Rahul...

21 January 2012

हर रोज.. हर लम्हा..



किस-किस मोड़ पर
मिल जाते हो..
हर रोज...
हर लम्हा...
कभी उनींदी आँखों से
तड़पते..कांपते
पवित्र स्पर्श को
सजाने लगती हूँ
तुम्हारे ही आसपास...
न जाने कितने..
गुलाब..काँटों की चुभन
और..
तेरा-मेरा हर रोज..
हर लम्हे में मिल जाना..
कितनी चीखें..
तेरे पवित्र स्पर्श
को कहाँ छुपा दूं
मै बुत सी होकर बस इतना ही..
तो मांगती हूँ..
सच... मगर
यकीन नहीं..
तुम इतना सा
देने की जिद में
किस-किस मोड़ पर
मिल जाते हो..
हर रोज...
हर लम्हा...
            हर रोज.. हर लम्हा..                              राहुल

2 comments:

  1. कोमल, मृदुल भावों से परिपूर्ण सुंदर प्रस्तुति. आभार.
    सादर

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