Rahul...

09 July 2012

संभवत.....

काफी जानलेवा होती है
सफलता...
सब कुछ छोड़कर 
इसके मद में...
आदमी.... सिर्फ  अपनी ही
मूरत गढ़ता  है ..
तब....
संघर्ष का शंखनाद
टूटने लगता है
सब कुछ छोड़कर
तिलिस्म में
आदमी....सिर्फ अपनी ही
साँसों को बेमकसद गिनता है 
साकाश बादलों के..
पहरे में...
जब सूरज पसीजता है
तब.. शर्तिया
सफलता...और
जानलेवा हो जाती है......
एक वक़्त था
एक  बूढी धरती थी
जब..
पवित्र त्याग के
उदगम से...
आत्म संतोष की
गंगा उमड़ती थी  ..
नदी, झरने, तालाब
तब उसी में
अमृतपान करते थे..
बिना शिकवे के..
अब सफलता
पूरे समंदर को
अकेले ही..
सोख लेना चाहती है
संभवत..
वह जानलेवा समेत
बदमिजाज.... व
हिंसक भी हो गयी है
                                                    राहुल

2 comments:

  1. पर हिंसक सफलता ये भुला देती है कि हर उगते सूरज को डूबना ही पड़ता है..

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  2. आदमी आज ऐसा हो गया है कि आदमी ऐसा ही होता है ..मैं तो सोचते रह जाती हूँ..सुन्दर लिखा है..

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