Rahul...

20 March 2013

मेरे पी के देश जाना...

ओ रे बेदर्दी रंग
नाज मत दिखाना
कहीं और नहीं जाना
बस..पी के देश जाना
जलते मेरे मन का
आगोश लेकर आना........
जाना तो ऐसे जाना
सितारों को लेकर जाना
यूं ही न बिखर जाना
गुलाबी बांहों का
स्पर्श तुम सजाना
और ..जलते मेरे मन का
आगोश लेकर आना.........
जब पास तुम जाना
..तो चुपके से जाना
उनींदे पत्थरों का
लम्हात न सुनाना
कुछ सोंधी बर्तनों का
तन्हा जिस्म गुनगुनाना
और ..जलते मेरे मन का
आगोश लेकर आना.........
बहकी-सहकी बातों का
कोई किस्सा न फ़साना
दबी सी घुंघरुओं को
तारों सा यूं टिमटिमाना
बेतरतीब मिन्नतों सा
तुम उन पर बिखर जाना
और ..जलते मेरे मन का
आगोश लेकर आना.........
ओ रे बेदर्दी रंग
कहीं और नहीं जाना
बस.. मेरे पी के देश जाना...
 

जो बच सका ...


जरा ठहर जाओ संवाद 
तुम्हे लिखते हुए
जैसे..जीने की
जिद करते हुए
पवन कम्पन की तरह
अमृत बूंदों का
मौन स्वर सौंप
आहटों के बिना
दिन-रात को
सीने में साटते
भावों के बहते पुकार
क्यों उग आते हैं ? ..
सांझे आसमान पर
दौड़ती हुई स्पर्श ध्वनि
टकराती..खिलखिलाती
मेरे कन्धे से लगकर
किसी रूह की कामनाएं
दिव्य जादुई स्वर की
करूण पुकार सुन
शून्य आकाश तले
क्यों बहके क़दमों को
रोक लेते हैं ?
जरा ठहर जाओ संवाद
क्षण दर क्षण
गुजरते उम्र का एक पूरा दिन ..
वहशी बदरंग दुनिया से
बाहर खींच लाती है
न जाने कैसे.. हरदम ...
जीने की जिद करते हुए
भावों के बहते पुकार
क्यों उग आते हैं ?...
जरा ठहर जाओ संवाद
 

चटके चिनार
नर्म-नाजुक सी
बहकी बयारों में
दुःख बटोरती
दुबकी कविताओं के दर्द ..
कच्चे रेशम सी
फूटती फहराती
 लिपटी लहराती
नादाँ मिजाज के दर्द ..
टूटते सितारों की आहों में
परखच्चे-पसरे
ख्वाब के टुकड़ों के दर्द ...
भरे-पूरे दरिया के अधरों में
तिनके सा
हलचल छिपाते
अरमानों के दर्द ...
चटके चिनार की
दरख्तों में
मुद्दत की खुशबू ओढ़े
दम घुटती रातों के दर्द ...
पत्थर युग में
पतझड़ की तह सी
गिरती-बिछती
घर की दरों दीवार के दर्द ...
शबनमी शोकगीत
चुराते हुए
छुई-मुई जिस्मों में
वणजारे बसंत की
आहट के दर्द ...  

सच ... 
अजीब पत्ता है मन
आवेगों-संवेगों से
प्रारब्ध की शाखों पर
डोलता..उधम मचाता
सहमी हवाओं के
सूखे एहसासों को
अनगिन अँधेरे से
बाहर निकालता है
सच...कोई तो है
बिना कुछ कहे ..
जो ले जाता है
जीवन की ओर..................
हाथों की रेखाओं सी है
पत्तों की फितरत
एक-दूसरे को
काटती
पार करती है..हमेशा
मेरे भीतर ही
चकित है
मेरी फितरत
अजीबोगरीब है
पवित्र नेह की प्रतिध्वनि
अदम्य आह्लाद से सराबोर
करता है प्रवेश
 दर्द की दबी
शब्द यात्राओं को
थपकियाँ देता है ..
सच...कोई तो है
बिना कुछ कहे ..
जो ले जाता है
जीवन की ओर..................
पत्तों के इर्द-गिर्द
अल्हड़ भंवर की
सिर धुनती फितरत
फिर से चकित है..
पत्तों के पास
कोई इतिहास नहीं
पत्तों के पास
कोई सियासत नहीं ... 
 
मुझे रात तक 
भीतर कोई आईना है
हर दिन संवरता है
टूटता है.. बिखरता है ..
चेहरे बदल जाते हैं अचानक
अपने स्वभाव के साथ
 उजाले थककर
स्याह हो जाते हैं तब ..
अंधेरों की
हिफाजत के लिए
दिन का सूरज
मुझे रात तक
संभाल कर
रखना पड़ता है
हाँ .. भीतर कोई आईना है....
स्त्री जब भी रोती है
समय की आँखों से
टपकती है व्यथा
आद्रता के सागर में ...
तुम अपने होने की
जब भी कथा लिखते हो
अपने हिस्से रौशनी व
स्त्री के हिस्से में
धुएं की लकीरें
लिखते हो
दरअसल ..
भीतर जो आईना है
वह हर दिन संवरता है
टूटता है.. बिखरता है
भ्रम की
भीजती सांझ में
अपने को कब तक
अनचाहा करते रहोगे ?
अपने लिबास को
कब तक
खारिज करते रहोगे
तुम बेशक
धूप लिखते रहो
छाया बनेगी स्त्री
तुम बेशक
फूल गढ़ते रहो
खुशबू बनेगी स्त्री...

एकमेक किस्से की 
सीधे-सादे कागजों पर
एकमेक किस्से की
कोरी स्याही लिखकर
हम स्वप्न हो जाना चाहते हैं ...
तुमसे संदर्भित
तुमसे उच्चारित
तल्खियों की
हम ताबीर हो जाना चाहते हैं ...
 तेरे अधरों से
 लिपटी लताओं में
शून्य की स्मृतियों सा
हम विस्मृत हो जाना चाहते हैं ...
धरती को
अपलक चूमते हुए
पाखी की तरह
हम पहाड़ हो जाना चाहते हैं ...
नदी के ह्रदय पर
दहकती हद से अलग
दोनों तीरों में
हम बेहद हो जाना चाहते हैं ...


कितना सा बेवजह है ...
मन के दरम्यान
जिन्दा होते रश्मोरिवाज
साये से जुदा
बंद खिड़कियों में
जब ठहर जाती है..
कहानियाँ
जो लकीर खींच रखी है ....
बेकार.. बेसबब
जानता हूँ
मेरा होना..न होना
अब है भी नहीं..
जब चुभती है सहजता....
कितना सा बेवजह है ...
रातों की रुदाद
जो शाम डूब जाती है ऐसे ही..
जानता हूँ
मेरा होना..न होना
अब है भी नहीं..
जब चुभती है बारिश की शिद्दत ?
पलकों पे उतरती
धूप के होठों पर
छिपी तहरीर के साथ ..
जो शाम
डूब जाती है ऐसे ही..
जानता हूँ
मेरा होना..न होना
अब है भी नहीं..
जब टूटती है..
अकेली नज्म
ओस से तर लय
अधूरे शब्दों के बीच..
जो शाम डूब जाती है
ऐसे ही..
जानता हूँ
मेरा होना..न होना
अब है भी नही... 

जैसे.. फासले से
हारे हुए ख्वाब की
प्रतिध्वनि के बीच
तुम आते हो जब...
खसलत की बेदिली में
गल्प का अम्बार लिए
अश्कों की कतारों में
लिख जाते हो
मेरा आदिम सच ?
खुली हवा के
बंधे पांव से पूछो
 कब घूमना हुआ ?
हम दोनों के परिमोक्ष के साथ
तुम आते हो जब...
 पोर-पोर में रचे
ऐतबार के साथ
छोड़ जाते हो
अपनी असीमता ?
 फिजाओं में बहकते
शुष्क सन्नाटों के बीच
अनछुए पल वापस करने को
तुम आते हो जब..
बंद दरवाजों की
सांकल बजाते
अपने-पराये की
तर्क-समीक्षाओं से
अलग-थलग
तब सहेजकर
रखी जाती है यातनाएं
जैसे ..करीने से
रखा जाता है स्पर्श
जैसे.. फासले से
रखी जाती है आग
जैसे.. सुकून से
रखा जाता है शोर ... 

अलविदा कहना होगा..
धमाधम रौशनी
बरसती है
मेरे शहर के सीने पर
उफनाई..पगलाई
रात का जिस्म
यायावर सा झूमता-गिरता
सब कुछ समेटने की
जिद में है....
उस अहमक रात का
जिस्म किसका है ?
मुझे समझना होगा.....
कभी गलियों में
देहरी-आँगन में
मंद लौ की बाती
थरथराती लालटेन
थिरकती थी...
हम सब आह्लादित
 दुःख-सुख की
परछाइयों के साथ
जय-विजय की
संधियों में नहाते थे..
अब पहाड़ जैसी
 ठंडी.. अवसाद भरी
कहानियों को
छोड़ना होगा अपनी मुट्ठियों से..
मुझे समझना होगा
फिर से...
कुछ संबंधों को
धमाधम रोशनियों को
अलविदा कहना होगा..

कैसे शिनाख्त करोगे ?
मायावी खबर की
सलोनी सूरत पर
चिपका है
दम हारती
जिन्दगी का नक्शा......
घुप अंधेरों की दीवार में
इश्तिहार बनकर
तड़पती विपदाओं का संजाल
जहाँ...दुःख का गला
रेत रही है भूख......
पारदर्शी आंकड़ों की
काल कोठरी में डूबी है
 गुलाब की लपटें
भस्म होती
रूमानियत की महक......
बेहद-बेहद
सहज चेहरों का
क्रूर बाजार
रस-रंग मंचित
कोलाहल में
कामयाब होती देह गंध
तुम सब्जबाग के फर्क को
कैसे शिनाख्त करोगे ?

अतिरेक बहता
अवश परिंदों की
चटक घाम होती
झिलमिल चिराग की बातें
जो तुम कहती हो....
मेरे भीतर
अपना संकल्प
घोर शालीनता से
जहाँ नहीं है
अतिरेक बहता निर्जन पानी
जलते रंगों का
नमकीन स्वाद
जो तुम कहती हो....
जिस्म से उतरती
रूह तक दौड़ती-भागती
अदम्य यात्रा कथाएँ
समंदर बहता रहता है...
कांच की डोर में
दोनों के बीच भी
और समानांतर भी
यह भी होता है कि
उड़ान भरता खाली सा
दोनों का संकल्प
जो तुम कहती हो....
निर्वासित अधरों का
भींगा द्वन्द
अतिरेक बहता निर्जन पानी
यह जो हम हैं
भीतर में
जलते एहसासों के बीच
मिलता.. मन का नमकीन स्वाद
समंदर बहता रहता है...
अधूरे अक्षरों में
नहीं डूबेगा मन
मौत के हिस्से में
बराबर बंटकर भी...

