जब कभी हम
शीशे पे चिपकी
नन्ही बूंदों को..
अपने पास लाने की
कोशिश करते हैं ...
बूँदें चुपचाप..
सिमट जाती है
उँगलियों के आसपास..
घेरे में
आ ही जाता है..
किसी के लिखे हुए
इतिहास का अधूरा
पन्ना...
बिखरे शब्दों को
मिल जाते हैं
स्पर्श का प्राणवायु
तीत सी रौशनी में
नहा उठता है..
मृत अक्षरों का उद्वेग
सिसकती है स्मृति..
पानी की कुछ बूँदें
जब सदी पर भारी पड़ती है
..तब सब कुछ
आवरणहीन
और... निर्लज्ज सा दीखता है
राहुल
शीशे पे चिपकी
नन्ही बूंदों को..
अपने पास लाने की
कोशिश करते हैं ...
बूँदें चुपचाप..
सिमट जाती है
उँगलियों के आसपास..
घेरे में
आ ही जाता है..
किसी के लिखे हुए
इतिहास का अधूरा
पन्ना...
बिखरे शब्दों को
मिल जाते हैं
स्पर्श का प्राणवायु
तीत सी रौशनी में
नहा उठता है..
मृत अक्षरों का उद्वेग
सिसकती है स्मृति..
पानी की कुछ बूँदें
जब सदी पर भारी पड़ती है
..तब सब कुछ
आवरणहीन
और... निर्लज्ज सा दीखता है
राहुल
घेरे में सिमटी बूंदे और सिमट जाना चाहती है.. स्मृतियों का क्या जो बस सिसकना ही जानती है..
ReplyDeleteकडवी यादो कि टीस हमेशा मन को उद्वेलीत करती है
ReplyDeleteगहन भाव अभिव्यक्ती....
अनुपम प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार
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