Rahul...

29 December 2011

जाते-जाते -4

.... अब नहीं लगता कि तुम्हारे बदलते चेहरे और करवट लेते इस साल के बीच कोई फासला बाकी रह गया हो. चलो माना कि मै कहीं नहीं था. सच में मै कहीं से तेरे आसपास होना भी नहीं चाहता था. रात के गहरे अंधकार में कोई गुमनाम सी किरण जैसे भटकती रहती हो.. सुनसान पगडंडियों में बार-बार रास्ते से भटकने जैसा.... अपने रास्तों में कहीं भी ठहराव जैसी चीज नहीं रही.. हाँ अगर कुछ रहा तो इतना कि कोई उम्मीद का दामन दूसरों के हवाले न कर दें... यह हमेशा मन के आसपास रहा..... और जब अंतहीन कथा यात्रा में कोई साथ हुआ तो मैंने सब कुछ सौंप दिया... मेरे साथ यह एक दिक्कत है..यहाँ से वो यात्रा शुरू हुई ..जिसका कोई मकसद नहीं था. मुझे हमेशा ये चीज अखरती कि किसी को बार-बार गलत समझा जाता रहा.. दुनिया को समझाने और सिखाने को हम प्रारब्ध नही नहीं थे. वर्ष के चढ़ते और ढलते वक़्त में एक मुद्दत का फासला दीखता है. कितना कुछ खोने का... हम तो पहले से इतने खुशनसीब थे कि खोने की रवायत को कभी मिटने नहीं दिया. शायद ऐसी खुशनसीबी सबको कहाँ मिलती है...... आज भी इतना कुछ अंतर्मन में शेष है ..... हम तो आदतन सब के liye एकला चलो रे... का संताप जीते हैं...इसी दम पर तो गर्व करने लायक कुछ मर्म अपनी झोली में अब तक है..... पर कुछ लोग अपने लिए अफ़सोस है..... कहकर सिमट जाते हैं... क्या कहना ? इतना ही तो तुमसे हो सकता था.... और तुमने इतना ही किया... तुम्हे अपने लिए हर मोड़ पर एक सिस्टम की दरकार होती रही.. हर चीज अपने लिए ... और जब किसी और का वक़्त आया तो फिर अफ़सोस जैसा शब्द.... अब से कुछ घंटों बाद न तो ये साल रहेगा और न ये अंतर्द्वन्द... सब उन्मुक्त हो जायेंगे... सब उस रौशनी में डूब जायेंगे जो कभी हमारे लिए नहीं था...............................
                                                              राहुल




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