मिरिक से दिखती कंचनजंघा की चोटी |
सहमेंदु झील के पास |
दीप मिलन प्रधान के साथ |
थर्बू चाय बागान से लौटते वक़्त रास्ते में.. |
एक समय था जब हिल में यानी दार्जिलिंग में सुभाष घिसिंग का हुक्म ही अघोषित कानून बन जाया करता था. १९८० के बाद पृथक गोरखालैंड राज्य की मांग के जोर पकड़ते ही खून-खराबे का दौर शुरू हुआ. काफी संघर्ष के बाद केंद्र सरकार की पहल पर बीच का रास्ता निकालते हुए १९८८ में दागोपाप (दार्जिलिंग गोरखा पार्वत्य परिषद् ) का गठन हुआ.. दरअसल बंगाल की वाम मोर्चा सरकार के पास कोई रास्ता नहीं था. अगर इस स्वायत्त संस्था का गठन नहीं होता तो हालात बेकाबू हो जाते... दागोपाप की कमान सुभाष घिसिंग के हाथों में थी... लम्बे समय तक शासन करने के बाद सुधार और विकास हो... न... हो, मगर उस पर बैठा व्यक्ति निरंकुश और अराजक हो जाता है.. यही बात हिल में हुई... धीरे-धीरे विद्रोह की चिंगारी सुलगने लगी. व्यवस्था परिवर्तन की आवाज बुलंद होने लगी.. सुभाष घिसिंग के हाथों से सत्ता यानी दागोपाप फिसलने लगा. २००८ में उन्ही की पार्टी के भरोसेमंद विमल गुरुंग ने नयी पार्टी गोरखा जन मुक्ति मोर्चा का गठन किया.. दागोपाप के तेवर सुस्त हो गए.. मोर्चा सुप्रीमो विमल गुरुंग अपने संगठन को लेकर लड़ाई के मैदान में कूद पड़े.. हालांकि उनका भी मकसद गोरखालैंड का गठन ही था, पर मूल राजनीति की धारा का हिस्सा बने रहने के लिए पिछले साल यानी २०११ में विधान सभा का चुनाव भी लड़ा.. मोर्चा को चार सीटों पर जीत हासिल हुई.. जिसमे से एक सीट डुआर्स से निर्दलीय उमीदवार विल्सन चम्प्रमारी ने जीता. विल्सन मोर्चा समर्थक उमीदवार थे.. अभी फिर हिल में यानी दार्जिलिंग में हालात वैसे हीं है.... खैर... ये तो हुई राजनीति की बातें... अब आतें हैं मूल मुद्दे पर......
जिस जगह की मै चर्चा करने जा रहा हूँ.. पहले उसके बारे में बता दूं कि दुनिया के सबसे खूबसूरत चाय बागानों में से कुछ यही पर है.. इसके साथ संतरे का खूब बड़ा बागीचा, एक शांत और सुन्दर झील... अंग्रेजों के बनाये स्विस कॉटेज और गुम्पा ( बौद्ध धर्म के अनुयायियों और लामा के रहने का निवास स्थान).... चारों तरफ पेड़ों से लिपटे पहाड़ और उस पर बसे छोटे-छोटे गाँव... इसकी सीमा से सटा नेपाल... मतलब नेपाल जाने के लिए चंद क़दमों का फासला...तो जानिये..... इस दिव्य और बेहद ही दिलकश जगह का नाम है ... मिरिक...... मतलब मनमोहक मिरिक... मदहोश मिरिक...
दार्जिलिंग जिले में तीन महकमा यानी अनुमंडल है.. कालिम्पोंग, कर्सियांग और सिलीगुड़ी.. मिरिक कर्सियांग अनुमंडल का एक प्रखंड है.. सिलीगुड़ी से दार्जिलिंग जाने के तीन रास्ते हैं.. पहला रास्ता रोहिणी होकर जाता है.. जो इन दिनों बंद है. दूसरा पंखाबारी और मकईबारी होकर जाता है, जबकि तीसरा रास्ता मिरिक होते हुए जाता है..इस रास्ते में थोड़ी दूरी ज्यादा है, फिर भी लोग ज्यादातर पर्यटक मिरिक होकर दार्जीलिंग जाना पसंद करते हैं...
