Rahul...

09 June 2013

दार्जिलिंग डायरी-4


युमथांग वैली
दार्जिलिंग को करीब से देखते व उसे महसूस करते हुए मुझे कई बार ऐसी ख़बरों से दोचार होने का मौका मिला, जो पूरी तरह से अनचाहा था.. दिन-रात ख़बरों में सोते-जागते रहने के कारण भी अखबार के भाई-बंधुओं को एक सी आदत हो जाती है.. कुछ आम किस्म की ख़बरें रोज ही मिलती रहती है..रूटीन ख़बरों को लेकर हम सारे लोग एक ही ढर्रे पर काम करते हैं...सच कहा जाए तो 16  या 20 पन्नों के अखबार में  शायद ही कभी कोई ऐसी खबर होती है जो आपको अपनी ओर खींच सके.. दार्जिलिंग, गंगटोक, मिरिक, कालिम्पोंग व आसपास के कुछ इलाकों के सामाजिक ताने-बाने को हमने खबरों के माध्यम से समझने की कोशिश की.. कई बार मुझे लगा कि ये काफी मुश्किल भरा काम है.. जितना ही ज्यादा जानने की कोशिश करते, उतना ही सब कुछ अधूरा लगता.. हिंदी पट्टी की जीवनशैली से एकदम अलग-थलग..एक सहज, सरल जीवन जीने के लिए हिल के लोगों को कितनी हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ती है, इसे भी हमने नजदीक से देखा.. तमाम विसंगतियों को झेलते हुए ये लोग हर दिन नए इम्तहान से गुजरते  हैं और हमारे लिए सिर्फ खबर बनकर रह जाते हैं...डायरी के इस अंक में मैं सिर्फ दो खबरों की चर्चा करूँगा....
    मैंने अपने गंगटोक रिपोर्टर प्रवीण खालिंग को इससे पहले अपने ब्लॉग पर याद नहीं किया था..अभी  कर रहा हूँ... लड़कियों की तरह लम्बे बाल रखने वाले प्रवीण की गिनती गंगटोक के तेज-तर्रार पत्रकारों में की जाती है.. उनकी भी पहुँच काफी ऊपर तक है.. गोरखालैंड आन्दोलन से जुड़ी एक संस्था के सक्रिय सदस्य हैं... मूल रूप से नेपाली भाषा व साहित्य पर अच्छी पकड़ रखने वाले खालिंग एक अच्छे कवि भी हैं और अक्सर गंगटोक में आयोजित होने वाली काव्य गोष्ठियों में शिरकत करते रहते हैं...सिक्किम जैसे छोटे राज्य की तमाम राजनीतिक गतिविधियाँ और उनसे जुड़ी हुई खबर उन्हें सहज ही मिल जाती है.. 5 -6 बार गंगटोक जाने के बाद भी मैं सिक्किम के उन इलाकों में नहीं जा सका, जो गंगटोक से 50 किलोमीटर की ज्यादा दूरी पर है...सिर्फ एक बार मैं गंगटोक से 31 किलोमीटर की दूरी पर क्योंग्सला तक ही घूम पाया. कई बार मैंने उनके साथ घूमने का प्रोग्राम बनाया, पर कई कारणों से जा नहीं सका.. प्रवीण अक्सर  राजधानी गंगटोक से बाहर दूर-दराज के इलाकों में भी अक्सर घूम-घूमकर ख़बरों को बटोरते रहते हैं..कई बार उन्होंने  भारत-चीन सीमा के पास नाथुला दर्रा , छंगु व हांगु लेक, गुरु दोंग्मार झील, लाचेन, लाचुंग, बाबा मंदिर व आसपास के दुर्गम इलाकों में जाकर रिपोर्टिंग की... मुझे लाचेन गाँव से उनके द्वारा भेजी गयी एक रिपोर्ट की याद आ रही है... लाचेन पूरे भारत का पहला ऐसा पर्यटन स्थल है जहाँ प्लास्टिक और बोतलबंद पानी का प्रयोग पूरी तरह वर्जित है.. खलिंग ने पूरे लाचेन में घूम-घूम कर इस रिपोर्ट को तैयार किया था..उन्होंने बताया था कि किस तरह गाँव के लोगों ने इस अभियान में बिना सरकारी मदद के बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया.. वैसे भी लाचेन गाँव की खूबसूरती पर कुछ भी कहना कम होगा...ये एक ऐसी जगह है जो अभी तक टूरिज्म के नक़्शे पर बहुत ज्यादा सुर्खियाँ नहीं बटोर सका है..इसके साथ ही पश्चिम सिक्किम के योकसुम गाँव से दिखता माउन्ट काब्रु का मनोरम नजारा भी सबको हैरत में डालता है.. ज्ञात हो कि योकसुम गाँव जोंग्री व गोचुला ट्रैकिंग के आधार शिविर के लिए विख्यात है...
