Rahul...

31 January 2012

बाकी सब कुछ..

कितने फासलों में
रात
हमारे बीच के शब्दों
में फंदे सा..
झूलती..टंगी होती है
किसी बच्चे के पालने में

लटकी ..
आँखों को टिकाये
रखने जैसे खिलौने
ठीक वहीँ से
हम दोनों
या .. हम दोनों जैसे
बहुत सारे कितने
सलीब को बड़े जतन से
उठाते हैं
ठीक... उतने ही फासलों में ..
रात.. जार-जार रोती है
फिर तब.....
हम दोनों
या .. हम दोनों जैसे
बहुत सारे कितने
भोर को दुलारते..
सूत्रधार की याचना मांगते
वहीँ आकर अलग हो जाते हैं..
मंच वैसा ही
 चेहरा भी
 अनवरत.. सा

कितने फासलों में
रात
हमारे बीच के शब्दों
में फंदे सा..
झूलती..टंगी होती है
बस...
इसका बही खाता
नहीं होता
बाकी सब कुछ..
बच्चे.. पालने
और उनके लटकते खिलौने
...                                                          राहुल

2 comments:

  1. सुंदर शब्दों में जज्बातों को आपने पिरोया है।
    आभार राहुल जी

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  2. जब फासले पैर पसार लेते हैं तो सबकुछ कम पड़ जाता है भरने में . बहुत अच्छी लगी..

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