.....कितनी बातें छूट जाती है.. सूनी-सूनी गलियों में हजारों मंजर भटक रहा है. उसी मोड़ पर... वक़्त की शाखों पर जो लम्हा टूट कर उन गलियों में बिखरा हुआ है.. सोचती हूँ.. उन्मुक्त आकाश में छोड़ दूं.. परिंदों की उड़ान में समाहित कर दूं. लेकिन ऐसा होगा.. लगता तो नहीं.. सच.. .....कितनी बातें छूट जाती है.. अथाह आसमान का गुनाह क्या हो सकता है ? वो तो सब कुछ कैद करने को आतुर है. मै भी उस आसमान में ना तो बिखर सकी और न मिल सकी. आकाश आज भी कहता है....... गुजारिश करता है...... मगर.. तुमने कहाँ मुक्त होने दिया.. ना तो खुद में मिलने दिया और ना ही बिखरने दिया... इतना तो मै भी जानती हूँ कि कच्चे रेशम जैसे नर्म रिश्तों में पाने की कोई लालसा नहीं थी.. तुम यही चाहते थे.. सच तो ये भी है कि तुमने कभी कुछ चाहा ही नहीं... तुम आज भी वैसे ही होगे...
......मुझे सपनों से सदा ही विरक्ति रही. अभी तो अभी... मिले ना मिले.. तुम्हारी बातें थोड़ी जुदा थी. एहसास इतना करती थी कि तुम अपने अंतर्मन में कुछ गढ़ते रहते हो.. कभी-कभी तुम्हें देखती तो मालूम होता.. आज के सफ़र में मुझे सपनों की परीकथाएँ जीने के लिए तुमसे कुछ माँगना पड़ता है.. सब कुछ नीरव सा.
कहना असंभव है..जाने सो जाने..जिए सो जाने.. अनुभव हो जाये.. कबीर तो इतन ही कह गए.. जो भी अपने शीश को रख दे, ले जाये जो भी अपने शीश को गिरा दे, उस पर बरस जाता है प्रेम का मेघ, बहने लगता है उपर से, बंटने लगता है दूसरों को... और ऐसी मुक्ति.. जहाँ मोक्ष की भी चाह नहीं.....
आगे और भी...
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