ऐसा ही होता होगा 
तारे टूटते होंगे
 रंग चटकता होगा
सपने बस रह जाते होंगे
ऐसा ही होता होगा ..................
मदहोश नींदें आती होंगी
रात मुस्कुराती होगी
पतझर बरसता होगा
ऐसा ही होता होगा .................
खिड़कियाँ खुलती होंगी
ज्वार फैलता होगा
निर्भय इच्छा जागती होंगी
हवा में सन्देश घुलता
होगा ऐसा ही होता होगा....................
तसल्ली खनकती होगी
राख के फूल झरते होंगे
चाँद पलकों से उतरता होगा
भोर थक जाते होंगे
ऐसा ही होता होगा....................
बेतरतीब कोई आता होगा
सन्नाटे उग आते होंगे
धूप..हवा..पानी के बीच
माँ का चेहरा भी भींगता होगा
ऐसा ही होता होगा .............. 

जख्म दर जख्म ..
हंसी के महामिलन में
अबोध आलिंगन का उत्ताप
जख्म दर जख्म ..
मेरे पांव सजते हैं
तुम्हारी अंतरंगता में.....
विवश विलाप के
मादक उत्सव का
दावानल फैल रहा है...
सच ये भी कि ...
यज्ञ की परिधि में
अग्नि मन्त्रों का
उन्माद उच्चारित करती हुई मै...
जख्म दर जख्म ..
अपलक बहना चाहती हूँ.
सच तो है कि...
 फैलते दावानल में
प्यार के व्यर्थ परिवेश को
अन्दर संजोये
निरर्थक विनम्रताओं के साथ
मुझे भरमाना चाहते हो ???
सच ये भी कि ...
मै...जख्म दर जख्म ..
तुम्हारे उत्सव.....
 हाँ.... विवश विलाप के
मादक उत्सव में भी
जीना चाहती हूँ......
तुम जानते हो
वक़्त के मारक क्षणों का
अतृप्त इतिहास है मेरे अन्दर.......

 आलोकित शब्द
 सूखे हरे रंगों वाले
 ख्वाब की
 अभिनव धरती पर
निर्वसन की स्याही जैसी
पागलपन की बतकहियाँ..
उसी धरती के सीने में
भटकती लालसाओं के
रेत मग्न बिम्ब
नि:शब्द पीड़ा की
ऊँगली थाम
आकाश में घुलता
भीतर का बेसबब दर्प .......
अपनी दलीलों के
ठहरे हुए पन्नों पर
अंजुरी में भरकर
कोई चुपके से
ले आता है
अपनेपन का
आलोकित शब्द ....
 मानसरोवर जैसे
आत्मिक शब्द.....
मेरे सिरहाने
कोई अचानक
छोड़ जाता है
स्नेहिल स्वप्न ......


शोर रंजिश भरे

उपासना की गहरी एकांतिकता में
जीवन की ओर
वापस आती
संवेद स्वर की तासीर.......
लौटना चाहती है
देह-मन की
शिराओं को पार कर
चोटिल कदमों की धूल......
हम कब-कहाँ सोच पाते हैं तुम्हें..?
तुम्हारी मरूभूमि के साथ
 सिर्फ रास्तों के
संशय का पता छोड़ जाते हैं
हम वहां से कहाँ लौट पाते हैं ?
 संवेद स्वर की
तासीर ठंडी होगी एक दिन
मुझे पता है
उपासना की चुप्पी
प्रविष्ट हो जायेगी..
शोर रंजिश भरे
 डूबते किस्सों की
 सदियों में
हम वहां से अलग
जब सोच नहीं पाते हैं ...
मीठी नींद सी बातें...
तुम्हारी मरूभूमि के साथ.....

12 March 2013

नील लोहित ...

तुम्हें बार-बार दिखेगा
बीहड़ उम्मीदों जैसा
नील लोहित का रंग ...
अब तक तुम
इस संगीन शब्द को
दूर रखते आये हो
मुझसे बहुत दूर ...
थोड़े से बहरे सपनों की
उलझी किताबों को
पढ़ते-ऊंघते
जरूर दिखेगा
नील लोहित का रंग...
अधम जिस्म पर
बिखरी-सिमटी बेलें
चेतनशून्य मन के
पन्नों को
नोचते-खसोटते
मुझसे ही
अलग करते आये हो ..
तब भी
तुम्हें दिखेगा
नील लोहित का रंग...
मुझे ले चलो
कच्ची मिट्टी से बने
आखिरी रास्ते के पास,
शून्य पर टिमटिमाती
मेरी धरती के पास
मुझे ले चलो
गुमसुम पानी से बने
मेरे शब्दों के पास
थोड़ी सी बची हुई
जमा पूँजी के पास
मुझे ले चलो
तुम्हें दिखेगा
नील लोहित का रंग ...
                                        

10 March 2013

निमंत्रणा...



करीब १० दिन पहले मिरिक, बुन्ग्कुलुंग के रहने वाले नर बहादुर लिम्बु साहब का एक लिफाफा मेरे नाम से ऑफिस में आया..  उस सफ़ेद लिफाफे में  सुपारी, नारियल के टुकड़े व लौंग रखे हुए थे. एक बार ऊपर से नीचे देखने के बाद मै समझ गया कि लिम्बु साहब ने मुझे फिर याद किया है. इस बार उन्होंने अपनी भांजी की शादी का निमंत्रण कार्ड भेजा था . आप सबको शायद याद होगा कि नवम्बर में बुन्ग्कुलुंग पर रिपोर्ताज लिखने के दौरान उनसे हमारी जान-पहचान हुई थी. वे बुन्ग्कुलुंग बस्ती प्रजापति महासंघ के सचिव हैं और काफी विनम्र किस्म के इंसान हैं . अक्सर उनसे फ़ोन पर बात होती रहती थी . वे जब भी सिलीगुड़ी आते तो एक बार जरूर फ़ोन करते .. आपको एक बार फिर से बता दें कि बुन्ग्कुलुंग दार्जिलिंग जिले के मिरिक प्रखंड की वो बस्ती है  जहाँ सिर्फ लिम्बु जनजाति के लोग रहते हैं . लिम्बु जनजाति मूल रूप से नेपाल की जनजाति है . अब इनकी संख्या काफी कम हो गयी है .. हरे-भरे बुन्ग्कुलुंग की ख़ूबसूरती के बारे में कहने और लिखने को बहुत कुछ है .. अभी दुर्भाग्य से मेरे ब्लॉग के कई पोस्ट डिलीट हो गए . उसी में एक बुन्ग्कुलुंग पर रिपोर्ताज भी था . खैर ... लिम्बु साहब ने शादी का कार्ड भेजने के बाद कई बार हमे फ़ोन कर आने की गुजारिश की . मैंने उन्हें हर बार कहा कि आने की कोशिश करूंगा .. शादी के दिन यानी आठ मार्च को दिन के 1 1  बजे जब हम अपने सहयोगी विशाल दत्त ठाकुर के साथ बुन्ग्कुलुंग पहुंचे तो लिम्बु साहब शादी की तैयारियों में व्यस्त दिखे . उन्होंने हमारा दिल खोल कर स्वागत किया और शादी के हर पहलू से अवगत कराया . उस शादी के बारे में बहुत कुछ लिखने का मन हो रहा है, पर अभी आप सिर्फ चुनिन्दा तस्वीरों को देखिये .. अगले किसी पोस्ट में जरूर विस्तार से शादी से जुड़े हर पहलू की चर्चा करूंगा ...........................................................................................................























































06 August 2012

स्वप्निल रूहों का..


कितनी नैतिकता
मान्यताओं की
देहरी लांघ...
बेकल वक़्त को
परे हटाकर 
जब जन्म लेता है प्रेम...
सांझ के कटोरे में
स्वप्निल रूहों का
अबोलापन...
कई परिभाषाओं को
तोड़ता-मरोड़ता 
समय का  ...
हाहाकारी संकल्प
बदलते मायनों ..
की वेदना साध  
जब पग भरता है प्रेम
तब.. न कहानी
न... कोई फेहरिश्त 
बस तीखी हो जाती है 
आग... 
ठहरे हुए संवाद की 
तुम कहते हो... जो भी 
निराकार बादलों 
जैसी बातें..
तृष्णा की पनघट पर 
जब समंदर हो जाता है प्रेम  
सूरज खुद में 
डूबता हुआ
पानी के इतिहास में 
दर्ज होती किताबें 
तब.. न कहानी
न... कोई फेहरिश्त 
बस तीखी हो जाती है 
आग... 
ठहरे हुए संवाद की...........
जब जी उठता है प्रेम 
अपनी रूहों के 
अबोलेपन में................

                                              राहुल  

 


02 August 2012

ऐसे ही गुजर गया....

ये तस्वीर मेरे दोस्त और कालिम्पोंग के रिपोर्टर मुकेश शर्मा ने कुछ दिनों पहले भेजी थी... मुकेश ने ये स्नैप अपने कमरे से लिया था. नीचे लिखे शब्दों के लिए मेरे पास और कोई दूसरी तस्वीर नहीं थी..

