Rahul...

12 August 2011

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अभी कुछ वक़्त पहले ही एक वाकया हुआ. हमने किसी को कुछ शब्द वादे में दिए. फिर बात ख़त्म हो गयी. हम सब मगन हो गए... पेड़ों पर नए मौसम के पत्ते आने लगे. सब नया सा हो गया. वादों में दिए गए शब्द मेरा पीछा करते रहे ... मै चुप रहने लगी ... कुछ भी किसी से कहा नहीं .. एक पल को लगा कि कही एक तार का सिरा टूट गया है. मै उन अधूरे वादे को लेकर पशोपेश में थी. जाहिर है शब्दों की तलाश बेपरवाह हो गयी.. मंजर जाता रहा .. पत्ते जब बिखर कर जमीन पर आये तो एक सदी गुजर चुका था.... वक़्त ने एक सलाह दी थी.... मुझे अपने आसपास से मिटा देना.. गर ऐसा नहीं कर सके तो राख तक नहीं बचेगी .. अपने सामने की तस्वीर से अपनी छाया समेट लेना.. सबके लिए यही मुनासिब होगा.. सनातन काल तक.....तुम कितना अपना सा कहते थे... ये सच भी था .... तुम जो भी थे... बेहद निर्विकार ... चोट खाते रहने की आदत में बेमिशाल थे ... शायद तुम्हारे दिए हुए शब्द मै सहेज नहीं पायी ... लगा ही नहीं ... कि मै तुम्हे कुछ प्रतिदान दे सकूंगी .... उसके बदले ... मन में एक वहम का सन्नाटा है... कैसा पल ... सब आसान नहीं .. तुम तो उन्ही शब्दों की खाक में यायावर होगे... सच ... एक यायावर से ज्यादा कुछ नहीं थे तुम ......... मैंने हमेशा तेरे अन्दर तुम्हें तलाशने की कोशिश की .... यह कितना मुश्किल था. कभी भी तुम......

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