Rahul...

19 June 2012

रात.. अब तुम जाओ

कहाँ  से आती है
रातें ?
कहाँ से रिसता है
उम्मीद ?
 एक रात
एक उम्मीद
दोनों के बीच
खड़ा
कच्ची धूप का फासला
रात कहती है
इन धूपों को पकने दो
सहर होने तक...
जब सब जाग जायेंगे
हम...
उसी फासले में
मिटकर एक तो हो जायेंगे

उम्मीद कहता है
आओ...
निर्वाण को...
तलाशे
तेरे छिलते मन में
जब मेरा अंश
साकार होगा..
हम फिर से..
वैसे ही काँटों का
एक बुत बनायेंगे
मुझे अब भी
यकीन है तुम पर..
जब पिछली बार
तुमने...
अपने सीने में
छुपाकर
काँटों में पिरोया था...
फिर से..
मुझे उसी शक्ल में
ला दो...
तुम्हारी पकती हुई
कच्ची धूप में
ख्वाब की पंखुरियां
गुनगुनाने वाली है..

 मै तो वैसा ही ...रहूँगा
काँटों में भी...
रात.. अब तुम जाओ
सहर  की बेला
आसपास बिखरनेवाली है....
हमे तो
तुम्हारे हर अंश में
कितनों  के प्रारब्ध को
 जीना है..

                                             राहुल........

4 comments:

  1. पंखुरियां गुनगुना रही है..ऐसे भी बातें होती है.....कुछ...ने सुना...

    ReplyDelete
  2. गहन भाव समेटे
    बहूत सुंदर रचना
    :-)

    ReplyDelete
  3. एक-एक शब्द भावपूर्ण ...
    संवेदनाओं से भरी बहुत सुन्दर कविता....!!

    ReplyDelete
  4. आज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ. अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)

    ReplyDelete