२८ मार्च को एक रिपोर्ताज लिखने के सिलसिले में जब मैंने मिरिक के अपने रिपोर्टर दीप मिलन प्रधान से ये पूछा कि किस दिन मिरिक आना ठीक होगा तो दीप ने अपना समय निकालते हुए १ अप्रैल को आने का न्योता दिया...दीप से रोज हमारी फ़ोन पर बात होती.. वो हर दिन अपनी खबर फैक्स करते और मेल पर तस्वीर भेजते...हमारी कभी आमने-सामने की मुलाक़ात अभी तक नहीं हो पाई थी...फेसबुक और जीमेल पर वो हमारे साथ जुड़े हुए थे... मैंने उनकी तस्वीर उसी पर देखी थी...
१ अप्रैल को सिलीगुड़ी से एक सुमो में मिरिक के लिए चला...उस वक़्त सुबह के आठ बज रहे थे.. दीप ने मुझे बता दिया था कि आप साढ़े नौ बजे तक मिरिक पहुँचिए.. मै भी तब तक पहुँच जाऊँगा.. दरअसल दीप मिरिक से १५ किलोमीटर पहले फुबगुड़ी गाँव में रहते हैं ... सिलीगुड़ी से मिरिक की दूरी मात्र ४० किलोमीटर है.. मगर पहाड़ पर सीधी चढ़ाई होने के कारण जाने में समय ज्यादा लगता है.. करीब आधा घंटा की यात्रा के बाद तस्वीर बदलती गयी... जैसे-जैसे ऊपर की ओर बढ़ते गए.. हवा का दबाव भी बढ़ता गया... हर तरफ हरीतिमा.... इसी बीच मैंने दीप को फ़ोन किया... मैंने बताया कि इस जगह पर पहुँच गया हूँ... तो दीप ने कहा कि आप मिरिक पहुँच कर झील के पास ही रहिएगा.. मै जल्दी ही आ जाऊँगा... करीब बातचीत के एक घंटे के बाद मै मिरिक पहुंचा.. गाड़ी से उतरते ही मानो सारी थकान जाती रही.. हर तरफ सुरम्य शान्ति और सुकून.. झील के पास ही मै दीप का इन्तजार करने लगा... मौसम में ठण्ड का असर था... जबकि हल्की सी धूप भी खिली हुई थी... कुछ देर तक चारों तरफ का मुआयना करने के बाद झील के ठीक सामने मैदान में एक बेंच पर जाकर बैठ गया और दीप को फ़ोन लगाने लगा, मगर नेटवर्क की गड़बड़ी के कारण बात नहीं हो सकी.. उस वक़्त कोई भीड़ भाड़ नहीं थी... मैदान के ठीक पीछे छोटी-मोटी दुकानें थी... जबकि मैदान के सामने झील से सटे देवदार के पेड़ अपनी अहमियत के साथ करीने से खड़े थे.. मै उस नज़ारे को देखकर अवाक था.. जहाँ तक मै देख पा रहा था... सब कुछ नायाब सा. झील के बारे में तो मै पहले से जानता था.. करीब आधा घंटा तक उस मीठी धूप में बैठा रहा और सब कुछ भुलाता रहा.. इसी बीच दीप का फोन आया...उसने पूछा कि आप कहाँ हैं ? मैंने बताया कि झील के सामने मैदान में बेंच पर बैठा हूँ..उसने कहा कि मै मिरिक आ गया हूँ..आप वहीँ रहिये.. मै आ रहा हूँ.... दीप को दूर से देखकर ही मै पहचान गया...उसने हाथ हिलाकर इशारा किया.. मैंने भी जवाब दिया... खैर... दीप मेरे सामने खड़े थे... कुछ देर तक बातचीत करने के बाद मैंने कहा कि.. दीप पहले चाय पिया जाए.. फिर हम दोनों वहीँ पर एक चाय की दुकान में गए...