 पिछले कई दिनों से ऑफिस जाते  वक़्त ऐसा ही होता..दुकानों पर चहल-पहल देखता और आगे बढ़ जाता... कभी कभार अपनी हाथों पर भी नजर पड़ती.. फिर सोचना बंद हो जाता..कुछ तारीखें पीछे लग जाया करती... वो दिन किसी साल  कभी २७ जुलाई होता.. कभी २८ तो कभी ८ अगस्त.... और अबकी बार तो २ अगस्त.... पहले ठीक से याद कर लेता हूँ... हाँ... आठ साल तो गुजर गए...अंतिम बार २००४ में जब तुम्हारे घर इसी दिन जैसे एक दिन को बारिश में भींगता हुआ मुजफ्फरपुर से गया था... तुम्हारे पास... अपनी दो पहिया गाड़ी चलाकर... तुम भींगने को लेकर कितनी नाराज हुई थी... कहीं रूक जाते..ऐसे में कोई इस तरह गाड़ी चलाता है क्या ? कुछ हो जाता ...आप आदत से बाज नहीं आयेंगे.. तुम बोलती चली गयी... मै सब कुछ सुन रहा था..आसपास कई लोग तुम्हारे घर के मेरे जवाब का इन्तजार कर रहे थे.. पर कुछ नहीं कहा... चलिए कपड़ा बदल लीजिये... मैंने तुम्हारी बात मान ली.... मुझे मालूम था कि तुम अभी तक कुछ खायी नहीं होगी... ऐसा तुम शुरू से करती आ रही थी...कुछ देर बाद बरामदे में आकर बैठा था...मैंने कहा... मीठा  क्या बनायी हो ? तुम कहने लगी, खाते तो हैं कुछ नहीं... हां बनायी तो हूँ... तुमने कितने  स्नेह से एक थाल में सब कुछ समेट लायी.. आरती और चन्दन के बाद तुम्हारी तरफ हाथ बढ़ाते हुए मै कई लोगों को देख रहा था.. जो वहां मौजूद थे. और तुम बीते दिनों में मुझे ढूंढ रही थी... अचानक मुझे याद आ गया...एक मिनट रूको... कहते हुए गाड़ी की डिक्की से निकलने के लिए उठ गया..सब कहने लगे... बाद में दे दीजियेगा... मैंने कहा... ऐसा कैसे ? डिक्की खोली... उसे निकालते हुए वापस लौटा....फिर हाथ तुम्हारी तरफ बढाया....और  मैंने डिक्की से निकाले गए  पैकेट तुम्हारी ओर...तुमने इसके बारे में काफी पहले मुझसे कहा था... इस बार सोचा... इसको पूरा कर दिया जाए.... फिर इस समय के लौटने की उम्मीद में आठ साल गुजर गए...
 इस बार दो अगस्त की सुबह सवा नौ बजे मुंबई से तुम्हारा जब फ़ोन आया..मै उस वक़्त नींद में था... जब तक
नींद खुलती... रिंग बंद हो चुका  था... मैंने इधर से लगाया... दो रिंग के बाद ही तुमने फट से फ़ोन उठाया... नींद में थे क्या भैया ? नहीं जग गया हूँ... क्या हाल है तुम्हारा ? कहते हुए  रूक सा गया... आप इस बार भी नहीं आ सके ना ? काम ज्यादा हो गया है ? हाँ... थोड़ा  सा... अलसाए हुए जवाब दिया.. कुछ और बातचीत के साथ तुम्हारे लिए सटीक सा कोई शब्द नहीं मिल पा रहा था..तुम कहने लगी... अभी पहले पटना बात हुई है तो उसके बाद आपको फ़ोन किया... आज माँ ने  भी छुट्टी ले रखी है... मामा आने वाले हैं...आपकी तबीयत अब कैसी है ? अब ठीक है ... कहते हुए तुम्हारी बात सुनने लगा...... पर तुमने कहाँ कभी भी मुझसे कुछ कहा ? पहले भी ऐसा ही था... कैलेंडर घूमता रहा... १४-१५ साल पहले....  अपने घर में कितनी बार तुमसे कहता.... बोलना सीखो... सुधा... तुम मेरे कमरे में किताबों को उलट-पुलट कर रख देती...कोई किताब नीचे हॉल में धूल में सना मिलता तो कोई सबसे ऊपर वाले रूम में... जब मै पूछता तो तुम सबको फिर से समेट देती... हाँ... तुम जानती थी कि मेरा गुस्सा कैसे नर्म हो सकता है ? देर रात तक पढ़ने और जागने की आदत में भी  तुम्हारी चाय का दखल कुछ ज्यादा ही था... मै भला उसके आगे कैसे नाराज रह सकता हूँ... अब भी जागता हूँ... लगातार कई सालों से...हर दिन.... पर तुम्हारी चाय कहाँ गुम हो गयी है.... सोचता हूँ ..उन तारीखों को पकड़ अपने पास बिठा लूं...
कुछ और तारीखें फिर से सामने आ गयी है..... १९९३... जब एक परीक्षा देने जोधपुर गया था.. वापस दिल्ली लौटने के बाद पालिका बाजार से तुम्हारे लिए ख़रीदे  गए सलवार शूट के साथ पटना लौटा तो जेब में नाम मात्र के पैसे बच गए थे..ये अक्सर होता... उस वक़्त जहाँ भी जाते... कुछ न  कुछ तुम्हारे लिए होता.... भले कम कीमत की सही.... आज जबकि सब कुछ रहता है.... पर वो तारीखें कहीं नजर नहीं आती....
मुझे याद है तुम्हारी एक बात मैंने नहीं मानी थी....तुम घर में सबको कह रही थी... यही ठीक रहेगा... मानेंगे कैसे नहीं ? जबकि माँ ने तुम्हे सब कुछ बता दिया था.. फिर भी तुम जिद पर थी... जब से तुम्हारा  घर-आँगन बदला तो मेरी किताबों पर काफी गर्द जमा होने लगी... मुझसे खूब बात करने वाली माँ अब कम बोलने लगी... मै जानता था... ये बड़ा ही अजीब रंजोगम है ? कई महीनों तक ऐसा ही चलता रहा.. जबकि तुम माँ से बहुत कुछ कहती...अब घर के और लोग भी तुम्हारी बात सोचने-समझने के लिए उतावले रहते...जब मैंने चुपचाप तुम्हारी बातों को सिरे से नकार दिया तो तुमने बहुत दिनों तक मुझसे बात नहीं की..... कई महीनों के बाद जब मुंबई से टेस्ट देकर वापसी में सीधे सतना स्टेशन पर उतरा और वहां से रीवा तुम्हारे पास गया.. यही दो अगस्त वाला एक दिन था... बिना बताये जब पहुंचा तो सब कुछ धुल चुका था. तुमने फिर कहा... आपको भैया मेरी बात मान लेनी चाहिए थी... जाने भी दो अब....बाद में सोचेंगे......
जब तुम  मैट्रिक में पूरे जिले में अव्वल आई थी..गाँव से लेकर पटना तक सब गदगद थे..तुम अक्सर कहा करती.... मेरा दाखिला पटना वोमेन्स कॉलेज में हो जाएगा न ? तब मै कहता... हो जाना चाहिए.... काफी दौड़ धूप के बाद दाखिला हो गया..पढ़ाई को लेकर तुम्हारी जिज्ञासा को देखते हुए सबको बड़ा सुकून मिलता... मुझे भी काफी संतोष होता...आज भी है... तुम एक अच्छी स्टूडेंट रही... चाहे वो कोई चैप्टर रहा हो... किताबों से इतर भी..
अब देखिये ना .... दो अगस्त फिर से ऐसे ही गुजर गया..... सुबह सवा नौ बजे मुंबई से आये हुए फ़ोन की घंटियाँ अब भी गूँज रही है..पूरे दिन ऑफिस में कितनें जगहों से राखी बंधी कलाई की तस्वीरें-ख़बरें आती रहीं..हँसते-मुस्कुराते चेहरें भी.... पावन  दिन की निश्चल गाथा...  हम उसी में सिर खपाते रहे....और  खुद को सँभालते रहे.........

                                  राहुल

30 July 2012

कुसुम की क्यारियों में

मेरे खाली जगह में
सब कुछ..
रच-बस गया है.....
स्मृतियाँ...
महकते सपनों सी ...
उन्मुक्त कामनाएं
हमारे होने को..
साकार करता...
खाली सा वो जगह
 नदी की तरह
दौड़ती-भागती
खारिज होती रहती है
तुम्हारे...
खतरे के निशान से ऊपर
कुसम की क्यारियों में......
खाली सा
रचा-बसा मेरा गाँव
हाथों से फुर्र होती..
तितलियाँ....
नहीं होते हैं...
 जब हम ...
नीले अम्बर में टंगी 
अपने खाली जगहों के साथ ...
मुस्कुराहटें तुम्हारी
कुसुम की क्यारियों में
मिट्टी का स्पंदन
उगाती है...
मेरे रचे बसे गाँव में
कुछ किसान..
पिछले कई सालों से
टूटे बर्तनों की
फसल बो रहे हैं.....

                                                             राहुल


28 July 2012

दिलकश मिरिक.....

