Rahul...

25 June 2012

खंड-खंड सागर को ......

...सिर्फ जिस्म
 नहीं होती है लड़कियां
और... 
सपना भी नहीं
तिरते आसमान में
रंग-बिरंगे बादलों
जैसी भी...
नहीं होती है लड़कियां
कि...कोई समेट ले
अपने हाथों में..
सूखी हुई नदी की
आँखों में भी
भींगने भर को
नहीं होती है लड़कियां
की... कोई  डुबो दे 
अपने गलीच तालाब में
सूरज की बारिश में
छम-छम कर
जब उत्सव बिखेरती  हैं
लड़कियां...
आँगन में टूटने से पहले
जब माँ से चिपकती है
लड़कियां...
सागर को भी..
खंड-खंड कर देती हैं
लड़कियां.....
जब बाप के माथे पर
तर बतर होती हैं
लड़कियां...
कांच की सड़कों पर
जब दौड़ती हैं
लड़कियां
तब ...सिर्फ जिस्म
नहीं होती है
और न ही कोई सपना..
सूरज की बारिश
कांच की सड़कें
और सूखी हुई नदी 
के  मिलने पर भी
अपने बंजारे मन में
चेतन सी ..विराट
खुशबू को आह्लादित करती 
खंड-खंड सागर को
पी जाती हैं
लड़कियां


                                                                   राहुल

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर और गहन अभिव्यक्ति राहुल जी....

    अनु

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  2. गहन अर्थ लिए..
    कोमल भाव व्यक्त करती रचना...
    बहुत सुन्दर....
    :-)

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  3. खंड-खंड सागर को पी रही हूँ..विराटता समा रही है...

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  4. ... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है....राहुल जी

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  5. bahut hi utkrasht soch se bhari rachna..
    kash sabhi aisi soch bana paate!
    aabhar!

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