऐसा भी कहा जा सकता है कि मै ज्यादा नहीं मिल पाया. हाँ.. ये जरूर हुआ कि आत्मीय होकर जब भी किसी के काम आया तो धारणा बदलते भी देर नहीं लगी. मुझे भी वक़्त-दर- वक़्त किसी की जरूरत हुई तो लोगों ने साथ दिया. आज भी आसपास के बहुत कम लोग जानते हैं कि मीडिया सेक्टर में मै हूँ .. 
     ...... शेष

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