दिन-रात
टपकते निर्जन से
चेहरों में..
नहीं दिख रही
कोई सड़क... कोई गली
रास्ता परेशान है
खुद तक आने को..
पानी जो...
आसमान से..
जमीं पर
उतरा है...
कितना थक गया होगा..
उसे न तो सड़क दिख रहा..
..न कोई गली
अमूमन.. दिन-रात
ये हादसा होता है
निर्जन चेहरों की
कतार..
कितनी लम्बी हो गयी है...
निर्वात दोपहर के
रेशे में..
बेजार शाम को..
बेपरवाह
पलटती रहती हूँ..
अनमने स्वाद
वाली चाय का शोर..
कितना थक गया है...
यदा-कदा
खुरदरे हाथों से
उस शोर को
ढंकना नियति बन गयी है..
ये सोचते हुए...
कभी तो रास्ते
थके- मांदे
सिमट आयेंगे
अपनी कतारों में.
कभी तो
निर्जन चेहरों को
कोई बारिश दे जाएगा..
राहुल
टपकते निर्जन से
चेहरों में..
नहीं दिख रही
कोई सड़क... कोई गली
रास्ता परेशान है
खुद तक आने को..
पानी जो...
आसमान से..
जमीं पर
उतरा है...
कितना थक गया होगा..
उसे न तो सड़क दिख रहा..
..न कोई गली
अमूमन.. दिन-रात
ये हादसा होता है
निर्जन चेहरों की
कतार..
कितनी लम्बी हो गयी है...
निर्वात दोपहर के
रेशे में..
बेजार शाम को..
बेपरवाह
पलटती रहती हूँ..
अनमने स्वाद
वाली चाय का शोर..
कितना थक गया है...
यदा-कदा
खुरदरे हाथों से
उस शोर को
ढंकना नियति बन गयी है..
ये सोचते हुए...
कभी तो रास्ते
थके- मांदे
सिमट आयेंगे
अपनी कतारों में.
कभी तो
निर्जन चेहरों को
कोई बारिश दे जाएगा..
राहुल
उफ़ || आपके शहर में अब तक बारिश नहीं आई..
ReplyDeleteहमारे ब्लॉग में तो खूब बारिश हो रही है..
:-)
बहुत ही सुन्दर रचना..
ReplyDelete:-)
क्या खूब बारिस को भी सिमटा लिया अपनी ही शब्दों के पनाह में
ReplyDeleteबहुत सुन्दर........
ReplyDeleteचंद अलफ़ाज़....कहते बहुत कुछ.....
अनु
:)
ReplyDeleteआपको पढने के क्रम में भावों के कितने ही बादल कई-कई रंगों में फैलने-सिमटने लगते हैं..हम भी उस बादल सा हो जाते हैं..
ReplyDeleteबहुत ही प्रशंसनीय प्रस्तुति ।
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