Rahul...

04 April 2012

फैसलों की किताबों में


कभी मेरे..
झूमते बालों में
तुमने एक स्पंदन
रोपा था...
कभी मेरी..
तारीखों में
तुमने..
पानी के बुलबुले को
हाथों में
सहेजा था..
अभी भी
मेरी उलझी लकीरों को
तेरी गवाही की दरकार है.
तुमने तो मसीहा होकर
जिन्दा रहने..
की सजा तय की..
जीते रहे
तो ..जीते रहे
किताबों-किस्सों के
ढेर पर..
तेरा स्पंदन तलाशती हूँ

तेरे बुलबुले को
पन्नों से निकाल
माथे से लगाती हूँ
कभी माँ भी कह देती है
मन को जलाकर
आगे पांव रखना
अब स्पंदन को जाने दो....
हर बुलबुले का
अपना फैसला है
उन्हें उड़ जाने दो...
मै मूक सी...
हवा सी उदिग्न
फैसलों की किताबों में 
तेरा स्पंदन तलाशती हूँ
शायद..और लगभग
शायद .. अब भी
मेरी उलझी लकीरों को
तेरी गवाही की दरकार है.........
                                                                              राहुल 




2 comments:

  1. बेहतर रचना ...सीधे दिल पर उतर गयी पंक्तियाँ...
    बहुत सुंदर ......!!!!

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  2. जब तक धड़कन है तो स्पंदन है उसी की . गवाही की दरकार शायद नहीं है..

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