       प्रवीण ने पिछले साल अगस्त में  उत्तर सिक्किम में स्थित  युमथांग वैली का दौरा किया था..तब उन्होंने अपने कैमरे में इस अतुल्य भारत की अनमोल संपदा को अपने कैमरे में कैद कर भेजा था. प्रवीण ख़बरों को लेकर काफी संजीदा रहते हैं...मैंने कई बार इस बात को महसूस किया... उनकी जिस रिपोर्ट की चर्चा अब मैं करने जा रहा हूँ, वो काफी जानदार है.. दरअसल रिपोर्टिंग करते-करते प्रवीण खुद भी उस खबर का हिस्सा बन गए थे.. 31 मई को प्रवीण ने नाथुला व छंगु से लौटकर आ रहे करीब 4 हजार टूरिस्टों के क्योंग्सला में भारी बारिश और भूस्खलन के कारण बुरी तरह फँस जाने की रिपोर्ट भेजी थी...घटना के मुताबिक़ जब  31  मई की शाम प्रवीण को भूस्खलन के कारण क्योंग्सला में रास्ता बंद होने की जानकारी मिली तो उन्होंने मुझे फ़ोन कर इस बात की जानकारी दी कि गंगटोक से बड़ी खबर के लिए तैयार रहिएगा... शायद आज की लीड यही हो... उसने ये भी कहा कि मैं क्योंग्सला जा रहा हूँ... वहां पहुँच कर फिर आपको खबर करूँगा... मैंने कहा कि ठीक है... अगर सम्भव हो तो फोटो का उपाय करियेगा... एहतियात के तौर पर मैंने कोलकाता डेस्क में बैठे अपने सहयोगी को पूरे मामले से अवगत कराया और कहा कि गंगटोक से बड़ी खबर आ रही है... उधर, प्रवीण के लिए क्योंग्सला पहुंचना काफी मुश्किल हो रहा  था, क्योंकि लगातार बारिश और पहाड़ों से मिट्टी खिसकने के कारण रास्ता पूरी तरह बंद हो गया था..हालांकि प्रवीण क्योंग्सला पहुँचने से पहले ही फँस गए थे...पर वे हार मानने वाले नहीं थे... मैं लगातार उनसे फ़ोन पर संपर्क साधने की कोशिश कर रहा था, लेकिन नेटवर्क का साथ नहीं मिल रहा था.. वे सिक्किम चेकपोस्ट पुलिस के राहत अभियान दल के साथ उस जगह पर पहुँचने की जद्दोजेहद कर रहे थे, जहाँ पर हजारों लोग अपने परिवार और बच्चों के साथ फंसे हुए थे..प्रवीण से जब कभी बात हो जाती तो वे कुछ अपडेट करा देते.. दस बजे रात तक किसी तरह प्रवीण सिक्किम चेकपोस्ट पुलिस के जवानों के साथ क्योंग्सला पहुँचने में कामयाब हो गए...वहां पहुंचकर उन्होंने फ़ोन कर गुजारिश भरे स्वर में कहा कि गंगटोक संस्करण अगर आधा घंटा लेट भी होता है तो कोई बात नहीं, इस खबर को पूरा कवरेज मिलना चाहिए...मैंने उनसे कहा कि अगर किसी तरह फोटो का उपाय हो जाता तो लीड तान देते...जबकि उस वक़्त वहां से फोटो भेजना काफी मुश्किल था, क्योंकि जिस जगह पर प्रवीण पहुंचे थे, वहां पर कोई साइबर कैफे या इन्टरनेट व्यवस्था के होने की संभावना न के बराबर थी.. फिर भी प्रवीण ने कहा कि मैं देखता हूँ और पूरी कोशिश करता हूँ फोटो भेजने की.. प्रवीण द्वारा फ़ोन पर दी गयी जानकारी और कंटेंट के आधार पर खबर तो तैयार हो गयी थी, पर फोटो का इन्तजार हो रहा था.. मुझे लग रहा था कि ये नामुमकिन है...मैंने अपने पेज-एक के डिज़ाइनर से कहा कि लेआउट के हिसाब से पेज मेकअप करके फोटो का स्पेस छोड़ कर रखिये..अगर तस्वीर आती है तो ठीक, नहीं तो कोई भी फाइल फोटो लगाकर पेज को विदा कर दिया जाएगा... मैंने तब तक कोलकाता डेस्क को भी ये खबर भेज दी और कहा कि फोटो के लिए धैर्य रखिये...
                 इधर, क्योंग्सला में सिक्किम चेकपोस्ट पुलिस, ट्रेवल एसोसिएशन ऑफ़ सिक्किम और आर्मी ट्रांजिट कैम्प की रेस्क्यू टीम ने टूरिस्टों को रात में ठहराने के लिए युद्ध स्तर पर काम करना शुरू कर दिया...रिपोर्टिंग करने के साथ-साथ प्रवीण भी उस अभियान का हिस्सा बन गए..समय बीता जा रहा था...अखबार का डेडलाइन भी ख़त्म हो चुका था... अंतत: तस्वीर भेजने का सारा उपाय विफल देख मैंने अंतिम बार प्रवीण से अपडेट लेते हुए फाइल फोटो लगाकर फ्रंट पेज को रवाना किया...कोलकाता वालों ने भी वही किया... उधर, प्रवीण रात भर टूरिस्टों को मदद पहुंचाने के लिए भिड़े रहे.. आर्मी के ट्रांजिट कैम्पों में बच्चों और महिलाओं को रखा गया और अन्य लोगों को आसपास के गाँव में स्थित घरों में ठहराया गया.. चार हजार टूरिस्टों के लिए सब कुछ मुहैया करना आसान काम नहीं था, पर जिस तरह से सेना के जवानों ने घनघोर मेहनत कर इस काम को अंजाम दिया, वो अद्भुत था.. प्रवीण रात भर जगे रहे और पूरे रेस्क्यू ऑपरेशन को अपनी आँखों से देखा...उन्होंने हर पल की घटना को कलमबंद किया..
         सुबह होने के बाद राहत अभियान को और तेज किया गया... सड़कों पर फैले मिट्टी और कीचड़ को हटाने के लिए काम शुरू हुआ..करीब 1500  के आसपास गाड़ियां जहाँ-तहां फँसी हुई थी...(सबसे ऊपर की तस्वीर ) ऐसे में ये जरुरी था कि पहले आवागमन को दुरुस्त किया जाए.. दोपहर एक बजे तक जब मलबा हटा तो फिर टूरिस्टों को वहां से निकाला गया... प्रवीण बिना खाए-पिये तब तक वहां मुस्तैदी से डटे रहे... अंत में प्रवीण 4 बजे गंगटोक पहुंचे... उस दिन हमने पूरी खबर का फ़ौलॉप विस्तार से देते हुए अलग से एक फीचर पेज तैयार किया.. प्रवीण की खिची हुई तस्वीर के साथ.... इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस तरह से प्रवीण ने जीवटता का परिचय दिया, वो नायाब था.. अगर वो चाहते तो उस दिन आराम से गंगटोक के अपने विशाल घर में कम्बल तान के सोये रहते, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया......सिलीगुड़ी ऑफिस में जब उनसे मेरी पहली मुलाक़ात हुई थी तो उस भोले और मासूम चेहरे के इंसान को देखकर एकदम अंदाजा ही नहीं हुआ कि इसी शख्स ने तन-मन से पत्रकारिता धर्म का बखूबी निर्वहन किया है.. इसमें भी कोई शक नहीं कि जितने कम शब्दों में मैंने प्रवीण के बारे में लिखा, वो सच में बेहद ही कम है....