मिरिक से दिखती  कंचनजंघा की चोटी
कोलकाता से तबादला होने के बाद जब मैंने सिलीगुड़ी में अपना योगदान दिया तो इसके आसपास की कई छोटी-मोटी जगहों के बारे में मुझे बताया गया.... कुछ नाम पहले भी सुना था....मसलन... कालिम्पोंग और कर्सियांग.. दार्जिलिंग के बारे में तो अतिरिक्त कुछ भी कहने की जरूरत नहीं..  पर एक और जगह मेरे जेहन  में उमड़ रहा था... मैंने उस जगह के बारे में किसी पेपर में पढ़ा था कि एक साथ खूबसूरत चाय बगान और संतरे का बागीचा देखना हो तो .....यहाँ जरूर जाएँ... यह बात मेरे मन में बैठ गयी थी...
सहमेंदु झील के पास
दीप मिलन प्रधान के साथ
थर्बू चाय बागान से लौटते वक़्त रास्ते में..
शुरूआती व्यस्तता के दिनों में मै हिल के सभी इलाकों से आने वाली ख़बरों पर नजर रखता.. धीरे-धीरे सभी जगहों के बारे में जब मोटा-मोटी अनुमान हो गया तो  हर इलाके की अपनी खूबी और विशेषता को लेकर ख़बरों की पैकेजिंग शुरू की.. बतौर कोऑर्डिनेटर मै इस बात को अच्छी तरह समझ रहा था कि हिल का ये इलाका काफी संवेदनशील है और सतर्क होकर ख़बरों पर प्रयोग करने की जरूरत है.. पिछले करीब एक साल से हिल में राजनीतिक उठापटक का दौर चल रहा था. गोरखालैंड की मांग को लेकर रोज कुछ न कुछ बयानबाजी होती और फिर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू होता.
एक समय था जब हिल में यानी दार्जिलिंग में  सुभाष घिसिंग का हुक्म ही अघोषित कानून बन जाया करता था. १९८० के बाद पृथक गोरखालैंड राज्य की मांग के जोर पकड़ते ही खून-खराबे का दौर शुरू हुआ. काफी संघर्ष के बाद केंद्र सरकार की पहल पर बीच का रास्ता निकालते हुए १९८८ में दागोपाप (दार्जिलिंग गोरखा पार्वत्य परिषद् ) का गठन हुआ.. दरअसल बंगाल की वाम मोर्चा सरकार के पास कोई रास्ता नहीं था. अगर इस स्वायत्त संस्था का गठन नहीं होता तो हालात बेकाबू हो जाते... दागोपाप की कमान सुभाष घिसिंग के हाथों में थी... लम्बे समय तक शासन करने के बाद सुधार और विकास हो... न... हो, मगर उस पर बैठा व्यक्ति निरंकुश और अराजक हो जाता है.. यही बात हिल में हुई... धीरे-धीरे विद्रोह की चिंगारी सुलगने लगी. व्यवस्था परिवर्तन की आवाज बुलंद होने लगी.. सुभाष घिसिंग के हाथों से सत्ता यानी दागोपाप फिसलने लगा. २००८ में उन्ही की पार्टी के भरोसेमंद विमल गुरुंग ने नयी पार्टी गोरखा जन मुक्ति मोर्चा का गठन किया.. दागोपाप के तेवर सुस्त हो गए.. मोर्चा सुप्रीमो विमल गुरुंग अपने संगठन को लेकर लड़ाई के मैदान में कूद पड़े.. हालांकि उनका भी मकसद गोरखालैंड का गठन ही था, पर मूल राजनीति की धारा का हिस्सा बने रहने के लिए पिछले साल यानी २०११ में  विधान सभा का चुनाव भी लड़ा.. मोर्चा को चार सीटों पर जीत हासिल हुई.. जिसमे से एक  सीट डुआर्स से निर्दलीय उमीदवार विल्सन चम्प्रमारी ने जीता. विल्सन मोर्चा समर्थक उमीदवार थे.. अभी फिर हिल में यानी दार्जिलिंग में हालात वैसे हीं है.... खैर... ये तो हुई राजनीति की बातें... अब आतें हैं मूल मुद्दे पर......
जिस जगह की मै चर्चा करने जा रहा हूँ.. पहले उसके बारे में बता दूं कि दुनिया के सबसे खूबसूरत चाय बागानों  में से कुछ यही पर है.. इसके साथ संतरे का खूब  बड़ा बागीचा,  एक शांत और सुन्दर झील... अंग्रेजों के बनाये स्विस कॉटेज और गुम्पा ( बौद्ध धर्म के अनुयायियों और लामा के रहने का निवास स्थान).... चारों तरफ पेड़ों से लिपटे पहाड़ और उस पर बसे छोटे-छोटे गाँव... इसकी  सीमा से सटा नेपाल... मतलब नेपाल जाने के लिए चंद क़दमों का फासला...तो जानिये..... इस दिव्य और बेहद ही दिलकश जगह का नाम है ... मिरिक...... मतलब मनमोहक मिरिक... मदहोश मिरिक...
दार्जिलिंग जिले में तीन महकमा यानी अनुमंडल है.. कालिम्पोंग, कर्सियांग और सिलीगुड़ी.. मिरिक कर्सियांग अनुमंडल का एक प्रखंड है.. सिलीगुड़ी से दार्जिलिंग जाने के तीन रास्ते हैं.. पहला रास्ता रोहिणी होकर जाता है.. जो इन दिनों बंद है.  दूसरा पंखाबारी और मकईबारी होकर जाता है, जबकि तीसरा रास्ता मिरिक होते हुए जाता है..इस रास्ते में थोड़ी दूरी ज्यादा है, फिर भी लोग ज्यादातर पर्यटक  मिरिक होकर दार्जीलिंग जाना पसंद करते हैं...
 २८ मार्च को एक रिपोर्ताज लिखने के सिलसिले में जब मैंने मिरिक के अपने  रिपोर्टर दीप मिलन प्रधान से ये पूछा कि किस दिन मिरिक आना ठीक होगा तो दीप ने अपना समय निकालते हुए १ अप्रैल को आने का न्योता दिया...दीप से रोज हमारी फ़ोन पर बात होती.. वो हर दिन अपनी खबर फैक्स करते और मेल पर तस्वीर भेजते...हमारी कभी आमने-सामने की मुलाक़ात अभी तक नहीं हो पाई थी...फेसबुक और जीमेल  पर वो हमारे साथ जुड़े हुए थे... मैंने उनकी तस्वीर उसी पर देखी थी... 
१ अप्रैल को सिलीगुड़ी से एक सुमो में मिरिक के लिए चला...उस वक़्त सुबह के आठ बज रहे थे.. दीप ने मुझे बता दिया था कि आप साढ़े नौ बजे तक मिरिक पहुँचिए.. मै भी तब तक पहुँच जाऊँगा.. दरअसल दीप मिरिक से १५ किलोमीटर पहले फुबगुड़ी गाँव में रहते हैं ... सिलीगुड़ी से मिरिक की दूरी मात्र ४० किलोमीटर है.. मगर पहाड़ पर सीधी चढ़ाई होने के कारण जाने में समय ज्यादा लगता है.. करीब आधा घंटा की यात्रा के बाद तस्वीर बदलती गयी... जैसे-जैसे ऊपर की ओर बढ़ते गए.. हवा का दबाव भी बढ़ता  गया... हर तरफ हरीतिमा.... इसी बीच मैंने दीप को फ़ोन किया... मैंने बताया कि इस जगह पर पहुँच गया हूँ... तो दीप ने कहा कि आप मिरिक पहुँच कर झील के पास ही रहिएगा.. मै जल्दी ही आ जाऊँगा... करीब बातचीत  के एक घंटे के बाद मै मिरिक पहुंचा.. गाड़ी से उतरते ही मानो सारी थकान जाती रही.. हर तरफ सुरम्य शान्ति और सुकून.. झील के पास ही मै दीप का इन्तजार करने लगा... मौसम में ठण्ड का असर था... जबकि हल्की सी धूप भी  खिली हुई थी... कुछ देर तक चारों  तरफ का मुआयना करने के बाद  झील के ठीक सामने मैदान में एक बेंच पर जाकर बैठ गया और दीप को फ़ोन लगाने लगा, मगर नेटवर्क की गड़बड़ी के कारण बात नहीं हो सकी.. उस वक़्त कोई भीड़ भाड़ नहीं थी... मैदान के ठीक पीछे छोटी-मोटी दुकानें थी... जबकि मैदान के सामने झील से सटे देवदार के पेड़ अपनी अहमियत के साथ करीने से खड़े थे..  मै उस नज़ारे को देखकर अवाक था.. जहाँ तक मै देख पा रहा था... सब कुछ नायाब सा. झील के बारे में तो मै पहले से जानता था.. करीब आधा घंटा तक उस मीठी धूप में बैठा रहा और सब कुछ भुलाता रहा.. इसी बीच दीप का फोन आया...उसने पूछा कि आप कहाँ हैं ? मैंने बताया कि झील के सामने मैदान में बेंच पर बैठा हूँ..उसने कहा कि मै मिरिक आ गया हूँ..आप वहीँ रहिये.. मै आ रहा हूँ.... दीप को दूर से देखकर ही मै पहचान गया...उसने हाथ हिलाकर इशारा किया.. मैंने भी जवाब दिया... खैर... दीप मेरे सामने खड़े थे... कुछ देर तक बातचीत करने के बाद मैंने कहा कि.. दीप पहले चाय पिया जाए.. फिर हम दोनों वहीँ पर एक चाय की दुकान में गए...चाय का आर्डर देने के बाद फिर बातचीत शुरू हुई.. मैंने पूछा कि मिरिक इतना प्रसिद्ध क्यों नहीं है जितना दार्जिलिंग और कालिम्पोंग... ? दीप ने कहा कि मिरिक के प्रखंड होने के कारण यह उतना जगजाहिर नहीं है..अब लोग जानने लगे हैं.. कुछ और बातचीत के बाद चाय आ गयी... चाय पीते ही मुझे ये एहसास हो गया कि यहाँ जो कुछ भी है.. सब उम्दा है.. दीप ने पूछा भी... चाय कैसी है ? मैंने कहा कि... पहली बार इस तरह की चाय पीने को मिली है.. वो भी मात्र पांच रुपये में.... उसके बाद दीप ने कहा कि आपके पास कितना समय है ? मैंने कहाँ कि हर हाल में मुझे शाम तक लौट जाना होगा.. तो उसने कहा कि... काफी समय है..आइये चलते हैं...कुछ ख़ास जगह तो आप देख ही लेंगे... मैंने कहा कि अच्छा ठीक है...
