Rahul...

04 February 2011

छोटी सी इबादत- 2

 
..... मै तब जानती थी कि बारिश की बूंदों का तुम पर कोई खास असर नहीं होने वाला. कितना हल्का सोचती थी. तुम हमेशा दूसरों को माफ़ करते थे. आज भी करते होगे. तुम यहाँ जस का तस रहोगे.
                   बारिश की कतरनें थोड़ी देर के लिए राहत  तो देती है.. बाद में उमस का सैलाब दम घोंट देता है. घर की देहरी और छतों पर तुम अनायास दिख जाते तो.. कुछ टूट जाने को होता.. मगर तुम ओझल हो जाते.. ये चुभ जाता. तेरे कमरे में सब कुछ करीने से होता.. चुप सा किस्सा बुना जाता.. जब तुम नहीं होते तो मै एक-एक चीज को देखती.. आत्मसात करती. और जो समेटना होता वो समेट लेती. जिन कामों के लिए उस कमरे में जाना होता.. वो काफी उमंग से होता.. लेकिन तुम चुप रहते. कभी- कभार तुम कुछ कहते तो अनायास ही सब कुछ बैठ जाता.. मन को आखिर एक असीम लज्जत की जरूरत होती है.. शब्द बेमानी हो जाते हैं अगर चुप्पी सटीक निशाने पर चुभ जाये.. तुमने यही किया.. कितनी बड़ी सजा दी है तुमने ? खुद को भी तो नहीं बख्शा तुमने. आज जहाँ कही मै हूँ और जहाँ तुम... वो करीने सा कमरा मेरे साथ-साथ रहेगा... तो तेरे पास मंद-मंद सी चुप्पी......
                  एक अकेला कोई कैसे तनहा रह सकता है ? दरअसल ये खजाना एक नेमत है. सदा सँभाल कर रखने के लिए.. ये नेमत जितना बिखरता है.. उसकी खुशबू उतनी लरजती है.. जितनी तपती है.. उतना ही निखार आता है.. वक़्त तो मुगालते में है कि सजा हमने तय कर दी.. अब भुगतो और प्रारब्ध को जीते रहो.. मगर ये पूरी तरह एकतरफा नहीं होता.. चलो.. स्वीकार किया.. देखेंगे.. किस्मत की लकीरों में कौन सी पर्ची निकलता है.. वक़्त का क्या है...........
                  ....... हाँ.. तो तुम कुछ मेरे लिए लाये थे.. कहाँ  से कहाँ खो जाती हूँ... शून्य में जन्मी यादें... आज तो सब कुछ भूल जाने को मन करता है... मन करता है कि  बीच गंगा की लहरों में विलीन होकर समाधि ले लूं.. तुम कुछ और भी थे... यह तब दिखा.. मेरे पास इतना ही शेष रह गया है.. तुम्हारे लिए सोच नहीं पाई कि क्या.......
                                                                            अभी और भी

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