         अपने मिरिक रिपोर्टर दीप मिलन प्रधान की चर्चा तो मैं कई बार कर चुका हूँ.. मिरिक और बुन्ग्कुलुंग पर रिपोर्ताज लिखने के समय  मैंने उन्हें करीब से परखा.. वे काफी मेहनती और साफ़ दिल इंसान हैं..मैंने उनके साथ मिरिक और आसपास के कई इलाकों का खूब भ्रमण किया...जब मैं पहली बार उनके गाँव फुबगड़ी गया था तो चाय बागान  के बीच बसे फुबगड़ी बस्ती को देखकर मंत्रमुग्ध हो गया था.. मुख्य सड़क से नीचे की ढलान पर उतरते हुए मैंने करीने से बने छोटे-छोटे मकानों को देखा..कही कोई गंदगी नहीं...  साफ़-साफ़ हरीतिमा...जब मैंने मिरिक पर रिपोर्ताज लिखी थी, तभी मैंने उनसे उनके गाँव आने का वादा किया था..मैंने ये वादा पूरा भी किया...
       मिरिक प्रेस क्लब के सचिव दीप मिलन भी कई मायनों में ख़बरों के पीछे छुपी खबर को बाहर निकालने की कोशिश में लगे रहने वाले पत्रकार हैं...काफी जुनूनी....अब उस रिपोर्ट की चर्चा जिसके लिए दीप ने सिलीगुड़ी से लेकर कोलकाता तक अपने नाम का लोहा मनवाया.... मिरिक से 20 किलोमीटर की दूरी पर बालासन नदी के किनारे लोअर जिम्बा गाँव है... इस गाँव की आबादी बहुत ही कम है और ये काफी पिछड़ा हुआ इलाका है... चारों  तरफ जंगल ही जंगल... घनघोर अभावों में मुश्किल से अपना गुजर-बसर करने वाले मजदूर लकड़ी के घर बनाकर किसी तरह जीवन-यापन करते हैं... सब घर एक दूसरे से काफी अलग-अलग.... शायद 10  या 11 जुलाई का वो दिन था... दीप ने शाम पांच बजे के आसपास मुझे फ़ोन किया और कहा कि आज खबर भेजने में थोड़ी देर हो जायेगी... जैसा होगा, मैं आपको फ़ोन करूँगा... दीप को एक खबर की भनक लग गयी थी....उन्होंने मुझे सिर्फ इतना कहा कि खबर काफी ह्रदय विदारक है, पर मैं लोअर जिम्बा गाँव जाकर ही कुछ बता सकूँगा.. दीप ने बताया कि जब तक खबर की पुष्टि नहीं हो जाती, कुछ भी कहना ठीक नहीं होगा... मैं तब तक समझ नहीं पा रहा था कि आखिर माजरा क्या है ? 
         तीन घंटे के बाद दीप ने मुझे फ़ोन किया और कहा कि मैं अभी जिम्बा गाँव से लौटकर आया हूँ.. मेरे पास उस खबर की तस्वीर भी है... मैंने कहा कि दीप बात क्या है ? उसने कहा कि खबर ये है कि उस गाँव में दोपहर के तीन बजे एक दम्पति अर्जुन तमांग और शोभा तमांग के घर में आग लगने से सात बच्चे जलकर राख..... उन्होंने बताया कि जिस वक़्त ये हादसा हुआ, उस वक़्त घर में बच्चों के अलावा कोई भी नहीं था... उनके माँ-बाप कहीं गाँव से बाहर मजदूरी करने गए हुए थे... दीप ने कहा कि आधे घन्टे में मैं पूरी रिपोर्ट और फोटो भेज रहा हूँ..दीप ने वही किया... आधे घंटे के बाद उन्होंने पूरी खबर और तस्वीर भेजी... मैं तब तक निश्चिंत भाव से अपने काम में लगा हुआ था, पर मेल से तस्वीर डाउनलोड करने के बाद उसे देखते ही मैं सकते में आ गया...मैं अन्दर तक हिल गया ... दीप ने दो तरह की तस्वीर भेजी थी.. सातों बच्चों के जलने के बाद बचे अवशेष.. राख में मिले हुए मासूम हड्डियों के टुकड़े... जबकि दूसरी उनकी वो तस्वीर जो उनके माँ-बाप ने जिन्दा रहते हुए खिंचवाई थी... पता नहीं कैसे दीप को वो तस्वीर कहाँ और कैसे मिल गयी ? जबकि उस अगलगी में सब कुछ स्वाहा हो गया था.... सात बच्चों में सबसे बड़े की उम्र नौ साल, जबकि सबसे छोटे की उम्र मात्र सात महीने....  आम तौर पर इस तरह की ख़बरों को देखने के बाद खुद में संतुलन बनाये रखना काफी मुश्किल होता है..पर मैंने अपने को संभालना भी सीखा था.. मैंने समझा कि चलो इस तरह तो होता ही रहता  है... पर न जाने क्यों बार-बार वो दोनों तस्वीर मेरी आँखों के सामने पलट कर आ जाता.. मैं उस खबर को ठीक कर भी रहा रहा था और अन्दर-अन्दर टूट भी रहा था...सात महीने के उस दूधमुंहे मासूम की तस्वीर पर जाकर मैं ठहर जाता.. कैसे हो गया ये सब ? किसी को कोई मौका नहीं मिला...? क्या वहां कोई भी नहीं था ? काल के इतने क्रूर हाथ ? अंत में मुझसे बर्दाश्त नहीं हो सका ... तब मैंने चुपचाप करीब दस मिनट तक अपने को बाथरूम में बंद कर लिया...
क्रमश:        

30 May 2013

दार्जिलिंग डायरी-3


...अब चौरास्ता की आपाधापी से बाहर निकलते हैं... दार्जिलिंग में कई ऐसी जगह है, जहाँ जाने के बाद आपको कुछ ख़ास व संतोषजनक न लगे..अगर आपने पहले से पता नही किया तो  गाड़ी वाले आपको खूब चकमा देंगे... सेवन पॉइंट घूमाने के नाम पर वे आपसे मनमाने पैसे वसूल लेंगे.. चाय बागान दिखाने के बदले वे ऐसी जगह ले जायेंगे, जहाँ कुछ भी नहीं होता...
     सिंघमारी में रोपवे से घूमना निश्चित तौर पर एक रोमांचक अनुभव का एहसास कराता है.. प्रसिद्ध संत जोसफ स्कूल जहाँ हमेशा हिंदी व बांग्ला फिल्मों की शूटिंग चलती रहती है, के अलावा पद्मजा नायडू जूलोजिकल पार्क, तिब्बती शरणार्थी कैम्प, गोरखा स्टेडियम व बौद्ध मठ, ये कुछ ख़ास जगह है दार्जिलिंग की...