चाय का आर्डर देने के बाद फिर बातचीत शुरू हुई.. मैंने पूछा कि मिरिक इतना प्रसिद्ध क्यों नहीं है जितना दार्जिलिंग और कालिम्पोंग... ? दीप ने कहा कि मिरिक के प्रखंड होने के कारण यह उतना जगजाहिर नहीं है..अब लोग जानने लगे हैं.. कुछ और बातचीत के बाद चाय आ गयी... चाय पीते ही मुझे ये एहसास हो गया कि यहाँ जो कुछ भी है.. सब उम्दा है.. दीप ने पूछा भी... चाय कैसी है ? मैंने कहा कि... पहली बार इस तरह की चाय पीने को मिली है.. वो भी मात्र पांच रुपये में.... उसके बाद दीप ने कहा कि आपके पास कितना समय है ? मैंने कहाँ कि हर हाल में मुझे शाम तक लौट जाना होगा.. तो उसने कहा कि... काफी समय है..आइये चलते हैं...कुछ ख़ास जगह तो आप देख ही लेंगे... मैंने कहा कि अच्छा ठीक है...
दीप और मै वहां से निकले और झील के पास बनी पुलिया को पार करते हुए दूसरी तरफ आ गए...दीप ने बताया कि इस पुलिया को सुभाष घिसिंग ने बनवाया था. इसी बीच दीप ने कहा कि आप अपना मोबाइल कैमरा अपने पास रखिये... मेरे पास तो है ही... उसने अपना कैमरा निकाला और गले में लटका लिया... जिस झील के बारे में चर्चा चल रही है, उसका नाम सहमेंदु झील है... वहां से हमलोग मिरिक के प्रसिद्ध देवी मंदिर में गए... जहाँ उस वक़्त कुछ पूजा-पाठ और भंडारे का आयोजन चल रहा था. दीप ने कहा कि आप अन्दर जाइए.. मै यहीं बाहर में हूँ...मैंने भी कहा कि ठीक है मै यहीं से दर्शन कर लेता हूँ..फिर वहां से लौटकर हमलोग पुलिया के पास आये... दीप तब तक मेरी कई तस्वीर ले चुके थे..तस्वीर लेते वक़्त अक्सर वो मुझसे थोड़ा मुस्कुराने कहते ..हम दोनों बातचीत करते हुए आगे बढ़ रहे थे.. वो मुझे एक ऊँची जगह पर ले गया.. हालांकि चढ़ने में थोड़ी दिक्कत हुई, पर वहां से मिरिक का अलौकिक नजारा दिख रहा था... उस जगह पर भी दीप ने मेरी तस्वीर उतारने में कोई कंजूसी नहीं की...मैंने दीप से कहा कि आपने कुछ दिनों पहले यहाँ से कंचनजंघा पहाड़ (सबसे ऊपर कि फोटो ) की शानदार तस्वीर भेजी थी... वो कहाँ से दिखाई देगी ? तो उन्होंने कहा कि वो फोटो तो यही से ली थी... शायद हल्का सा दिख जाए, अभी तो थोड़ा सा मुश्किल दिख रहा है... दीप ने बताया कि जब बारिश होने के बाद आसमान साफ हो जाता है तो तब कंचनजंघा पहाड़ की चोटी भव्य तरीके से दिखाई देती है... फिर उसने अपने कैमरे को जूम करके उसे दिखाने की कोशिश की.. उस वक़्त काफी हल्का सा वो दिखा... वो मिरिक के बारे में बताते रहे .. मै उनकी बातें गौर से सुन रहा था. उन्होंने वहीँ से गुम्पा और स्विस कॉटेज दिखाए... तब तक धूप थोड़ी और निखर गयी थी.. वहां से चारों तरफ जो मुझे दिख रहा था, ऐसा लगा जैसे पहाड़ का सारा सौंदर्य वहीँ आकर थम सा गया हो...