Rahul...

30 October 2011

मै..नहीं...हम...नहीं...

 
तुम मेरी निगाहों को गैर कर दो.
इतना ही तो होना था...
मेरा लम्हा खुद कहीं पैवस्त रहा होगा .
सच में.. ये अकस्मात् नहीं था
तुम मेरे लिए खाली हाथ ही तो आये थे......
इतना कुछ भी आसान गर होता....
जबकि किसी का वजूद
तेरी लकीरों में चस्पां था.
सदियों से .....
तुमने दो लकीरें खींच रखी है..
एक.. जिसमें मैं उसके जद में रहता हूँ.
दूसरा ...तुम उस लकीर के आसपास
आडम्बर का घेरा रचती हो...
मै..नहीं...हम...नहीं..
हजारों सागर का आर्तनाद
मेरी साँसों में टूटता रहता है......
सच में ...ये सब अकस्मात् नहीं होता ..

                                                                                     राहुल




1 comment:

  1. सच , बहुत अच्छा लिखते है आप. अच्छी लगी .

    ReplyDelete