Rahul...

11 January 2011

मुनचुन के मन से.. ३

..... जब मुझे यह लगने लगा कि घर के कई मसलों पर कई लोगों से मेरे मतभेद हैं तो मैंने इसे स्वीकार किया. मुझे यह बात मानने में कोई गुरेज नहीं कि भावना और मिजाज के स्तर पर मेरी कई लोगों से पटती नहीं थी.. यह आज भी है.. दरअसल हम सभी लोग अपने सफ़र की कहानी में खुद रंग भरते हैं. कैनवास खाली हो या बेरंग.. तय हमें करना होता है.. रंग तो आपके आसपास सागर सा फैला है.. साइंस का स्टुडेंट होने के बावजूद मेरे कमरे में हर नामी गिरामी लेखक की बुक्स दिखती.. पढता और डूबता रहता.. उन दिनों सोचता कि किताबें सब कुछ होती है.. मगर ऐसा आज नहीं लगता.. इतने वक़्त में कितना लम्हा गुजर गया.. कितनी पीर सी जिन्दगी समय के लिबास में जमींदोज हो गयी..
१९९५-९६ के बाद तो मामला और संजीदा हो गया.. थोड़ा- बहुत कलम उठने लगा.. जो तबीयत पर गुजरता.. वो शब्दों में ढलता.. बादल.. हवा.. धूप.. पानी और ना जाने क्या- क्या.. आसपास मौजूद रहते. गाँव जाता तो खूब घूमता.. खेतों में काम करते लोगों में शामिल होता तो घर के कई लोग डांट-डपट करते.. लेकिन मैंने कभी परवाह नहीं की.. अपनी मिटटी को समझने की सनक बनी रही.. वो आज भी कायम है.. 

मुनचुन के मन से.. ३                          ...शेष

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