मौसम भी काफी दिलकश हो गया था...दीप कुछ न कुछ बताते रहते ... पर कोई-कोई बात मुझे फिर से पूछनी पड़ती... दरअसल दीप कुछ ज्यादा ही तेजी में बोलते थे. बातचीत के टोन में नेपाली शब्दावली का पुट आ जाता.. दीप इस बात को समझ रहे थे... वो फिर से मुझे समझाते.. हमलोग वहां से नीचे आ गये...मैंने दीप से कहा कि अब कहाँ चला जाए... ? तो उसने कहा कि अब आपको चाय बागान ले चलते हैं...इसके लिए यहाँ से ७-८ किलोमीटर दूर सौरेनी बाजार होकर थोड़ा नीचे जाना होगा... मैंने पूछा कि थर्बू चाय बागान यहीं हैं न ? national geographic के एक documentry में मैंने इसके बारे में सुना और देखा था... दीप ने झट से कहा... हाँ .. तो वहीँ चला जाए..? मैंने कहा... बेशक.... वहीँ चलिए.... मेरे इतना कहते ही दीप ने एक सेंट्रो गाड़ी ठीक की.. ड्राईवर को बताया गया कि कहाँ चलना है ? हम दोनों गाड़ी में बैठे..... वहां से निकल कर एक किलोमीटर नीचे सौरेनी बाजार पहुंचे... एक ऐसा बाजार.. जो आमतौर पर छोटे-मोटे कस्बों और बस्तियों में होता है... ठीक वैसा ही था.. रास्ता ज्यादा चौड़ा नहीं था... लोगों की मामूली भीड़ दिख रही थी... कुछ पुराने ढंग का मकान और आम रोजमर्रा की जरूरत की दुकानें...मै काफी उत्सुकता से सब चीजों को देख रहा था व दीप से बात भी कर रहा था... मैंने कहा कि अभी तो चाय बागानों में कुछ ख़ास नहीं दिखेगा ? मतलब काम करते लोग दिख जायेंगे क्या ? तो उसने कहा कि.. अभी फर्स्ट फ्लश पत्तियों के टूटने का सीजन शुरू हुआ है...कम लोग दिखेंगे ....मैंने पूछा कि.. फर्स्ट फ्लश पत्तियों का मतलब... तब दीप ने कहा कि चाय की पहली फसल... अभी जब आप बागान में चलेंगे तो इसकी मदहोश करने वाली खुशबू में डूब जायेंगे.... अगर बारिश हो गयी तो फिर सोने पे सुहागा.... मै ये सब सुनकर रोमांचित हो रहा था. धीरे-धीरे हमलोग कई घुमावदार रास्तों से होकर आगे बढ़ रहे थे.. सड़क के दोनों तरफ अब जो भी कुछ दिख रहा था... यकीनन शानदार..... मैंने कहा कि अभी और कितनी दूर है ? तो दीप ने कहा कि तीन-चार किलोमीटर और जाना है... इस बीच वो मुझे आसपास के इलाकों के बारे में बताते रहे...जब हमलोग थर्बू चाय बागान के पास पहुंचे तो दीप ने ड्राईवर को गाड़ी सड़क किनारे एक छोटी सी जगह पर खड़ी करने को कहा.. जहाँ से एक दूसरा रास्ता भी था... हम दोनों बाहर निकले...दीप ने मुझसे पूछा... अब बताइए.....ये जगह कैसी लगी ? मै कुछ कहने की स्थिति में नहीं था... चारों तरफ हरा-भरा मंजर... जैसे किसी ने कैनवास पर हरा रंग बिखेर दिया हो... एक ऐसी पेंटिंग जो हाथों से नहीं, बल्कि ह्रदय से बनायीं गयी हो... कहीं कोई शोर नहीं... सच... ये बिलकुल जन्नत को सामने देखने जैसा ख्वाब लग रहा था... धीरे-धीरे हम दोनों बागान के अन्दर गए...