Rahul...

08 February 2011

छोटी सी इबादत-4

 
....सब कुछ कल्पनातीत सा.. नींद में यथार्थ से लड़ने का बोध.. ओह.. कैसा होगा हमारे चाहने.. न चाहने के द्वन्द में पिसता हमारा लम्हा... कातिल भी वही.. मुंसिब भी वही.. ये कहना कि तुम्हारा अंजाम.. तुम्हारे हक में मुनासिब नहीं रहा.... मै नहीं मानती... जार-जार तो नहीं.. हाँ कहूँगी कई-कई बार...इतने जर्जर.. कमजोर और बेबस हो जाओगे... पता नहीं था......
कोई आइना तेरे मिजाज को पढ़ तो नहीं सकता... आज भी तेरे नाम व तुझको समझने की गलती बार-बार दोहराती रहती हूँ. अगर कायनात में टूटी-फूटी जरा सा भी मेरे दामन में कुछ सौगात मिलना बाकी हो तो.. बस इतना हो कि गलती बार-बार करूं..
मुमकिन इतना तो अब भी लगता  है कि भोर की पनाह में जब सांस डूबती-उतराती है तो अनंत यात्रा पर.. मिट जाने को मन करता है.. दिन चढ़ते चला जाता है.. फिर ख्वाब.. आसपास चिपके हुए उस सीलन का.. जो अनचाहा है.. अकारण है.. शाम होती है... फिर देखती हूँ.. और नजरें खुद की चुभन को बर्दाश्त नहीं कर पाता...,  चारों तरफ  शब्दों का आडम्बर है.. रिश्तों की अनकही व्यथा है... ये कौन सी सदी है.. ये कौन सा जन्म है... तुम कतरों में बिखरते हो.. मै चीखों में सो जाती हूँ.. ....            
                                                                     ......    आगे और भी

1 comment:

  1. नजरें खुद की चुभन को बर्दाश्त नहीं कर पाता..., चारों तरफ शब्दों का आडम्बर है.. रिश्तों की अनकही व्यथा है... ये कौन सी सदी है.. ये कौन सा जन्म है... तुम कतरों में बिखरते हो.. मै चीखों में सो जाती हूँ.. ....

    राहुल जी,
    अनभूति को शब्द देने का आपका अदभुत अंदाज़ है !

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