दीप और मै वहां से निकले और झील के पास बनी पुलिया को पार करते हुए दूसरी तरफ आ गए...दीप ने बताया कि इस पुलिया को सुभाष घिसिंग ने बनवाया था.  इसी बीच दीप ने कहा कि आप अपना मोबाइल कैमरा अपने पास रखिये... मेरे पास तो है ही... उसने अपना कैमरा निकाला और गले में लटका लिया... जिस झील के बारे में चर्चा चल रही है, उसका नाम सहमेंदु झील है... वहां से हमलोग मिरिक के प्रसिद्ध देवी मंदिर में गए... जहाँ उस वक़्त कुछ  पूजा-पाठ और भंडारे का आयोजन चल  रहा था. दीप ने कहा कि आप अन्दर जाइए.. मै यहीं बाहर में हूँ...मैंने भी कहा कि ठीक है मै यहीं  से दर्शन कर लेता हूँ..फिर वहां से लौटकर हमलोग पुलिया के पास आये... दीप तब तक मेरी कई तस्वीर ले चुके  थे..तस्वीर लेते वक़्त अक्सर वो मुझसे थोड़ा मुस्कुराने कहते ..हम दोनों बातचीत करते हुए आगे बढ़ रहे थे.. वो मुझे एक ऊँची जगह पर ले गया.. हालांकि चढ़ने में थोड़ी दिक्कत हुई, पर वहां से मिरिक का अलौकिक नजारा दिख रहा था... उस जगह पर भी दीप ने मेरी तस्वीर उतारने में कोई कंजूसी नहीं की...मैंने दीप से कहा कि आपने कुछ दिनों पहले यहाँ से कंचनजंघा पहाड़ (सबसे ऊपर कि फोटो ) की शानदार तस्वीर भेजी थी... वो कहाँ से दिखाई देगी ? तो उन्होंने कहा कि वो फोटो तो यही से ली थी... शायद हल्का सा दिख जाए, अभी तो थोड़ा सा मुश्किल दिख रहा है... दीप ने बताया कि  जब बारिश होने के बाद आसमान साफ हो जाता है तो तब कंचनजंघा पहाड़ की चोटी भव्य तरीके से दिखाई देती है... फिर उसने अपने कैमरे को जूम करके उसे दिखाने  की कोशिश की.. उस वक़्त काफी हल्का सा वो दिखा... वो मिरिक के बारे में बताते  रहे .. मै उनकी बातें गौर से सुन रहा था. उन्होंने  वहीँ से गुम्पा और स्विस कॉटेज दिखाए... तब तक धूप थोड़ी और निखर गयी थी.. वहां से चारों तरफ जो मुझे दिख रहा था, ऐसा लगा जैसे पहाड़ का सारा सौंदर्य वहीँ आकर थम सा गया हो...मौसम भी काफी दिलकश हो गया था...दीप कुछ न कुछ बताते रहते ... पर  कोई-कोई बात मुझे फिर से पूछनी पड़ती...  दरअसल दीप कुछ ज्यादा ही तेजी में बोलते  थे. बातचीत के टोन में नेपाली शब्दावली का पुट आ जाता.. दीप इस बात  को समझ रहे थे... वो फिर से मुझे समझाते.. हमलोग वहां से नीचे आ गये...मैंने दीप से कहा कि अब कहाँ चला जाए... ? तो उसने कहा कि अब आपको चाय बागान ले चलते हैं...इसके लिए यहाँ से ७-८ किलोमीटर दूर सौरेनी बाजार होकर थोड़ा नीचे जाना होगा... मैंने पूछा कि थर्बू चाय बागान यहीं हैं न ? national geographic के एक  documentry में मैंने इसके बारे में सुना और देखा था... दीप ने झट से कहा... हाँ .. तो वहीँ चला जाए..? मैंने कहा... बेशक.... वहीँ चलिए.... मेरे इतना कहते ही दीप ने एक सेंट्रो गाड़ी ठीक की.. ड्राईवर को बताया गया कि  कहाँ चलना है ? हम दोनों गाड़ी में बैठे..... वहां से निकल कर एक  किलोमीटर नीचे सौरेनी  बाजार पहुंचे... एक ऐसा बाजार.. जो आमतौर पर छोटे-मोटे कस्बों और बस्तियों में होता है... ठीक वैसा ही था.. रास्ता ज्यादा चौड़ा नहीं था... लोगों की मामूली  भीड़ दिख रही थी... कुछ पुराने ढंग का मकान और आम रोजमर्रा की जरूरत की दुकानें...मै काफी उत्सुकता से सब चीजों को देख रहा था व दीप से बात भी कर रहा था... मैंने कहा कि अभी तो चाय बागानों में कुछ ख़ास नहीं दिखेगा ? मतलब काम करते लोग दिख जायेंगे क्या ? तो उसने कहा कि.. अभी फर्स्ट फ्लश पत्तियों के टूटने का सीजन शुरू हुआ है...कम लोग दिखेंगे ....मैंने पूछा कि.. फर्स्ट फ्लश पत्तियों का मतलब... तब दीप ने कहा कि चाय की पहली फसल... अभी जब आप बागान में चलेंगे तो इसकी मदहोश करने वाली खुशबू में डूब जायेंगे.... अगर बारिश हो गयी तो फिर सोने पे सुहागा.... मै ये सब सुनकर रोमांचित हो रहा था. धीरे-धीरे हमलोग कई घुमावदार रास्तों से होकर आगे बढ़ रहे थे.. सड़क के दोनों तरफ अब जो भी कुछ दिख रहा था... यकीनन शानदार..... मैंने कहा कि अभी और कितनी दूर है ? तो दीप ने कहा कि तीन-चार किलोमीटर और जाना है... इस बीच वो मुझे आसपास के इलाकों के बारे में बताते रहे...जब हमलोग थर्बू चाय बागान के पास पहुंचे तो दीप ने ड्राईवर को गाड़ी सड़क किनारे एक छोटी सी जगह पर खड़ी करने को कहा.. जहाँ से एक दूसरा रास्ता भी था... हम दोनों बाहर निकले...दीप ने मुझसे पूछा... अब बताइए.....ये जगह कैसी लगी ? मै कुछ कहने की स्थिति में नहीं था... चारों तरफ हरा-भरा मंजर... जैसे किसी ने कैनवास पर हरा रंग बिखेर दिया हो... एक ऐसी पेंटिंग जो हाथों से नहीं, बल्कि ह्रदय से बनायीं गयी हो... कहीं कोई शोर नहीं... सच... ये बिलकुल जन्नत को सामने देखने जैसा ख्वाब लग रहा था... धीरे-धीरे हम दोनों बागान के अन्दर गए...धूप  अपनी अदा से जमीन पर उतर रही थी और हल्की ठंडी हवा मन मिजाज को बेसुध किये जा रही थी.... ये वाकई रोमांचक पल था... मैंने दीप से कहा... यहाँ तो अभी कोई दिख नहीं रहा है ? दीप ने कहा... शायद पहले राउंड की पत्तियों की तुड़ाई हो गयी होगी... खैर... दीप चाय बागान से जुड़े कई दिलचस्प बातों को बताते रहे और मै सुनता रहा... दीप ने बताया कि यहाँ के चाय श्रमिकों को मेहनताने के रूप में काफी कम पैसे मिलते हैं... पर काम कठिन है..उस हिसाब से उन्हें आधे पैसे दिए जाते हैं... मैंने कहा कि अभी तो हिल में चाय बागान प्लान्टेशन लेबर यूनियन काफी मुखर होकर काम कर रहा है.. तब ऐसी दिक्कत क्यों ? आपने तो एक-दो रिपोर्ट भेजी थी मेरे पास .....दीप ने बताया कि ये सब कहने भर को है सर जी .... बागान मालिक से लेकर फैक्ट्री में मैनेजर तक हर स्तर पर ये शोषण का शिकार होते हैं.. इसी बीच दीप ने हाथों से इशारा कर बताया कि चाय बागान कहाँ तक फैला हुआ है ..उसने यह भी बताया कि यहाँ से चार-पांच किलोमीटर के बाद का इलाका जो दिख रहा है.. वो सब नेपाल में है..
 करीब आधा घंटा तक वहां रहने के बाद हमलोग अपनी गाड़ी के पास आये...इस दौरान एक-दो लोगों से हमने बात भी की... जो आसपास के रहने वाले थे... दीप उनसे कुछ पूछते और तब मुझे बताते... फिर हम वहां से चल दिए.. दीप ने कहा कि इन सीमाई  इलाकों में मानव तस्करी खासकर लड़कियों और महिलाओं की तस्करी काफी होती है...यहाँ गरीबी बहुत है और रोजगार के साधन कम... जबकि एसएसबी की चौकसी हमेशा रहती है...
अब हमलोग वापस लौट रहे थे...मैंने दीप से कहा कि थर्बू के अलावा और कौन से चाय बागान है जो काफी प्रसिद्ध है.. तो उन्होंने बताया कि फुगुड़ी, ओकेटी, सौरेनी और गोपाल धारा चाय बागान... जबकि और कई छोटे-मोटे बागान है... जब हम वापस फिर सौरेनी बाजार पहुंचे तो दीप ने चाय पीने की बात कही... हमलोग गाड़ी साइड कर एक साधारण चाय दुकान में गए और चाय की चुस्कियों के साथ अपनी थकान मिटाई... वहां से जब हम मिरिक पहुंचे तो दीप ने कहा कि अब स्विस कॉटेज और गुम्पा देखने चलते हैं... मैंने कहा.. ठीक है... हमने गाड़ी झील के पास बने पार्किंग में खड़ी की....इसके लिए हमदोनों पैदल ही देवी मंदिर के पीछे वाले रास्ते से ऊपर की ओर गए... वहां जाने में करीब २० मिनट का समय लगा.. स्विस कॉटेज को  अंग्रेजों ने बनाया था.
काफी सुन्दर और भव्य... वहां ज्यादा देर नहीं ठहर सके और जल्दी ही वापस आ गए.. जबकि गुम्पा को दूर से ही देख सका.. 
कुल मिलाकर मिरिक मुझे मसूरी के ऊपर बसा धनौल्टी जैसा दिखा.. थोड़ा सा फर्क ये लगा कि यहाँ सीढ़ीनुमा पहाड़ की ढलान पर चाय बागान का कब्ज़ा है, जबकि धनौल्टी में छोटे-छोटे झरने और पानी के सोते.. बाकी सब कुछ एक जैसा.... खैर.... समय अपनी  रफ़्तार में था... जब वहां से फिर नीचे उतर कर झील के सामने वाले मैदान में आये तो चहल-पहल बढ़ गयी थी... झील में बोटिंग करने वाले सैलानी दिख रहे थे....खासकर बच्चे.. बातचीत के दौरान मैंने दीप से पूछा कि आपने बुन्कुलुंग गाँव के बारे में लिखा था. जिसमें ये बताया था कि यहाँ संतरे का बागीचा है और बंगाल सरकार ने इस गाँव में विलेज टूरिज्म को बढ़ावा देने के लिए एक सुन्दर सा गेस्ट हाउस भी बनाया है... दीप ने बताया कि बुन्ग्कुलुंग मिरिक का लोअर इलाका है... यहाँ से उसकी दूरी २० किलोमीटर है... पूरे वेस्ट बंगाल में सबसे ज्यादा संतरे की पैदावार यहीं होती है.. .इसके अलावा इसी गाँव के बगल से बालासन नदी गुजरती है.. जो आगे चलकर दार्जिलिंग की तरफ जाती है... ये वही बालासन नदी है जो पूरे दार्जिलिंग को पेयजल मुहैया कराती है...मैंने दीप से कहा कि अब अगली बार तो बुन्ग्कुलुंग ही चलेंगे... दो दिनों के लिए...... मैंने दीप से कहा कि अब मुझे लौटना होगा... तो उन्होंने  फिर चाय पीने की गुजारिश की... और कहा कि कई जगहों को तो मै नहीं दिखा सका... अब अगली बार जब आप आयेंगे तो बची जगहों को दिखाने के साथ अपने गाँव फुबगुड़ी भी ले चलेंगे ....मैंने कहा कि जरूर दीप... आपके गाँव भी चलेंगे और आपकी प्यारी बिटिया से भी मिलेंगे... इतना कहते ही दीप खिलखिला कर हँस पड़े... हल्की-फुल्की कुछ और बातचीत के बाद दीप मुझे मेरी गाड़ी तक छोड़ने आये...
 गाड़ी में बैठने से पहले हमने हाथ भी मिलाये और गले भी मिले... जब गाड़ी हमारी खुल गयी तो फिर उन्होंने  यहाँ आने को याद दिलाया... उस तमाम दिन की घटनाओं-यादों के साथ मै वापस सिलीगुड़ी के लिए निकल चुका था. धूप अब मद्धिम होने लगी थी.......हल्की-हल्की ठण्ड का एहसास होने लगा था... मैंने गाड़ी का शीशा ऊपर चढ़ा दिया.......                     
                                                             राहुल


