Rahul...

09 April 2012

आग पर....

तेरी मेहरबानियों पर 
रोती बहारें
जब दबे पाँव
झुलसते..
आग पर चलती है 
रतजगा करती है 
..तो  हम 
अपनी ही जंजीरों के 
मोहपाश में 
लिपटे
तुम्हारी मुस्कराहटों 
की सेज पर
लहूलुहान होते हैं..
थकी थमी..
बेजार होती सड़कें 
मेरे सीने पर 
उन्हीं जंजीरों को 
कसते हुए
नींद की खुशफहमी में ..
आग पर चलती है 
रतजगा करती है...
 तब भी.. 
हम उसी सेज पर
लहूलुहान होते हैं..
तेरी मेहरबानियों 
की बहारें..
मेरे ही कटघरे में 
मुझे कैद करती है...
दलीलें सुनती है 
भूल कर..
न भूलने जैसा..
रोज बदल कर .
न बदलने जैसी 
सजा मुक़र्रर करती है 
तब...
प्रसव की वेदना जीता
मेरा अबोध शब्द
बेकल.. अजन्मा 
निरुत्तर होता है
                                            राहुल

4 comments:

  1. बेहद गहरे अर्थों को समेटती खूबसूरत और संवेदनशील रचना. आभार.
    सादर

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  2. मुस्कराहटों की सेज पर वेदना...निरुत्तर शब्द..

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