... स्कूल का सफ़र तय करने के बाद घर में यह बताया जाने लगा कि तुम्हें क्या होना है. जाहिर सी बात है कि अगर आप सब में बड़े हैं तो सब आप पर टूटेंगे. धीरे-धीरे यह लगने लगा कि मुझे हर जगह जिम्मेवारी के साथ दखल देने की आदत सी हो गयी है. कभी सोचता कि कुछ ज्यादा ही बड़ा हो गया हूँ.. मगर पापा हर बार लकीर छोटी कर देते. एक ऐसे परिवार में इतना द्वन्द था कि माँ पूरी तरह हमलोगों को समर्पित थी और पापा किसी और चीज़ में उलझे रहते थे. पैसों की कदर करना और बचा लेना कोई उनसे सीखता.. समझता. कई मायनों में जिंदगी बेतरतीब थी. शहर की भूल भुलैया और गाँव-जवार की खुरदुरी जिंदगी में हम सब हमेशा झूलते रहे.
मेरे जेहन में हमेशा गाँव..उसके लोग..और न जाने कितने चेहरे कैद रहते. ऐसा कभी नहीं हुआ कि.. मैंने इनको अपने आप से जुदा करने की कोशिश की होगी.. मुझे लगता कि अपनी मिटटी से कट जाना खुद को मिटा देने के जैसा है. ऐसा कभी नहीं लगा नहीं. कॉलेज की दुनिया में घूमते-फिरते घर की दीवार याद आती.. पढना-लिखना यथावत जारी रहा.. रंग-रूप और कद-काठी पर काफी कुछ झेलना पड़ता. कहा जाता कि तुम्हें अपना होश नहीं रहता. कब ख्याल करोगे ? काफी सुना. हर कोई अपने शुभचिंतक होने का दावा करता.. कहानी यही से घूमती गई.
... शेष
मुनचुन के मन से.. २
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