थर्बू चाय बागान ........









20 July 2012

जैसे डूबती हूँ मै...

तुम्हारे अन्दर
एक विवशता
का बंजर था........
रोने-गाने की
दहलीज से
दूर जा बैठे थे..............
मै अब भी..
सोच रही हूँ तुम्हे
कितना एकाकार है ?
समय की
क्रूर  समीक्षा में
असमाप्त विषयों का
मिथ्या जयघोष........
पानी की स्याही से
बंजर धरती पर
तुम हर पल
उगाते हो..
अपना भ्रम
ऐसा क्यों नहीं होता ?
जैसे डूबती हूँ मै
तुम भी....
कभी डूब जाओ
समय की
क्रूर समीक्षा में.....
मै अब भी..
सोच रही हूँ तुम्हे
कितना सहज है ?
अपनी-अपनी पृथ्वी
को तय कर लेना
और बेदम रास्तों को
अंगीकार
ऐसा क्यों नहीं होता ?
जैसे उगती हूँ मै
विवशता की
बंजर धरती में
तुम भी....
कभी पनप जाओ
मेरे बवंडर में...
मै अब भी..
सोच रही हूँ तुम्हें.......

                                                      राहुल

16 July 2012

मीठी महक जैसी...


सुख की पीड़ा में
खुशबू के तजुर्बे 
मन के उजास की
परछाईं से
लबालब भरी
तुम्हारी बेतरतीब नींदें ...
तुम्हारे 
निर्मोही सपने...
 कुछ अधूरी
प्रेम कविताओं
जैसी तुम
सीने की ताप से
बनी आंच में...
जब यदा-कदा 
दिख जाती हो ....
ठीक...
कच्चे घड़े की
मीठी महक जैसी...
बेतरतीब तुम
खिलखिलाती हुई
कुछ पल लेकर
मेरे हिस्से का
अपने घरौंदे में
 डूब जाती हो...
ये जानकर भी...
अनंत नींदों में
डूबी...
कुछ अधूरी
प्रेम कविताएँ
दुःख की हथेली पर
महाकाव्य बन जाया करती है....
आत्मा की यायावरी
करते-करते
जब कभी
 सरहदों के पार
उतरते हैं...
कच्चे घड़े की
मीठी महक जैसी...
बेतरतीब.... तुम
आह्लादिनी पुंज 
राधा जैसी...
तुम........ 
दुःख की हथेली पर 
बने महाकाव्य में 
सवाल छोड़ जाती हो....
कृष्ण....
.चले जाओगे...?


                                              राहुल

15 July 2012

मंगपो और कविगुरु......

 कुछ जगहों को देखना कहानियों को तल्लीनता से पढ़ने जैसा है.. ये वैसे ही होता है ... जब आप कुछ  मन में रखते हों... और दूर-दूर तक उसके पूरे होने की गुंजाइश न बनती हो.... खूबसूरत किस्से.. अतीत में खुलता वर्तमान का जर्जर पन्ना... जब आप पढ़ रहे होते हैं तो हर्ष-विषाद की बहुरंगी मगर दारूण व्यथा सुनाई देती है.....दास्ताँ बिखेरता.....
             पिछले 9 मई को मै एक ऐसी जगह पर गया... जहाँ के बारे में बहुत कम कहानियाँ है.. न के बराबर चर्चे हैं...यह एक ऐसी जगह है...जहाँ लोग घूमने के इरादे से नहीं आते.. यह कोई सैरगाह नहीं....वहां जाने से ठीक एक दिन पहले यानी ८ मई को जब देर रात ऑफिस में मुझे इसकी जानकारी दी गयी और कहा गया कि. इस ख़ास कार्यक्रम को कवर करने की महती जिम्मेवारी आपके सर पर है....मुझे यह भी बताया गया कि आपके साथ दिग्गज फोटो जर्नलिस्ट पुलक कर्मकार रहेंगे..ये भी कहा गया कि सबेरे ही निकल जाना है.. गाड़ी का इंतजाम हो गया है... मैंने हामी में सर हिलाया और ऑफिस से रुखसत हुआ...घर जब लौटे तो काफी रात हो चुकी थी..   मैंने अपने सहकर्मी योगेन्द्र रॉय जी को भी अपने साथ चलने को कहा... तो थोड़ी सी हिचक के बाद वे राजी हो गए...शेष रात का सफ़र कच्ची  नींद में डूबा.....उस वक़्त रात के 2.40 होने को थे. और बाकी रात ढलते-ढलते नींद ख़त्म हो चुकी थी ...भोर ने दस्तक दे दी थी.....
           मंगपो....मतलब दार्जिलिंग  का एक छोटा सा गाँव ...जहाँ हमे जाना था. सिलीगुड़ी से गंगटोक जाने के रास्ते में करीब ४० किलोमीटर के बाद मंगपो आता है...सिलीगुड़ी से करीब ३० किलोमीटर के बाद दाहिने तरफ का एक रास्ता तराई- डूअर्स को जाता है.. जबकि मुख्य सड़क पर  कुछ आगे जाने पर रानी पुल पार करने के बाद का  रास्ता कालिम्पोंग की तरफ... वहाँ से थोड़ी दूर बढ़ने के  साथ  बायीं तरफ का रास्ता मंगपो चला जाता है... और फिर दार्जिलिंग ... मंगपो और दार्जीलिंग के बीच की दूरी ३५ किलोमीटर है.....
आप सोच रहे होंगे कि आखिर मंगपो में ऐसा क्या होने जा रहा है.... दरअसल मंगपो में जो कार्यक्रम था और जिसके लिए इतनी मगजमारी चल रही थी.. उसको कवर करने कोलकाता से भी तमाम मीडिया ग्रुप के प्रतिनिधि सिलीगुड़ी आ चुके थे. मै अपनी टीम के साथ जिस गाड़ी में था, उसमे कई और लोग भी थे. हमें यह भी बताया गया था कि इस कार्यक्रम का उद्घाटन उत्तर बंग उन्नयन मंत्री गौतम देव करेंगे....हिल में यानी दार्जीलिंग में तृणमूल और गोरखा जन मुक्ति मोर्चा के बीच सियासी अदावत में पहले तो ये खबर आई कि गोरखा जन मुक्ति मोर्चा इस समारोह का बहिष्कार करने जा रहा है...लेकिन बाद में  कर्सियांग के विधायक डॉ. रोहित शर्मा ने एक बयान जारी कर स्पष्ट कर दिया कि गोरखा जन मुक्ति मोर्चा अब इस समारोह में शामिल होगी...वैसे भी राजनीतिक हलकों में इसे काफी अहम् माना जा रहा था. और जब बात गौतम देव के खुद वहां मौजूद रहने की हो तो मामले की गंभीरता समझ में आती है..  गौतम देव.... यानी वेस्ट बंगाल की अग्निकन्या व माँ-माटी-मानुष की सरकार की  मुखिया  ममता बनर्जी के ख़ास और भरोसेमंद सिपहसालारों में से एक...शांत.. संयत से दिखने वाले गौतम देव की पूरे उत्तर बंगाल में तूती बोलती है....
         सिलीगुड़ी से करीब ८ बजे के आसपास हमारा कारवां चला...धीरे-धीरे शहर पीछे छूटता गया और हम सब पहाड़ पर आगे बढ़ने लगे. सेवक रोड का अंतिम पड़ाव पार करने के बाद तीस्ता नदी दिखने लगी.. तीस्ता के बारे में मैंने काफी सुना था. खासकर भूपेन हजारिका के गीतों में तीस्ता का जिक्र मिल जाता है...एक मैगजीन के कवर स्टोरी में मैंने भूपेन हजारिका  के बारे में पढ़ा था... उन्होंने कहा था कि तीस्ता हमेशा मेरे सीने में मचलती रहती है... भूपेन दीवानगी की हद तक इस कातिल नदी की ख़ूबसूरती पर फ़िदा थे.... तीस्ता की भाव-भंगिमा को देखकर मै थोड़ा चकित था..  जबकि मौसम के हिसाब से अभी उसमे पानी ज्यादा नहीं था.  फिर भी तीस्ता के तेवर में कोई कमी नहीं दिख रही थी.. हमारे फोटो जर्नलिस्ट पुलक कर्मकार इसके बारे में मुझे बताने लगे... उन्होंने कहा कि अभी तो कुछ भी नहीं है.. अगर आप बारिश के वक़्त आयेंगे तो यही नदी इतनी खौफनाक हो जाती है कि इसे देखकर मजबूत कलेजे वाले लोगों का भी  मिजाज कांपने लगता है.. हम सब काफी तन्मयता से सब देख--सुन रहे थे. मगर पुलक दा अपने को रोक नहीं सके...और तीस्ता की उछाल मारती लहरों को देखकर अपने शानदार फीचर से लैस निकोन-d-60 को निकाला और शुरू हो गए... उनकी इस अदायगी को मै अपलक देख रहा था . धीरे-धीरे हम लोग पहाड़ की ऊँचाइयों पर पहुँच रहे थे.. और तीस्ता आँखों से ओझल हो रही थी....चारों तरफ सिर्फ पेड़ ही पेड़.... और कहीं कहीं दिखती छोटी मोटी बस्तियां......सिर्फ ४० किलोमीटर के फासले में मौसम पूरी तरह बदला हुआ था... ठण्ड का एहसास बदन को डूबोये जा रहा था. फिर भी मौसम काफी खुशनुमा था..... जब हमलोग मंगपो पहुंचे तो मीडिया की चहलकदमी दिखी. जानकारी मिली कि दार्जीलिंग और गंगटोक से भी हमारे भाई-बंधु लोग आये हुए हैं..धीरे- धीरे काफी लोग जुटने लगे. अभी तक गौतन देव का आगमन नहीं हुआ था.. हम अपनी टीम के साथ इधर-उधर टहलने लगे.. कार्यक्रम के बारे में कुछ जानकारी हासिल की .