पद्मजा नायडू जूलोजिकल पार्क में पूरी दुनिया से टूरिस्ट आते हैं सिर्फ एक चीज को देखने को, और वो है लुप्तप्राय प्रजाति का  रेड पांडा... रेड पांडा यहाँ के अलावा और कहीं नहीं आपको दिखाई देगा... इसेक साथ ही हिमालयन रेंज के कुछ अति दुर्लभ वन्य प्राणियों को आप यहाँ देख सकते हैं...इस जूलोजिकल पार्क में जीव जंतुओं के साथ पर्वतारोहण से जुड़ा एक संग्रहालय भी है.. यहाँ पर आपको पर्वतारोहण के बारे में बेहद ही दिलचस्प किस्म की जानकारी मिलेगी....इसके अलावा  यहाँ से कुछ दूरी पर सिंगालीला नेशनल पार्क है.....आप वहां भी घूम सकते हैं....टॉय ट्रेन में सफ़र के बिना दार्जिलिंग में सैर-सपाटे की चर्चा हमेशा अधूरी रहेगी..बच्चों का तो ये मनपसंद ड्रीम है ही... इस टॉय ट्रेन के न जाने कितने किस्से फिल्मों और कहानियों में गढ़े गए, पर आज टॉय ट्रेन वाकई टूरिस्टों को उस तरह से सैर करा पाता है ? जवाब होगा - नहीं.... जून 2009 के पहले तो काफी हद तक मामला ठीक ठाक था... तब टॉय ट्रेन न्यू जलपाईगुड़ी से चलकर सिलीगुड़ी जंक्शन, सुकना, रंगतंग, तीनधरिया, गयाबारी, महानदी, कर्सियांग, टंग, सोनादा व घूम होते  हुए दार्जिलिंग पहुँचती थी..मगर चार साल पहले रंगतंग और तीनधरिया के बीच पाग्लाझोड़ा में भारी भूस्खलन होने के कारण लगभग 200 मीटर रेल ट्रैक गहरी घाटी में बैठ गयी.. तब से लेकर अब तक टॉय ट्रेन की सेवा बाधित है.. अब यह ट्रेन सिर्फ सिलीगुड़ी जंक्शन से रंगतंग तक और इधर दार्जिलिंग से कर्सियांग तक जाकर लौट आती है... नॉर्थ फ्रंटियर व   दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे के आलाधिकारी चाहे जितनी कोशिश कर लें, पर करोड़ों खर्च कर भी उक्त जगह पर फिलहाल रेल ट्रैक नहीं बना पायेंगे... हकीकत में पाग्लाझोड़ा की भौगोलिक दशा भूस्खलन से बेहद ही खराब हो गयी है...
           मेरे ख्याल से दार्जिलिंग में अगर सबसे ज्यादा आकर्षित करने वाली कोई जगह है तो वो है टाइगर हिल...सूर्योदय का बिहंगम और रोमांचक नजारा देखने के लिए जिस तरह से देशी-विदेशी पर्यटकों की भीड़ टूटती है, वो काफी अलहदा होता है... इसके साथ ही सूर्य की नवजात किरण जब कंचनजंघा की सफ़ेद संगमरमरी चोटियों पर पड़ती है तो बस सब कुछ खामोश हो जाता है..वो पल थम सा जाता है...  दार्जिलिंग आने के बाद टाइगर हिल या फिर दूर जगहों पर जाने के लिए मैं अपने दो ड्राइवर दोरजी तमांग और रणजीत शर्मा की सेवा लेता था.. दोरजी तमांग मूल रूप से गोरखा है और दार्जिलिंग का ही रहने वाला है .. वह गप करने में खूब माहिर है..उसकी एक खूबी और है.. वह बहुत सुन्दर तरीके से मैथिली भाषा में बातचीत करता है... जबकि रणजीत शर्मा का पुश्तैनी घर बिहार के वैशाली जिले में जन्दाहा के पास है... लेकिन अब वो पूरी तरह से दार्जिलिंग में ही बस गया है ...जहाँ एक तरफ दोरजी तमांग के पास आल्टो कार है, वहीँ दूसरी ओर रणजीत के पास टवेरा है... पर दोनों के ड्राइविंग स्किल्स बेहद ही अलग-अलग है... जब मैं पहली बार दार्जिलिंग गया था तो रणजीत ही मुझे सब जगह ले गए थे. उसी समय से हमारी उनसे जान-पहचान हो गयी थी..बाद के दिनों में भी हम उनकी गाड़ी रिज़र्व कर दूर-दराज आते-जाते रहते..चौक बाजार की भीड़-भाड़ से लेकर दुर्गम घाटियों और खतरनाक सड़कों पर गाड़ी चलाते हुए मैंने रणजीत को काफी करीब से देखा.. मुझे याद आ रहा है कि एक बार जामुने जाने के दौरान किस तरह उन्होंने एक बाइक सवार को बचाया था.. संयोग से हमारी गाड़ी के पीछे कोई गाड़ी नहीं थी, अगर पीछे से जरा सा भी धक्का लग जाता तो हम सब हजारों फीट खाई में डूब जाते... मगर रणजीत की सूझ-बूझ से अनहोनी टल गयी थी..
  नवम्बर के महीने में जब दार्जिलिंग से दूर गोरूबथान नामक एक जगह पर गोरखा जनमुक्ति मोर्चा का वार्षिक सम्मेलन कवर करने के लिए गया था तो रणजीत शर्मा ही वहां ले गए थे.. काफी खतरनाक रास्तों से होते हुए वहां पहुंचे थे.. मुझे थोड़ा डर भी लगा था, जबकि हमारी हालत देखकर रोबिन साहब मुस्कुरा रहे थे. वहीँ रणजीत काफी निश्चिंत होकर इलाके के बारे में बता रहे थे...
