Rahul...

12 July 2012

कोई बारिश दे जाएगा....

दिन-रात
टपकते निर्जन से
चेहरों में..
नहीं दिख रही 
कोई सड़क... कोई गली
रास्ता परेशान है
खुद तक आने को..
पानी जो...
आसमान से..
जमीं पर
उतरा है...
कितना थक गया होगा..
उसे न तो सड़क दिख रहा..
..न कोई गली
अमूमन.. दिन-रात
ये हादसा होता है
निर्जन चेहरों की
कतार..
कितनी लम्बी हो गयी है...
निर्वात दोपहर के
रेशे में..
बेजार शाम को..
बेपरवाह 
पलटती रहती हूँ..
अनमने स्वाद
वाली चाय का शोर..
कितना थक गया है...
यदा-कदा 
खुरदरे हाथों से
उस शोर को
ढंकना नियति बन गयी है..
ये सोचते हुए...
कभी तो रास्ते
थके- मांदे
सिमट आयेंगे
अपनी कतारों में.
कभी तो
निर्जन चेहरों को
कोई बारिश दे जाएगा..
                                                             राहुल



7 comments:

  1. उफ़ || आपके शहर में अब तक बारिश नहीं आई..
    हमारे ब्लॉग में तो खूब बारिश हो रही है..
    :-)

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  2. बहुत ही सुन्दर रचना..
    :-)

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  3. क्या खूब बारिस को भी सिमटा लिया अपनी ही शब्दों के पनाह में

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  4. बहुत सुन्दर........
    चंद अलफ़ाज़....कहते बहुत कुछ.....

    अनु

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  5. आपको पढने के क्रम में भावों के कितने ही बादल कई-कई रंगों में फैलने-सिमटने लगते हैं..हम भी उस बादल सा हो जाते हैं..

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  6. बहुत ही प्रशंसनीय प्रस्तुति ।

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