              दरअसल... हम सब लोग कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर की १५२ वीं जन्म शताब्दी समारोह के मौके पर मंगपो में जुटे थे... इसी जगह पर कविगुरु ने अपनी जिन्दगी के कई अहम् साल बिताए थे.जिस मकान में रहकर उन्होंने एक से बढ़कर एक कालजयी रचनाओं को लिखा...रवींद्र संगीत... नृत्य नाटिका.... काव्य संकलन..... उपन्यास और भी बहुत कुछ.... वो मकान अब भी कविगुरु को अपने आगोश में समेटे काल के मुहाने पर चुनौती बनकर खड़ा था. मै और पुलक दा जब उस घर के अन्दर दाखिल हुए तो पहले से एक दो लोग वहां चहलकदमी कर रहे थे. हर कमरें में उनकी कृति बिखरी हुई थी. जर्रे- जर्रे में अब भी कविगुरु समाहित थे. दीवारों पर टंगी उनकी मूल पेंटिंग जो फ्रेम में जड़ी हुई थी. उनकी कवितायें... परिजनों के साथ मंगपो की तस्वीरें सब कुछ अतीत में ले जाने पर आमादा थी.. और हम गए भी... एक बार फिर पुलक दा का निकोन चमकने लगा. सभी कमरों में घूमने के बाद बाहर निकले....मै समझ नहीं पा रहा था कि आखिर कविगुरु की यह समृद्ध  विरासत दुनिया से कटी हुई क्यों है ?  खैर... थोड़ी देर बाद गौतम देव आये.... मीडिया के हुजूम ने उन्हें घेरा.....और सवाल दर सवाल....गिरने लगे...समारोह के उद्घाटन के पहले ही मंत्रीजी सरकारी औपचारिकता पूरी कर लेना चाहते थे. और उन्होंने किया भी.... इसमें अच्छा-खासा वक़्त लगा.... यहाँ से निपटने के बाद उन्होंने  रवीन्द्र स्मृति भवन में जन्म शताब्दी समारोह का विधिवत उद्घाटन किया.... उद्घाटन के वक़्त शान्ति निकेतन से आये कलाकारों ने समवेत स्वर में कविगुरु को समर्पित भावपूर्ण प्रार्थना से नमन किया... मै इन सब चीजों को जज्ब कर रहा था..
              अपने संबोधन में गौतम देव ने कहा कि यह एक पुण्य भूमि है...इसकी विरासत को बचाने की जरूरत है..कुछ और शब्द कहने के बाद उन्होंने भरे मंच से यह कहा कि अब यह मकान सरकार की संपत्ति होगी..और रवीन्द्र स्मृति भवन में अंतर्राष्ट्रीय रिसर्च सेंटर खोला जाएगा.... ताकि उनकी कृतियों पर रिसर्च करने वालों को किसी तरह की दिक्कत न हो....इसके साथ ही उन्होंने एक भारी-भरकम आर्थिक पैकेज की भी घोषणा की.... घोषणा होते ही कोलकाता, शांति निकेतन और आसपास से आये कलाकारों ने उल्लासपूर्वक इसका स्वागत किया....फिर एक-दो लोगों के संबोधन के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम का आगाज हुआ.... भाषाई दिक्कत के बाद भी जितना मै सुन पा रहा था, उससे ज्यादा ह्रदय महसूस कर रहा था... खासकर रवीन्द्र संगीत को लेकर मै काफी उत्सुक था...शान्ति निकेतन और कोलकाता से आये कुछ नामचीन गायक-कलाकारों ने पूरे समारोह की रंगत बदल कर रख दी थी..यकीनन मै उसी में खो गया था.   इसी बीच पुलक दा ने हमसे यह पूछा कि कैसे स्नैप चाहिए आपको ? आप बता दें तो ज्यादा अच्छा होगा... मैंने उन्हें संक्षेप में अपनी बातें कही....धीरे-धीरे सांस्कृतिक कार्यक्रम परवान पर था...वहां पर हमारी टीम के कई लोग बाहर आ- जा रहे थे... समय के गुजरने के साथ ही ठण्ड ने अपना असर दिखाना शुरू किया...... मुझे भी लगा कि अगर हम सब समय से नहीं लौट सके तो काफी फजीहत हो जाएगी.... खासकर मुझे ऑफिस लौटकर रिपोर्ट भी फाइल करनी थी और कोलकाता डेस्क को भी कॉपी भेजनी थी.. जब मै बाहर निकला तो पुलक दा कई लोगों के साथ चाय के साथ बहसतलब में मशगूल थे. उन्होंने मुझे भी चाय के लिए कहा.... हालांकि इससे पहले मै कई बार चाय पी चुका था. पर सब बेमजा और वाहियात.....खैर इस बार कुछ ठीक ठाक थी...चाय को लेकर अक्सर पुलक दा और मेरे दोस्त मुझे ख्याल दिलाते..दरअसल सभी को पता था कि चाय मेरी कितनी बड़ी कमजोरी है...
                       मैंने पुलक दा से कहा कि अगर हम समय से ऑफिस नहीं पहुंचे तो देर हो जाएगी.... रवीन्द्र स्मृति भवन के बाहर मीडिया की फ़ौज अब वापस लौटने के लिए उतावली हो रही थी... पुलक दा भी अपनी गाड़ी और ड्राइवर  को खोज रहे थे...इसी बीच कुछ लोगों से मिलने के बाद हम सब अपनी गाड़ी में आ गए...मौसम का असर साफ़-साफ़ दिख रहा था. जबकि वापस लौटने की जद्दोजहद  में मै ये अनुमान लगा रहा था कि सिलीगुड़ी पहुँचते-पहुँचते शाम के सात बज जायेंगे.. जब गाड़ी वहां से चली तो सब कुछ साफ़-साफ़ दिख रहा था....उसी ढलान भरे रास्ते पर एक-दो लोग दिख जा रहे थे. स्कूल से लौटते कुछ बच्चे तो जंगल से लकड़ियाँ लेकर लौटतीं पहाड़ की मासूम महिलाएं... सच...आज भी पहाड़ों में तमाम फजीहतों के बावजूद आम जनजीवन कितना नैसर्गिक है... सहज और सौम्य.... धीरे-धीरे हम नीचे आ रहे थे और कहीं-कहीं छोटी-छोटी दुकानें और बस्तियां नजर आने लगी थी..अब भी सिलीगुड़ी पहुँचने में ३० किलोमीटर की दूरी थी... खैर.... रानी पुल पार करने के बाद लगा कि शायद हम समय से पहुँच जाएँ... इसी बीच पुलक दा बंगला मिक्स हिंदी में कुछ-कुछ बोलकर मन को हल्का कर रहे थे...जब हम सिलीगुड़ी पहुंचे तो शाम के ठीक ६.३० बजने को थे .... ऑफिस में दाखिल होने के बाद थोड़ी सी थकान पसरने लगी... पर कर्मवत होना था. रिपोर्ट फाइल करनी थी................................

                                                                                                                                         राहुल

12 July 2012

कोई बारिश दे जाएगा....

दिन-रात
टपकते निर्जन से
चेहरों में..
नहीं दिख रही 
कोई सड़क... कोई गली
रास्ता परेशान है
खुद तक आने को..
पानी जो...
आसमान से..
जमीं पर
उतरा है...
कितना थक गया होगा..
उसे न तो सड़क दिख रहा..
..न कोई गली
अमूमन.. दिन-रात
ये हादसा होता है
निर्जन चेहरों की
कतार..
कितनी लम्बी हो गयी है...
निर्वात दोपहर के
रेशे में..
बेजार शाम को..
बेपरवाह 
पलटती रहती हूँ..
अनमने स्वाद
वाली चाय का शोर..
कितना थक गया है...
यदा-कदा 
खुरदरे हाथों से
उस शोर को
ढंकना नियति बन गयी है..
ये सोचते हुए...
कभी तो रास्ते
थके- मांदे
सिमट आयेंगे
अपनी कतारों में.
कभी तो
निर्जन चेहरों को
कोई बारिश दे जाएगा..
                                                             राहुल



09 July 2012

संभवत.....

काफी जानलेवा होती है
सफलता...
सब कुछ छोड़कर 
इसके मद में...
आदमी.... सिर्फ  अपनी ही
मूरत गढ़ता  है ..
तब....
संघर्ष का शंखनाद
टूटने लगता है
सब कुछ छोड़कर
तिलिस्म में
आदमी....सिर्फ अपनी ही
साँसों को बेमकसद गिनता है 
साकाश बादलों के..
पहरे में...
जब सूरज पसीजता है
तब.. शर्तिया
सफलता...और
जानलेवा हो जाती है......
एक वक़्त था
एक  बूढी धरती थी
जब..
पवित्र त्याग के
उदगम से...
आत्म संतोष की
गंगा उमड़ती थी  ..
नदी, झरने, तालाब
तब उसी में
अमृतपान करते थे..
बिना शिकवे के..
अब सफलता
पूरे समंदर को
अकेले ही..
सोख लेना चाहती है
संभवत..
वह जानलेवा समेत
बदमिजाज.... व
हिंसक भी हो गयी है
                                                    राहुल

06 July 2012

तुमने सुना है...?

अगाध नेह...
के निष्कलंक सम्मोहन में
जीवन का संगीत
बोती एक स्त्री.......
निष्ठुर होते
चाँद की देहरी पर
एक रात
मांगती स्त्री....
समतल...सपाट...
धूर्त आइने में
हिमालय सी
जुर्रत
जीती स्त्री..........
आखिर कैसी होती है ?
देह कथा में
वासनाएं पिघलती है
आइना
अन्धकार में डूब जाता है
तब एक स्त्री का
अलिप्त प्रेम
वैराग्य को जीता है...
जीवन का संगीत
बोती स्त्री का...
कोलाहल तुमने सुना है...?
 कभी हिमालय से पूछो..
 कहाँ है ...
तुम्हारी जुर्रत ?
कहाँ है वो आइना ?
जहाँ स्त्री का अगाध नेह 
उसी अन्धकार में
अनवरत...फिर से
 वैराग्य को जीता है...
क्या सच में..
जीवन का संगीत
बोती स्त्री का...
कोलाहल तुमने सुना है...?

                                                                  राहुल





04 July 2012

धुआं मरासिम है.......

यह एक जीवंत खबर है
जो कहीं छपी है
आग लील रहा है
धुआं को..
धुआं जी रहा है
घुटन को.........
आग अनहद है....
पर....
 बेतहाशा है...
उसे ख़बरों में
जलने की लत लग गयी है..
आग बरसती है
पन्ने भींगते हैं
धुआं आमादा है...
पर बेवश है
उसे घुटन में
जीने की जिद हो गयी है...
धुआं मरासिम है
यह सब में शामिल है
अखबार के
सभी पन्नों पर
आग.. हर दिन..
बेतहाशा
जलती हुई
सुर्ख रंगों में
राख होती है..
धुआं..हर पल
जीवंत खबर है..
उसे अब भी 
घुटन में 
जीने की जिद है...
जले पन्नों पर
धुआं जख्म सिलता है..
यह मरासिम है
ये सब में शामिल है...
यह एक जीवंत खबर है
जो कहीं छपी है........

