....हमें अभी भी नहीं मालूम कि मेरे ब्लॉग से वर्ड वेरिफिकेशन हटा कि नहीं... आज हम उस इंसान को इसीलिए याद कर रहे हैं कि उन्होंने काफी खूबसूरत पोस्ट लिखा. हर विधा में, हर शैली में.. एक नहीं...दो नहीं, बल्कि कई बार... उनके शब्दों ने हमें संबल दिया... मेरी कविता और उनके कमेंट्स को लेकर एक और बात हुई... हमें इतना तो पता था कि उस सच्चे इंसान को हमने आहत किया है....बाद के दिनों में जब एक दिन ब्लॉग का पिछला पन्ना पलट रहे थे...तो कुछ पुराने पोस्ट पर उनका कमेंट्स दिखा... बेहद ही सारगर्भित और सच्चा.... यकीन नहीं हुआ कि ऐसा भी हो सकता है... करीब साल भर पुराने पोस्ट पर कमेंट्स देना... हमारे लिए अनमोल धरोहर है...वो हमेशा मेरे पास रहेगा....और तो कुछ नहीं बचता है हमलोगों के लिए.. वैसे हम कोई आदतन कवि या लेखक तो नहीं थे, एक अदना सा पत्रकार (जो अभी तक अपने आप की तलाश नहीं कर सका है..) ख़बरों की खोज में कितना कुछ खोते गए... और अब तो ये सोचने का वक़्त भी नहीं कि कुछ बचा भी है या सब शेष हो गया.. पटना में पत्रकारिता की क्या दशा-दुर्दशा है... हमने इसे लगभग १२ सालों में खूब समझा है... ख़बरों को कवर करने के नाम पर.. अखबार के नाम पर धौंसपट्टी दिखाकर दलाली करना... और ऑफिस के भीतर बड़े पदों पर बैठे दिग्गज नाम और उनका कर्म.... बताने की जरुरत नहीं... आप इतना ही समझ लीजिये कि दुनिया के सबसे पुराने पेशे और इसमें कोई ज्यादा अंतर नहीं रह गया है... अगर सिर्फ कंटेंट कि बात करें तो वो हमसे ज्यादा बेहतर हैं... सच को खुल कर स्वीकार तो करते हैं... खैर....
फिर एक बार राष्ट्रीय सहारा का जिक्र करना चाहेंगे... ठीक बोरिंग रोड चौराहा पर इसका ऑफिस है.. चौराहा से पूर्व की तरफ जाने पर एक फोटो स्टूडियो है.. वीणा स्टूडियो...आप सोच रहे होंगे कि ये स्टूडियो बीच में कहाँ से आ गया .. तो एक बार जरुरी काम से हम वहां गए... वहाँ काम चलता रहा और हम चुपचाप तमाशा देखते रहे... दरअसल उस स्टूडियो का काफी नाम है.. शादी-ब्याह के लिए लड़कियों की तस्वीर यहाँ निराले तरीके से तैयार की जाती है.. और उससे भी ज्यादा दिलचस्प होता है फोटोग्राफर महाशय का तस्वीर उतारने का बेलौस अंदाज.. कुछ ऐसे ही काम से हम वहां थे और सब कुछ बाहर में खड़े होकर देख रहे थे... स्टूडियो के बाहर एक छोटा सा गार्डेन भी है.. आप अपनी पसंद के मुताबिक कहीं भी बैठ जाइए और..फ्रेम तैयार......फोटोग्राफर महाशय जितनी बार कैमरा क्लिक करते, उससे कहीं ज्यादा हंसने और मुस्कराने की बात दोहराते... सजी-धजी लड़कियां चुपचाप कभी बैठ जाती तो कभी खड़ी हो जाती (किसी भी लड़की के लिए नए जीवन में कदम रखने का ये उम्मीदों भरा शगुन होता है.......ओह... रे मन.. कब तक... कितने सपने....) और फोटोग्राफर महाशय कैमरा क्लिक करने के साथ.. हँसते रहिए.. मुस्कराते रहिये .... कहते जाते... ये पूरा नजारा आज भी मेरी आँखों के सामने जी उठा है....
उसी स्टूडियो की एक तस्वीर (बहुत हद तक यकीन के साथ कह रहे हैं ) ...उसका फ्रेम... बहुत कुछ याद दिला देता है... इतने सालों में कितना कुछ बदल गया... दिन अब दिन न रहा.. रातें राख में मिल गयी ... जहाँ बात के बात में विचार बदलते गए और रातों रात इतिहास बदल गए... वहां हमारे-आपके बदलने में कितना वक़्त लगेगा ? लेकिन नहीं बदली तो वो तस्वीर...निर्विकार... यथावत...... जो उसी वीणा स्टूडियो की है (बहुत हद तक यकीन के साथ कह रहे हैं )...
आज से करीब दो महीना पहले यानि १९ मार्च को ऑफिस के काम से दार्जिलिंग जाने का मौका मिला... एक ही दिन में लौटना था.. काम ख़त्म होने के बाद थोड़ा घूमने निकले ... दार्जीलिंग में एक जगह तिब्बती शरणार्थी कैंप और सेंटर है.. वहां भी गए.. तिब्बत की आजादी के संघर्ष और बलिदान की पूरी गाथा आप यहाँ देख सकते हैं.. कैंप में घूमने के दौरान हस्तनिर्मित सामान को देखकर काफी हैरत हुई... जाहिर है सब कुछ सुन्दर तरीके से हाथों से बना हुआ था.. फिर एक सामान पर नजर पड़ी... यकीन नहीं हुआ... वीणा स्टूडियो की उस निर्विकार... यथावत तस्वीर का रंग उसमे पूरी तरह समाहित था... बहुत देर तक रंगों से बात होती रही...लेकिन सब कुछ मौन और.....दिव्य.....
राहुल
सबसे पहले वर्ड वेरिफिकेसन तो हट गया है,,,
ReplyDeleteप्रवाहमयी संसस्मरण
:-)
पत्रकारिता की भाषा से परे भाव में डुबाती-उतराती सवाल- ढूंढा जवाब ..क्या कहूँ..?
ReplyDeletekeep writing rahul jee its a too good
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