Rahul...

20 July 2012

जैसे डूबती हूँ मै...

तुम्हारे अन्दर
एक विवशता
का बंजर था........
रोने-गाने की
दहलीज से
दूर जा बैठे थे..............
मै अब भी..
सोच रही हूँ तुम्हे
कितना एकाकार है ?
समय की
क्रूर  समीक्षा में
असमाप्त विषयों का
मिथ्या जयघोष........
पानी की स्याही से
बंजर धरती पर
तुम हर पल
उगाते हो..
अपना भ्रम
ऐसा क्यों नहीं होता ?
जैसे डूबती हूँ मै
तुम भी....
कभी डूब जाओ
समय की
क्रूर समीक्षा में.....
मै अब भी..
सोच रही हूँ तुम्हे
कितना सहज है ?
अपनी-अपनी पृथ्वी
को तय कर लेना
और बेदम रास्तों को
अंगीकार
ऐसा क्यों नहीं होता ?
जैसे उगती हूँ मै
विवशता की
बंजर धरती में
तुम भी....
कभी पनप जाओ
मेरे बवंडर में...
मै अब भी..
सोच रही हूँ तुम्हें.......

                                                      राहुल

8 comments:

  1. तुम भी....
    कभी पनप जाओ
    मेरे बवंडर में...
    मै अब भी..
    सोच रही हूँ तुम्हें.......
    यह रचना बहुत ही उम्दा है बेहतरीन अभिव्यक्ति

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  2. बहुत सुन्दर राहुल जी...
    नारी मन के कोमल एहसासों को बखूबी उतारा है इस रचना में...

    अनु

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  3. तुम भी....
    कभी पनप जाओ
    मेरे बवंडर में...
    मै अब भी..
    सोच रही हूँ तुम्हें.......

    gahan ...aur sundar rachama ...!!

    shubhakamnayen.

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  4. सोच रही हूँ ऐसा क्यों नहीं होता कि समय का बवंडर थम सा जाता और विवशताओं में आ जाती बहारें..कितना एकाकार होता..क्यों नहीं ऐसा होता..?

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  5. नारी मन के कोमलता है यह
    वह रिश्तो को यूँ ही नहीं छोड़ देती
    एक कोशिश तो करती ही है बिखरे रिश्तो को सहेजने की..
    बेहतरीन रचना...

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  6. तुम भी....
    कभी पनप जाओ
    मेरे बवंडर में...
    मै अब भी..
    सोच रही हूँ तुम्हें.......
    नारी मन के कोमल भावो को
    व्यक्त करती बेहतरीन अभिव्यक्ति..

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  7. इतना गहरा सोंच आपके ही दिल से निकल सकती थी .............बहुत ...खूब ...........

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  8. ऐसा क्यों नहीं होता ?
    जैसे उगती हूँ मै
    विवशता की
    बंजर धरती में
    तुम भी....
    कभी पनप जाओ
    मेरे बवंडर में...
    मै अब भी..
    सोच रही हूँ तुम्हें.......


    बहुत खूब .
    उम्दा और बेहतरीन अभिव्यक्ति ..
    सार्थक रचना ..

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