                                                              राहुल

25 June 2012

खंड-खंड सागर को ......

...सिर्फ जिस्म
 नहीं होती है लड़कियां
और... 
सपना भी नहीं
तिरते आसमान में
रंग-बिरंगे बादलों
जैसी भी...
नहीं होती है लड़कियां
कि...कोई समेट ले
अपने हाथों में..
सूखी हुई नदी की
आँखों में भी
भींगने भर को
नहीं होती है लड़कियां
की... कोई  डुबो दे 
अपने गलीच तालाब में
सूरज की बारिश में
छम-छम कर
जब उत्सव बिखेरती  हैं
लड़कियां...
आँगन में टूटने से पहले
जब माँ से चिपकती है
लड़कियां...
सागर को भी..
खंड-खंड कर देती हैं
लड़कियां.....
जब बाप के माथे पर
तर बतर होती हैं
लड़कियां...
कांच की सड़कों पर
जब दौड़ती हैं
लड़कियां
तब ...सिर्फ जिस्म
नहीं होती है
और न ही कोई सपना..
सूरज की बारिश
कांच की सड़कें
और सूखी हुई नदी 
के  मिलने पर भी
अपने बंजारे मन में
चेतन सी ..विराट
खुशबू को आह्लादित करती 
खंड-खंड सागर को
पी जाती हैं
लड़कियां


                                                                   राहुल

22 June 2012

सिसकती है स्मृति..

जब कभी हम
शीशे पे चिपकी
नन्ही बूंदों को..
अपने पास लाने की
कोशिश करते हैं ...
बूँदें चुपचाप..
सिमट जाती है
उँगलियों के आसपास..
घेरे में
आ ही जाता है..
किसी के लिखे हुए
इतिहास का अधूरा
पन्ना...
बिखरे शब्दों को
मिल जाते हैं
स्पर्श का प्राणवायु
तीत सी रौशनी में
नहा उठता है..
मृत अक्षरों का उद्वेग
सिसकती है  स्मृति..
पानी की कुछ बूँदें
जब सदी पर भारी पड़ती है
..तब  सब कुछ
आवरणहीन
और... निर्लज्ज सा दीखता है 

                                                                       राहुल




19 June 2012

रात.. अब तुम जाओ

कहाँ  से आती है
रातें ?
कहाँ से रिसता है
उम्मीद ?
 एक रात
एक उम्मीद
दोनों के बीच
खड़ा
कच्ची धूप का फासला
रात कहती है
इन धूपों को पकने दो
सहर होने तक...
जब सब जाग जायेंगे
हम...
उसी फासले में
मिटकर एक तो हो जायेंगे

उम्मीद कहता है
आओ...
निर्वाण को...
तलाशे
तेरे छिलते मन में
जब मेरा अंश
साकार होगा..
हम फिर से..
वैसे ही काँटों का
एक बुत बनायेंगे
मुझे अब भी
यकीन है तुम पर..
जब पिछली बार
तुमने...
अपने सीने में
छुपाकर
काँटों में पिरोया था...
फिर से..
मुझे उसी शक्ल में
ला दो...
तुम्हारी पकती हुई
कच्ची धूप में
ख्वाब की पंखुरियां
गुनगुनाने वाली है..

 मै तो वैसा ही ...रहूँगा
काँटों में भी...
रात.. अब तुम जाओ
सहर  की बेला
आसपास बिखरनेवाली है....
हमे तो
तुम्हारे हर अंश में
कितनों  के प्रारब्ध को
 जीना है..

                                             राहुल........

12 June 2012

सवालों के सामने-३


...बातें कहाँ से शुरू हुई ...और कहाँ पर विराम लेने लगी...अभी तक के अल्प सफ़र में उपलब्धियां नाम मात्र की रही है... अपने मनोभावों को शब्दों में पिरोने की आदत कब लगी... कुछ ख्याल नहीं... जब ब्लॉग के बारे नहीं जानता था..  तब इधर-उधर लिखकर छोड़ दिया करता था.. जाने-अनजाने लोगों ने उसे सहेजा.... मेरे लिए...
... वर्ड वेरिफिकेशन....कमेंट्स......पोस्ट.....वीणा स्टूडियो....उसकी .निर्विकार... यथावत तस्वीर.. दार्जीलिंग के तिब्बती शरणार्थी कैंप का रंग.... इन सबके बीच एक सच्चा इंसान... मेरे अन्दर हमेशा मौजूद रहेगा...इस छोटी सी कायनात में ललक इस बात की भी नहीं कि कभी उनके आमने-सामने होंगे कि नहीं..... हाँ जब कभी हमारा बेरहम वक़्त इसकी इजाजत देगा... तो अपना लैपटॉप सामने रख देंगे......
                                                                                                                               
                                                                                                                      राहुल

सवालों के सामने -2



....हमें अभी भी नहीं मालूम कि मेरे ब्लॉग से वर्ड वेरिफिकेशन हटा कि नहीं... आज हम उस इंसान को इसीलिए याद कर रहे हैं कि उन्होंने काफी खूबसूरत पोस्ट लिखा. हर विधा में, हर शैली में.. एक नहीं...दो नहीं, बल्कि कई बार... उनके शब्दों ने हमें संबल दिया... मेरी कविता और उनके कमेंट्स को लेकर एक और बात हुई... हमें इतना तो पता था कि उस सच्चे इंसान को हमने आहत किया है....बाद के दिनों में जब एक दिन ब्लॉग का पिछला पन्ना पलट रहे थे...तो  कुछ पुराने पोस्ट पर उनका कमेंट्स दिखा... बेहद ही सारगर्भित और सच्चा.... यकीन नहीं हुआ कि ऐसा भी हो सकता है... करीब साल भर पुराने पोस्ट पर कमेंट्स देना... हमारे लिए अनमोल धरोहर है...वो हमेशा मेरे पास रहेगा....और तो कुछ नहीं बचता है हमलोगों के लिए..  वैसे हम कोई आदतन कवि या लेखक तो नहीं थे, एक अदना सा पत्रकार (जो अभी तक अपने आप की तलाश नहीं कर सका है..) ख़बरों की खोज में कितना कुछ खोते गए... और अब तो ये सोचने का वक़्त भी नहीं कि कुछ बचा भी है या सब शेष हो गया.. पटना में पत्रकारिता की क्या दशा-दुर्दशा है... हमने इसे लगभग १२ सालों में खूब समझा है... ख़बरों को कवर करने के नाम पर.. अखबार के नाम पर  धौंसपट्टी दिखाकर दलाली करना... और ऑफिस के भीतर बड़े पदों पर बैठे दिग्गज नाम और उनका कर्म.... बताने की जरुरत नहीं... आप इतना ही समझ लीजिये कि दुनिया के सबसे पुराने पेशे और इसमें कोई ज्यादा अंतर नहीं रह गया है... अगर सिर्फ कंटेंट कि बात करें तो वो हमसे ज्यादा बेहतर हैं... सच को खुल कर स्वीकार तो करते हैं... खैर....
फिर एक बार राष्ट्रीय सहारा का जिक्र करना चाहेंगे... ठीक बोरिंग रोड चौराहा पर इसका ऑफिस है.. चौराहा से पूर्व की तरफ जाने पर एक फोटो स्टूडियो है.. वीणा स्टूडियो...आप सोच रहे होंगे कि ये स्टूडियो बीच में कहाँ से आ गया .. तो एक बार जरुरी काम से हम वहां गए... वहाँ काम चलता रहा और हम चुपचाप तमाशा देखते रहे... दरअसल उस स्टूडियो का काफी नाम है.. शादी-ब्याह के लिए लड़कियों की तस्वीर यहाँ निराले तरीके से तैयार की जाती है.. और उससे भी ज्यादा दिलचस्प होता है फोटोग्राफर महाशय का तस्वीर उतारने का बेलौस अंदाज.. कुछ ऐसे ही काम से हम वहां थे और सब कुछ बाहर में खड़े होकर देख रहे थे... स्टूडियो के बाहर एक छोटा सा गार्डेन भी है.. आप अपनी पसंद के मुताबिक कहीं भी बैठ जाइए और..फ्रेम तैयार......फोटोग्राफर महाशय जितनी बार कैमरा क्लिक करते, उससे कहीं ज्यादा हंसने और मुस्कराने की बात दोहराते... सजी-धजी लड़कियां चुपचाप कभी बैठ जाती तो कभी खड़ी हो जाती (किसी भी लड़की के लिए नए जीवन में कदम रखने का ये उम्मीदों भरा शगुन होता है.......ओह... रे मन.. कब तक... कितने सपने....) और फोटोग्राफर महाशय कैमरा क्लिक करने के साथ.. हँसते रहिए.. मुस्कराते रहिये .... कहते जाते... ये पूरा नजारा आज भी मेरी आँखों के सामने जी उठा है....
उसी स्टूडियो की एक तस्वीर (बहुत हद तक यकीन के साथ कह रहे हैं ) ...उसका फ्रेम... बहुत कुछ याद दिला देता है... इतने सालों में कितना कुछ बदल गया... दिन अब दिन न  रहा.. रातें राख में मिल गयी ... जहाँ बात के बात में विचार बदलते गए और रातों रात इतिहास बदल गए... वहां हमारे-आपके बदलने में कितना वक़्त लगेगा ? लेकिन नहीं बदली तो वो तस्वीर...निर्विकार... यथावत...... जो उसी वीणा स्टूडियो की है (बहुत हद तक यकीन के साथ कह रहे हैं )...
आज से करीब दो महीना पहले यानि १९ मार्च को ऑफिस के काम से दार्जिलिंग जाने का मौका मिला... एक ही दिन में लौटना था.. काम ख़त्म होने के बाद थोड़ा घूमने निकले ... दार्जीलिंग में एक जगह तिब्बती शरणार्थी कैंप और सेंटर है.. वहां भी गए.. तिब्बत की आजादी के संघर्ष और बलिदान की पूरी गाथा आप यहाँ देख सकते हैं.. कैंप में घूमने के दौरान हस्तनिर्मित सामान को देखकर काफी हैरत हुई... जाहिर है सब कुछ सुन्दर तरीके से हाथों से बना हुआ था.. फिर एक सामान पर नजर पड़ी... यकीन नहीं हुआ... वीणा स्टूडियो की उस निर्विकार... यथावत तस्वीर का रंग उसमे पूरी तरह समाहित था... बहुत देर तक रंगों से बात होती रही...लेकिन  सब कुछ मौन और.....दिव्य.....                                            
            
                                                                                                        राहुल