धूप अपनी अदा से जमीन पर उतर रही थी और हल्की ठंडी हवा मन मिजाज को बेसुध किये जा रही थी.... ये वाकई रोमांचक पल था... मैंने दीप से कहा... यहाँ तो अभी कोई दिख नहीं रहा है ? दीप ने कहा... शायद पहले राउंड की पत्तियों की तुड़ाई हो गयी होगी... खैर... दीप चाय बागान से जुड़े कई दिलचस्प बातों को बताते रहे और मै सुनता रहा... दीप ने बताया कि यहाँ के चाय श्रमिकों को मेहनताने के रूप में काफी कम पैसे मिलते हैं... पर काम कठिन है..उस हिसाब से उन्हें आधे पैसे दिए जाते हैं... मैंने कहा कि अभी तो हिल में चाय बागान प्लान्टेशन लेबर यूनियन काफी मुखर होकर काम कर रहा है.. तब ऐसी दिक्कत क्यों ? आपने तो एक-दो रिपोर्ट भेजी थी मेरे पास .....दीप ने बताया कि ये सब कहने भर को है सर जी .... बागान मालिक से लेकर फैक्ट्री में मैनेजर तक हर स्तर पर ये शोषण का शिकार होते हैं.. इसी बीच दीप ने हाथों से इशारा कर बताया कि चाय बागान कहाँ तक फैला हुआ है ..उसने यह भी बताया कि यहाँ से चार-पांच किलोमीटर के बाद का इलाका जो दिख रहा है.. वो सब नेपाल में है..
करीब आधा घंटा तक वहां रहने के बाद हमलोग अपनी गाड़ी के पास आये...इस दौरान एक-दो लोगों से हमने बात भी की... जो आसपास के रहने वाले थे... दीप उनसे कुछ पूछते और तब मुझे बताते... फिर हम वहां से चल दिए.. दीप ने कहा कि इन सीमाई इलाकों में मानव तस्करी खासकर लड़कियों और महिलाओं की तस्करी काफी होती है...यहाँ गरीबी बहुत है और रोजगार के साधन कम... जबकि एसएसबी की चौकसी हमेशा रहती है...
अब हमलोग वापस लौट रहे थे...मैंने दीप से कहा कि थर्बू के अलावा और कौन से चाय बागान है जो काफी प्रसिद्ध है.. तो उन्होंने बताया कि फुगुड़ी, ओकेटी, सौरेनी और गोपाल धारा चाय बागान... जबकि और कई छोटे-मोटे बागान है... जब हम वापस फिर सौरेनी बाजार पहुंचे तो दीप ने चाय पीने की बात कही... हमलोग गाड़ी साइड कर एक साधारण चाय दुकान में गए और चाय की चुस्कियों के साथ अपनी थकान मिटाई... वहां से जब हम मिरिक पहुंचे तो दीप ने कहा कि अब स्विस कॉटेज और गुम्पा देखने चलते हैं... मैंने कहा.. ठीक है... हमने गाड़ी झील के पास बने पार्किंग में खड़ी की....इसके लिए हमदोनों पैदल ही देवी मंदिर के पीछे वाले रास्ते से ऊपर की ओर गए... वहां जाने में करीब २० मिनट का समय लगा.. स्विस कॉटेज को अंग्रेजों ने बनाया था.
काफी सुन्दर और भव्य... वहां ज्यादा देर नहीं ठहर सके और जल्दी ही वापस आ गए.. जबकि गुम्पा को दूर से ही देख सका..
