तुम जब सवालों में घिरते थे तो फिर उस घर में, अपने कमरे के एकांत कोने में तुम्हें देख मै.. ना कुछ समझ पाती और ना ही कुछ समझा पाती तुमको.. चाहकर भी.....! मुझे तुमने उस पत्ते की मानिंद उड़ने को छोड़ दिया.. जिसका खुद का चेहरा जर्जर था.. और बेजार भी... आज कहा चला गया सब कुछ.
.....अजीब सी अदा.. पूरी तरह नाटकीय चलता जीवन चक्र.. रंगे चेहरे.. एक.. पर एक.. सब्जबाग.. किसको देखूं.. किसको छोड़ दूं... अपनी इस दुनियादारी में खुद के एहसानों का बोझ खुद पर इतना ज्यादा है कि किसी और के लिए तुमको छोड़कर कोई नाम याद नहीं आता.
तेरे घर.. तेरे कमरे.. ओह...भींगते पन्नों पर चुपचाप उतरती हुई ओस.. उस चांदनी रात का कर्ज है.. जो अकेले मैंने तुम्हारे लिए मांगी थी.. रात के अधरों पर बेचैन.. थकी सी हंसी चस्पा है.. अलसाये रातों की अंतहीन कड़ी है.. कुछ अजन्मा सा.. भोर भी..
...आगे और भी
अलसाये रातों की अंतहीन कड़ी है.. कुछ अजन्मा सा.. भोर भी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ....शुभकामनायें