तुम्हारे अन्दर
एक विवशता
का बंजर था........
रोने-गाने की
दहलीज से
दूर जा बैठे थे..............
मै अब भी..
सोच रही हूँ तुम्हे
कितना एकाकार है ?
समय की
क्रूर समीक्षा में
असमाप्त विषयों का
मिथ्या जयघोष........
पानी की स्याही से
बंजर धरती पर
तुम हर पल
उगाते हो..
अपना भ्रम
ऐसा क्यों नहीं होता ?
जैसे डूबती हूँ मै
तुम भी....
कभी डूब जाओ
समय की
क्रूर समीक्षा में.....
मै अब भी..
सोच रही हूँ तुम्हे
कितना सहज है ?
अपनी-अपनी पृथ्वी
को तय कर लेना
और बेदम रास्तों को
अंगीकार
ऐसा क्यों नहीं होता ?
जैसे उगती हूँ मै
विवशता की
बंजर धरती में
तुम भी....
कभी पनप जाओ
मेरे बवंडर में...
मै अब भी..
सोच रही हूँ तुम्हें.......
राहुल
एक विवशता
का बंजर था........
रोने-गाने की
दहलीज से
दूर जा बैठे थे..............
मै अब भी..
सोच रही हूँ तुम्हे
कितना एकाकार है ?
समय की
क्रूर समीक्षा में
असमाप्त विषयों का
मिथ्या जयघोष........
पानी की स्याही से
बंजर धरती पर
तुम हर पल
उगाते हो..
अपना भ्रम
ऐसा क्यों नहीं होता ?
जैसे डूबती हूँ मै
तुम भी....
कभी डूब जाओ
समय की
क्रूर समीक्षा में.....
मै अब भी..
सोच रही हूँ तुम्हे
कितना सहज है ?
अपनी-अपनी पृथ्वी
को तय कर लेना
और बेदम रास्तों को
अंगीकार
ऐसा क्यों नहीं होता ?
जैसे उगती हूँ मै
विवशता की
बंजर धरती में
तुम भी....
कभी पनप जाओ
मेरे बवंडर में...
मै अब भी..
सोच रही हूँ तुम्हें.......
राहुल
तुम भी....
ReplyDeleteकभी पनप जाओ
मेरे बवंडर में...
मै अब भी..
सोच रही हूँ तुम्हें.......
यह रचना बहुत ही उम्दा है बेहतरीन अभिव्यक्ति
बहुत सुन्दर राहुल जी...
ReplyDeleteनारी मन के कोमल एहसासों को बखूबी उतारा है इस रचना में...
अनु
तुम भी....
ReplyDeleteकभी पनप जाओ
मेरे बवंडर में...
मै अब भी..
सोच रही हूँ तुम्हें.......
gahan ...aur sundar rachama ...!!
shubhakamnayen.
सोच रही हूँ ऐसा क्यों नहीं होता कि समय का बवंडर थम सा जाता और विवशताओं में आ जाती बहारें..कितना एकाकार होता..क्यों नहीं ऐसा होता..?
ReplyDeleteनारी मन के कोमलता है यह
ReplyDeleteवह रिश्तो को यूँ ही नहीं छोड़ देती
एक कोशिश तो करती ही है बिखरे रिश्तो को सहेजने की..
बेहतरीन रचना...
तुम भी....
ReplyDeleteकभी पनप जाओ
मेरे बवंडर में...
मै अब भी..
सोच रही हूँ तुम्हें.......
नारी मन के कोमल भावो को
व्यक्त करती बेहतरीन अभिव्यक्ति..
इतना गहरा सोंच आपके ही दिल से निकल सकती थी .............बहुत ...खूब ...........
ReplyDeleteऐसा क्यों नहीं होता ?
ReplyDeleteजैसे उगती हूँ मै
विवशता की
बंजर धरती में
तुम भी....
कभी पनप जाओ
मेरे बवंडर में...
मै अब भी..
सोच रही हूँ तुम्हें.......
बहुत खूब .
उम्दा और बेहतरीन अभिव्यक्ति ..
सार्थक रचना ..