         अब जरा दोरजी तमांग की चर्चा हो जाए..वो 4 अगस्त का दिन था और जीटीए का शपथ ग्रहण समारोह कवर करने मैं दार्जिलिंग पहुंचा हुआ था... शपथ ग्रहण समारोह के बाद मैंने 5 अगस्त को रोबिन के साथ अगले दिन टाइगर हिल जाने का प्रोग्राम बनाया.. रणजीत से बात करने पर पता चला कि उसे कुछ विदेशी टूरिस्टों को लेकर अगले दिन गंगटोक जाना है ... ऐसी स्थिति में समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए ? मैंने रणजीत से ही कहा कि कोई ठीक-ठाक ड्राइवर व गाड़ी हो तो बात कीजिये... दो-तीन दिनों से खूब बारिश हो रही थी.. शपथ ग्रहण के बाद  ठीक शाम के वक़्त चौक बाजार में बाटा शोरूम के सामने मैं और रोबिन पकौड़े का आनंद ले रहे थे... तभी रणजीत दोरजी को लेकर मेरे पास आये और बताया कि कल टाइगर हिल जाने का कितना पैसा लोगे ? वे दोनों नेपाली भाषा में बात कर रहे थे.. अंत में मामला 700 में तय हुआ.. जब दोरजी को ये पता लगा कि मेरा घर पटना है तो उसने  कहा कि ओ भाई, मेरे घर के बगल में भी तो एक झा जी रहते हैं, जो बिहार के हैं... उसके बाद तो दोरजी मैथिली में ही बोलने लगा, जबकि मैं टूटी-फूटी ही मैथिली जानता था.. रोबिन साहब ने मुझसे पूछा कि ये कौन सी भाषा है, तब मैंने कहा कि मैथिली एक मीठी मगर दिलफरेब भाषा है... मेरी बात को बिना समझे ही अपनी आदत के मुताबिक़ उन्होंने राईट-राईट कहा... उसी  वक़्त ये तय हुआ कि सुबह  साढ़े तीन बजे  दोरजी  पहले रोबिन  साहब के घर जाएगा,  उसके  बाद वो मेरे  गेस्ट हाउस आएगा ..  हालांकि न चाहते हुए भी  रोबिन साहब मेरी  जिद के कारण साथ चलने को तैयार हो गए थे ..दोरजी ने बताया कि सुबह चार बजे यहाँ से निकलना होगा..और आप अपना फ़ोन नंबर दे दीजिये... मैं सुबह में कॉल कर दूंगा.. मैंने कहा, ठीक है.. थोड़ी देर में रोबिन अपने घर चले गए, और मैं अपने गेस्ट हाउस आ गया..मैंने शपथ ग्रहण समारोह की रिपोर्ट जल्दी से तैयार कर मेल कर दिया..उसके  बाद  रात में फिर एक बार बाहर निकला.  भारी बारिश के कारण पूरा दार्जिलिंग पानी में सराबोर हो गया था... ठण्ड भी काफी बढ़ गयी थी.. ऐसी स्थिति में उससे बचने के लिए मेरे पास सिर्फ एक ही जैकेट था.. मुझे लगा कि इससे तो काम चलेगा नहीं.. दार्जिलिंग में कोई भी मौसम हो, अगर बारिश हो गयी तो ठण्ड का हाल पूछिए मत... गेस्ट हाउस लौटने के बाद मैंने सोचा कि रात में यहाँ तो कोई दिक्कत नहीं है, पर सुबह चार बजे तो ठण्ड से जान ही चली जायेगी..एक मन हुआ कि टाइगर हिल का प्रोग्राम रद्द कर दें, फिर सोचा कि चलो देखते हैं, जो होगा सो होगा... खैर...रात में सोने से पहले मैंने भी अपना अलार्म लगा दिया.. 
        सुबह ठीक चार बजे दोरजी ने मुझे फ़ोन किया... मैंने कहा, कहाँ हो ? दोरजी बोल मैं आपके गेट पर हूँ भाई.. आप बाहर निकालिए... मैंने कहा-रोबिन साहब हैं न गाड़ी में... तो उसने कहा- हाँ जी... वो बैठे हैं गाड़ी में... मैं तब जल्दी से रूम का ताला बंद कर बाहर निकला.. थोड़ी सी बूंदाबांदी हो रही थी.. गेट से बाहर निकल कर गाड़ी के पास पहुंचा तो देखा कि रोबिन साहब एक अजीब रंग के जैकेट में खुद को लपेट-सपेट कर पीछे की सीट
पर बैठे हैं ... उन्हें देखकर मुझे थोड़ी सी हंसी आ गयी...वे कुछ-कुछ भालू की तरह दिख रहे थे.. मैं आगे की सीट पर बैठा... दोरजी ने गाड़ी आगे बढ़ाई... रोबिन से बात करने के लिए मैं पीछे मुड़ा... बंद गाड़ी में कुछ अजीब किस्म की महक तैर रही थी..तो बात समझते देर न लगी.. उन्होंने अपनी दिनचर्या की बोहनी कर दी थी.... मैंने कहा-क्या रोबिन साहब ? अभी इस वक़्त ..... बात आई-गयी हो गयी... दोरजी की सफ़ेद रंग की आल्टो कार कीचड़ और पानी भरे सड़कों पर आगे बढ़ती जा रही थी... दार्जिलिंग रेलवे स्टेशन से आगे बढ़ने के बाद तो गाड़ियों का काफिला देख मैं दंग रह गया... चमचमाती हेडलाइट्स में कुछ अजीब रफ़्तार से गाड़ियां दौड़ रही थी.. बारिश व सड़कों की हालत उतनी ठीक न होते भी सभी गाड़ियां एक दूसरे को पीछे छोड़ती हुई भागी जा रही थी... ऐसे में दोरजी भला कहाँ पीछे रहने वाला था.. ? उसने अपनी आल्टो को ऐसी रफ़्तार दी कि बस..... मैंने दोरजी से कहा कि ऐसा लोग क्यों कर रहे हैं ?  अभी तो बहुत समय है सनराइज में .. दोरजी ने बताया कि बात वो नहीं है... टाइगर हिल में गाड़ियों की पार्किंग बड़ा प्रॉब्लम है जी... अगर आप लौटते हुए फंस गए तो .....दोरजी की बात समझ में नहीं आई... करीब आधे घंटे के बाद घुमावदार चढ़ाई भरे रास्तों से जब टाइगर हिल पहुंचे तो चारों तरफ अँधेरा था और काफी भीड़ लगी हुई थी...दोरजी ने गाड़ी पहले ही रोक ली और कहा कि मैं यहीं पर रहूँगा.....टिकट कटाने के बाद  रोबिन मुझे एक दूसरे रास्ते से ऊपर ले गए...  मुझे अब एहसास हो रहा था कि ठण्ड अन्दर से चुभ रही है... ऊपर जाने के बाद काफी संख्या में विदेशी टूरिस्ट नजर आये... रोबिन साहब ने कहा कि अभी तो बादल नहीं है..पर कोई जरूरी नहीं...कि  सनराइज दिखे... वैसे आज लगता है कि सनराइज दिख जाएगा..