कुल मिलाकर मिरिक मुझे मसूरी के ऊपर बसा धनौल्टी जैसा दिखा.. थोड़ा सा फर्क ये लगा कि यहाँ सीढ़ीनुमा पहाड़ की ढलान पर चाय बागान का कब्ज़ा है, जबकि धनौल्टी में छोटे-छोटे झरने और पानी के सोते.. बाकी सब कुछ एक जैसा.... खैर.... समय अपनी रफ़्तार में था... जब वहां से फिर नीचे उतर कर झील के सामने वाले मैदान में आये तो चहल-पहल बढ़ गयी थी... झील में बोटिंग करने वाले सैलानी दिख रहे थे....खासकर बच्चे.. बातचीत के दौरान मैंने दीप से पूछा कि आपने बुन्कुलुंग गाँव के बारे में लिखा था. जिसमें ये बताया था कि यहाँ संतरे का बागीचा है और बंगाल सरकार ने इस गाँव में विलेज टूरिज्म को बढ़ावा देने के लिए एक सुन्दर सा गेस्ट हाउस भी बनाया है... दीप ने बताया कि बुन्ग्कुलुंग मिरिक का लोअर इलाका है... यहाँ से उसकी दूरी २० किलोमीटर है... पूरे वेस्ट बंगाल में सबसे ज्यादा संतरे की पैदावार यहीं होती है.. .इसके अलावा इसी गाँव के बगल से बालासन नदी गुजरती है.. जो आगे चलकर दार्जिलिंग की तरफ जाती है... ये वही बालासन नदी है जो पूरे दार्जिलिंग को पेयजल मुहैया कराती है...मैंने दीप से कहा कि अब अगली बार तो बुन्ग्कुलुंग ही चलेंगे... दो दिनों के लिए...... मैंने दीप से कहा कि अब मुझे लौटना होगा... तो उन्होंने फिर चाय पीने की गुजारिश की... और कहा कि कई जगहों को तो मै नहीं दिखा सका... अब अगली बार जब आप आयेंगे तो बची जगहों को दिखाने के साथ अपने गाँव फुबगुड़ी भी ले चलेंगे ....मैंने कहा कि जरूर दीप... आपके गाँव भी चलेंगे और आपकी प्यारी बिटिया से भी मिलेंगे... इतना कहते ही दीप खिलखिला कर हँस पड़े... हल्की-फुल्की कुछ और बातचीत के बाद दीप मुझे मेरी गाड़ी तक छोड़ने आये...
गाड़ी में बैठने से पहले हमने हाथ भी मिलाये और गले भी मिले... जब गाड़ी हमारी खुल गयी तो फिर उन्होंने यहाँ आने को याद दिलाया... उस तमाम दिन की घटनाओं-यादों के साथ मै वापस सिलीगुड़ी के लिए निकल चुका था. धूप अब मद्धिम होने लगी थी.......हल्की-हल्की ठण्ड का एहसास होने लगा था... मैंने गाड़ी का शीशा ऊपर चढ़ा दिया.......
राहुल
थर्बू चाय बागान ........ |
रोचक यात्रा वृत्तान्त....मनभावन वर्णन....प्रस्तुति बहुत पसंद आई !
ReplyDeleteबेहतरीन यात्रा वृतांत के लिए धन्यवाद........... ऐसे ही घूमते रहिये और हमें भी घुमाते रहिये.....!!!
ReplyDeleteरोमांचकारी विवरण....शानदार और बेहतरीन फोटो...|
ReplyDeleteरोचक वृत्तांत.....बस पढते चले गए....
ReplyDeleteअनु
बढ़िया यात्रा विवरण
ReplyDeleteफोटो भी अच्छी है :-)
Intresting travelouge...
ReplyDeleteमिरिक घुमने के क्रम में वाकई स्वर्गीय झलक सी मिली . बुन्ग्कुलुंग पर रिपोतार्ज की प्रतीक्षा है..
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