लम्बी रातों में बोझिल से दिखते मन की यात्रा में तुम निर्विकार जब मिल जाते थे... तो न फिर कोई दर्द........... अब कुछ नहीं बताना... आत्मबोध में बहती हुई तेरी बातें... सालों बाद वही रात.. उतना ही दर्द... कहाँ से कहाँ सब चले गए.. तुम्हारा नाम तो मेरे पास ही रहेगा.. उस शब्द का सीधा सा मतलब.. |
अपने गाँव में जमीं की देहरी पर कदम रखते ही बिखर गया सब कुछ.. सब उस किताब की तरह.. जिसके शब्द खुद के पन्नों में अपना वक़्त तलाश रहा है.. उस जमीं को सीने में दफ़न करने को...कुछ अंश तो मुझमें मिलेगा.. कभी तुम आये थे मेरे घर.. और मेरे आँगन में चुपचाप...दूसरों को सुनते... अकेले... अचानक से सुनते-सुनते चले गए.. फिर वो मंजर नहीं आया...
खुद में इतना खो जाना...कितनी वीरानगी.. जितना अन्दर जाती हूँ.. एक बेतरतीब कविता आकार लेती है.. लगता नहीं कि अब तुम... मेरी इबादत का पन्ना पहले भी अधूरा था... आज भी वैसा ही... तुम्हें एहसास तो जरूर होगा.. और डूबोगे भी... मुझे तो रेत की डगर पर चलकर जाना होगा... फिर से जतन...
.........................आगे और भी
राहुल भाई, सचमुच दिल से लिखते हैं आप। बधाई।
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शिकार: कहानी और संभावनाएं।
ज्योतिर्विज्ञान: दिल बहलाने का विज्ञान।
अति सुन्दर ..
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