            सारे लोग उस हसीन मंजर का इन्तजार कर रहे थे... मेरी भी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी...सनराइज देखने से पहले ही लोग रोमांच में पागल हुए जा रहे थे.. जैसे-जैसे सनराइज का समय नजदीक आ रहा था, वैसे-वैसे आसमान की रंगत बदल रही थी.. सच कहा जाए तो उस पल का वर्णन नहीं किया जा सकता है... थोड़ी देर में ही सूर्य की मासूम सी किरण पहाड़ों को चूमने लगी... कंचनजंगा की चोटी पर मानो जैसे स्वर्ण कलश बैठा दिया गया हो... जैसे-जैसे रौशनी फ़ैल रही थी, वैसे-वैसे प्रकृति अपना दामन  दूर तक बढ़ा रही थी....एकदम दिलकश..... तब मुझे लगा कि दार्जिलिंग में इससे ज्यादा बढ़िया टूरिस्ट स्पॉट कुछ भी नहीं है.....
            वहां से निकलने के बाद मैं और रोबिन जल्दी से नीचे आये और दोरजी को फ़ोन किया... कुछ ही देर में वह गाड़ी के पास पहुंचा और जल्दी से बैठने को कहा..वह काफी तेजी से गाड़ी चला रहा था... मैंने कहा, दोरजी थोड़ा धीरे चलो... पर वो कहाँ सुनने वाला था ? वो अपनी धुन में था.. रोबिन साहब ने कहा कि जब आप यहाँ आये हैं तो बताशे भी चलिए, उसे देख लीजिये... मुझे उसके बारे में जानकारी थी, पर वहां पहले नहीं गया था. बतासी  यानी टॉय ट्रेन का लूप लाइन सेंटर, एक खूबसूरत पार्क और गोरखा शहीदों का स्मृति स्थल.. वहां पहुँचते ही मैंने देखा कि धूप थोड़ी और खिल गयी है और कंचनजंगा अपने पूरे रंग में है... रोबिन वहीँ पार्क की एक बेंच पर बैठ गए और मैं पार्क के चारों तरफ टहलने लगा.. वहां से दार्जिलिंग का मनमोहक नजारा साफ़-साफ़ दिख रहा था..गनीमत थी कि बारिश बिलकुल ही बंद हो गयी थी, नहीं तो सार जतन बेकार जाता...बहरहाल, बतासी  घूमकर जब वहां से निकले तो चाय स्टाल देख कर रहा नहीं गया...दस रुपए में चाय और बीस में कॉफी... मैंने रोबिन से कहा कि चाय पी लेते हैं... रोबिन ने हामी भरी.. वहां पर काफी भीड़ लगी हुई थी.. दरअसल टाइगर हिल से लौटते हुए लगभग सभी टूरिस्ट बतासी जरूर आते हैं .... चाय की पहली सिप लेते ही मन पूरी तरह कसैला हो गया... मैंने चाय वाले से कहा- ये कौन सी चाय है ? ये तो एक रुपए में भी महँगी है... चाय वाले ने कहा-यहाँ यही मिलेगा ..... समझ गया कि जिसको जहाँ मौका मिलता है ...बस लूट लेता है... मेरे साथ कई और लोग भी उससे उलझ गए... पर वही बेशर्म सा जवाब... तो ये दार्जिलिंग का हाल है...... ?? खैर किसी तरह वहां से छूटने के बाद जब चौक बाजार से थोड़ा पहले गोयनका पेट्रोल पंप के पास पहुंचे तो दोरजी ने वही किया, जिसका मुझे डर था. उसने तेजी से गाड़ी बढ़ाने के चक्कर में एक मारुति वैन को पीछे से धक्का मार ही दिया...मारुति का ड्राइवर भी गोरखा ही था... दोनों आपस में भिड़ गए..पर किसी तरह रोबिन ने मामले को सुलझाया....
   आखिरकार जब हमदोनों गेस्ट हाउस पहुंचे तो ढंग की चाय नसीब हुई...थोड़ी देर की गपशप के  बाद रोबिन साहब अपने घर चले गए.. मैंने दोरजी को पैसे देकर विदा किया और फ्रेश होने चला गया... उसी दिन मुझे सिलीगुड़ी भी लौटना था... 
क्रमश...

              


          


13 May 2013

दार्जिलिंग डायरी - 2

चौरास्ता के मंच पर सफेद जैकेट में गोजमुमो सुप्रीमो विमल गुरुंग, ममता बनर्जी व गौतम देव

चौरास्ता में स्कूली बच्चों का  रंगारंग कार्यक्रम
...चौरास्ता में इसके अलावा भी बहुत कुछ होता रहता है. आप इसे दार्जिलिंग शहर का ह्रदय स्थल कह सकते हैं. यहाँ पर एक बड़ा सा मंच भी बना हुआ है. समूचे दार्जिलिंग की सांस्कृतिक गहमागहमी आपको इसी मंच पर देखने को मिलेगी. हालांकि शहर के गोरखा रंग मंच और जिमखाना क्लब में भी इस तरह के आयोजन होते रहते हैं.. लेकिन ज्यादातर स्कूल-कॉलेजों के साथ-साथ सरकारी विभागों के रंगारंग कार्यक्रमों का आयोजन चौरास्ता के  मंच पर ही होता है. इसके अलावा किसी राजनीतिक पार्टी से जुड़े नेताओं-मंत्रियों का सम्मेलन भी यहीं आकर साकार रूप लेता है.. हालांकि चौरास्ता में हर दिन कुछ न कुछ नाच-तमाशा चलता रहता है. इस लिहाज से भी सुरक्षा का पुख्ता प्रबंध किया जाता है... शहर के अन्य हिस्से की तुलना में चौरास्ता काफी संवेदनशील इलाका माना जाता है... आम दिनों में भी दार्जिलिंग पुलिस की गाड़ियाँ गश्त करती नजर आती है... अब तो जाकर हालात काफी ठीक हो गए हैं.. चौरास्ता में एक नामचीन हस्ती की कांस्य प्रतिमा विराजमान है. नाम है उनका कवि भानुभक्त...ये वही भानुभक्त हैं जिन्होंने संपूर्ण रामायण का नेपाली भाषा में अनुवाद किया और अमर हो गए..
रोबिन साहब के मुताबिक़  2007 के पहले स्थिति काफी बदतर थी, जब हिल में सुभाष घिसिंग का बोलबाला था. हिल की अराजक स्थिति से लोग तंग आ चुके थे. सरकारी पैसे की लूटखसोट अपने चरम पर थी. कही भी एक रत्ती का काम नहीं हो रहा था. जीएनएलऍफ़ में विद्रोह का स्वर गूंजने लगा था.. उसी विद्रोह की चिंगारी से विमल गुरुंग नाम का एक शख्स निकला.. गुरुंग ने मौके की नजाकत को देखते हुए नई पार्टी का एलान कर दिया... गोजमुमो के अस्तित्व में आते ही घिसिंग और दार्जिलिंग गोरखा पार्वत्य परिषद् दुबकते चले गए.... आज हकीकत ये है कि दार्जिलिंग में विमल गुरुंग की मर्जी के बिना कुछ भी नहीं हो सकता.. गुरुंग की लोकप्रियता का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि इन्हें नेपाल के सर्वॊच्च नागरिक सम्मान पुरस्कार से नवाजा जा चुका है. आज मोर्चा सुप्रीमो गुरुंग के सामने भी हर तरह की चुनौतियां है.. गुरुंग की वेशभूषा को देखकर हर कोई यही कहेगा कि ये आदमी फिल्मों में दिखने वाला कोई तानाशाह या सरगना टाइप की चीज है..पर ऐसा है नहीं.. इसमें कोई संदेह नहीं कि गोजमुमो को मुकाम दिलाने में गुरुंग ने खूब मेहनत की  है. पार्टी की केंद्रीय समिति और संगठन में गुरुंग की ही चलती है. गोजमुमो के महासचिव रौशन गिरी की भी चर्चा करना यहाँ जरुरी है.. आप इन्हें गोजमुमो का थिंक टैंक कह सकते हैं. इसके अलावा गोजमुमो का एक स्टडी फोरम भी है, जिसमें कुछ दिग्गज लोग पर्दे के पीछे रणनीति बुनते रहते हैं. इस स्टडी फोरम में आर्मी के सेवानिवृत ऑफिसर व अन्य महारथी शामिल हैं.
पिछले एक साल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने नॉर्थ बंगाल  समेत दार्जिलिंग का १२-१३ बार दौरा किया..  खासकर अगस्त-२०१२ में जीटीए (gorkhaland territorial administration ) बनने के बाद ममता ने इन इलाकों के लिए कई तरह के आर्थिक पैकेज की घोषणा की.. दरअसल मुख्यमंत्री बनने के बाद ही ममता बनर्जी ने गोरखालैंड और नार्थ बंगाल में फिर से उठ रहे राजनीतिक भूचाल को शांत करने के लिए कई अहम् फैसले लिए..
जीटीए बनने से पहले ममता बनर्जी जानती थी कि सालों से की जा रही गोरखालैंड की मांग को लेकर कुछ कूटनीतिक फैसले लेने ही होंगे...वही हुआ भी..
वे जब भी दार्जिलिंग आतीं, उसे कवर करने की जिम्मेवारी मेरे सिर पर होती.. मेरे साथ अक्सर मेरे फोटो जर्नलिस्ट पुलक कर्मकार/अजय साहा होते.. नॉर्थ बंगाल में ममता बनर्जी के एक ख़ास मंत्री हैं ...गौतम देव... नॉर्थ बंगाल उन्नयन विकास मंत्रालय का प्रभार इन्ही के पास है.. मीडिया के भाई-बंधुओं को लाने-लेजाने का पूरा इंतजाम गौतम देव ही करते.. हालांकि हम अपने ऑफिस की व्यवस्था पर ही ज्यादा निर्भर करते, पर ममता के काफिले में हमें भी शामिल होना पड़ता.. दरअसल कोई नहीं जानता कि सिलीगुड़ी से दार्जिलिंग की ओर निकलने के बाद उनका कारकेड कहाँ रूक जाएगा ?... सड़कों के किनारे खड़ी महिलायें, बच्चे ममता की एक झलक पाने को उमड़ पड़ते... ऐसे में निश्चित तौर पर वे गाड़ी से उतर कर सबसे मिलती-जुलती...अगर आसपास उन्हें कोई दुकान दिख गया तो चॉकलेट खरीद कर बच्चों में बांटने से वे अपने को रोक नहीं पातीं.. मैंने उन्हें काफी करीब से देखा है ये सब करते हुए... राजनीतिक ताने-बाने से अलग होकर अपने नाम के हिसाब से वे भीड़ में शामिल हो जातीं और बच्चों को गोद में उठाकर दुलार-प्यार करतीं. तब मैं उनके चेहरे को पढ़ने की कोशिश करता. एक साथ कई रंग उभरते...अग्निकन्या के इस अवतार को देख मैं मुग्ध हो जाता..  उन्होंने कभी भी धूप, बारिश, बेमेल मौसम व  सुरक्षा प्रोटोकॉल की परवाह नहीं की. उनके साथ चलने वाले सुरक्षा दस्ते को सब कुछ संभालने में काफी मशक्कत करनी पड़ती... फिर भी वे निडर, निर्भीक, दिलेर शेरनी की तरह चलती.
उनका रात्रि प्रवास  दार्जिलिंग के रिचमंड होटल में ही होता.. बाकी का कुनबा सर्किट हाउस में टिकता...मीडिया गैलरी में अक्सर उनके भाषण को लेकर पत्रकारों के बीच खूब बहस चलती.. ममता बनर्जी ने कभी भी अपने भाषणों में गोल-मोल या समझौतावादी रूख नहीं अपनाया. उनके भाषणों या घोषणाओं को लेकर अंग्रेजी के कुछ पत्रकार वेदर फोरकास्ट की तरह तरह-तरह के कयास लगाते और अगले ही पल बैकफुट पर आ जाते... दार्जिलिंग के डीएम डॉ. सौमित्र मोहन जो मूल रूप से पटना के ही रहने वाले हैं, वे ममता के ख़ास व पसंदीदा लोगों में से एक माने जाते हैं.. डॉ. मोहन सब चीजों पर बारीकी से नजर रखते... वे डीएम के अलावा जीटीए के मुख्य सचिव भी हैं.. ममता के दार्जिलिंग दौरे पर आते ही हिल की राजनीति में सरगर्मी आ जाती व गोरखालैंड की आवाज उठने लगती..जबकि हर कोई ये जानता था कि जीटीए बनने के बाद ये फिलहाल सम्भव नहीं है.. मगर विरोधी दल गोजमुमो पर दबाव बनाने से बाज नहीं आते.. खैर..
चौरास्ता के मंच से ममता बनर्जी जब अपना भाषण शुरू करतीं तो अपने अंदाज में लहराते हुए सब कुछ कह जातीं. मिली-जुली हिंदी और बांगला में उनका संबोधन काफी धाराप्रवाह होता..एक दिलचस्प घटना का जिक्र करना चाहूँगा..अभी जनवरी 2013 में जब वे दार्जिलिंग दौरे पर आयीं थी तो चौरास्ता के मंच पर उनका भाषण हो रहा था. मैं मंच के ठीक सामने एसबीआई एटीएम के पास खड़ा था.. जबकि मेरे फोटो जर्नलिस्ट मंच के पास खड़े थे..काफी भीड़ थी और तिल रखने की भी जगह नहीं थी. मंच पर तृणमूल कांग्रेस समेत गोजमुमो के कई नेता भी मौजूद थे. इसके साथ ही विमल गुरुंग भी ठीक ममता के पास ही बैठे थे. ममता के भाषण के दौरान ही मोर्चा कार्यकर्ताओं ने वी वांट गोरखालैंड का नारा लगाना शुरू कर दिया..थोड़ी देर देखने-सुनने  के बाद ममता बनर्जी ने मंच से ही सभी को डपटते हुए कहा कि- तुम सब शांत हो जाओ... ये तुम्हारी पार्टी का कार्यक्रम नहीं है, जो इतना शोर मचा रहे हो... बंग भंग होबे ना..मतलब होबे ना ....ममता के इतना दहाड़ते ही पूरी भीड़ को सांप सूंघ गया.. इसके बाद ममता ने डॉ. सौमित्र मोहन को बुलाकर कुछ कहा और तुरंत ही मंच से उतर गयीं.. किसी को कुछ समझ में नहीं आया कि आखिर मुख्यमंत्री को क्या हो गया ? भीड़ अस्तव्यस्त हो गयी और शोरगुल मचने लगा. काफी मुश्किल से विमल गुरुंग ने लोगों को शांत कराया. किसी तरह मैंने सौमित्र मोहन से पूछा तो उन्होंने बताया कि मैडम कालिम्पोंग के लिए निकल रही हैं... अब यहाँ नहीं रुकेंगी.. और दस मिनट में उनका कारकेड कालिम्पोंग के लिए निकल गया..उनके इस कदम पर गोजमुमो और तमाम विपक्षी पार्टियों ने पानी पी-पी कर उन्हें कोसना शुरू कर दिया...अखबारों और टीवी चैनलों में उक्त फुटेज और बाईट दिखाकर उनकी खूब आलोचना की गयी.. सबको एक मौका मिल गया था. जबकि ममता ने कालिम्पोंग पहुंचकर कई गुम्पाओं (बौद्ध मठ) के दर्शन किये और अगले दिन कोलकाता के लिए रवाना हो गयीं...इस दौरान उन्होंने एक शब्द का भी बयान नहीं दिया..
इसके पहले  नवम्बर के महीने में जब वे कालिम्पोंग दौरे पर आयीं थी तो मुझे उनका एक और रूप देखने को मिला था. वे कालिम्पोंग के डेलो गेस्ट हाउस में रुकी थीं.. मैं अपने कालिम्पोंग रिपोर्टर मुकेश शर्मा के साथ डेलो गेस्ट हाउस के बाहर ही घूम रहा था. हमारे साथ कई और भाई-बन्धु भी थे. मुख्यमंत्री दिन भर अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ बैठक में व्यस्त रही थीं. शाम होने के बाद ठंडक बढ़ते ही सबकी हालत ख़राब होने लगी थी. गेस्ट हाउस में ही कुछ पार्टी नेताओं द्वारा ममता के लिए लॉन में पारंपरिक नृत्य कार्यक्रम का आयोजन किया गया था.. हम सब थोड़ी दूर पर खड़े होकर गपशप कर रहे थे. दरअसल तयशुदा कार्यक्रम के मुताबिक़ वे प्रेस को ब्रीफ करने वाली थीं.. अन्दर से जानकारी ये मिल रही थी कि काफी वर्षों से लंबित लेप्चा डेवलपमेंट काउन्सिल के गठन को लेकर कुछ अहम् घोषणा करने वाली हैं... हम सब उसी का इन्तजार कर रहे थे, जबकि लेप्चा व तिब्बती महिला कलाकारों का डांस शुरू हो चुका था.. दो-तीन मिनट के अन्दर ही ममता गले में शॉल लपेटे और हाथों में ऐपल का टेबलेट लेकर बाहर निकलीं. बिना किसी से बात किये हुए वे डांस कर रही लड़कियों की टेबलेट से तस्वीर उतारने में मशगूल हो गयीं..मैंने देखा कि काफी ठण्ड होने के बाद भी उस वक़्त उनके पैरों में सिर्फ हवाई चप्पल ही था.. ठीक अपनी आदत के मुताबिक़.... काफी देर तक हम सब इसी मंजर को देखते रहे... कभी वे डांस करती लड़कियों के घेरे के बीच पहुँच जातीं तो कभी गेस्ट हाउस की सीढ़ियों पर बैठ जातीं.. पर उनका टेबलेट हमेशा ऑन रहा...इस दौरान वे काफी आत्मीय और निश्चल मुस्कान के साथ सभी से पेश आयीं.  आखिरकार उन्होंने प्रेस को ब्रीफ नहीं किया... जानकारी मिली कि अब वो सुबह में बात करेंगी..अगले दिन उन्होंने सुबह 9 बजे प्रेस को ब्रीफ किया और लेप्चा संगठनों के नेताओं के बीच कहा कि अगले  कैबिनेट की बैठक में लेप्चा डेवलपमेंट काउन्सिल के गठन के लिए प्रस्ताव लाया जाएगा. हिल की राजनीति में ये एक महत्वपूर्ण खबर थी, जिसका सभी को इन्तजार था..थोड़ी देर पार्टी नेता व अन्य स्थानीय संगठनों के प्रतिनिधियों से मिलने के बाद उनका कारवां सिलीगुड़ी के लिए रवाना हो गया.. हम सब भी उनके पीछे-पीछे आ रहे थे...तीस्ता नदी का मनोहारी और भव्य नजारा दिखने लगा था.. तीस्ता अपने खतरनाक तेवर के साथ प्रवाहित हो रही थी... रानीपुल से थोड़ा आगे बढ़ने के बाद एक बार फिर उनका काफिला रुका.. सब लोग हैरत में कि अब क्या हो गया ? हम सब भी अपनी गाड़ी से उतर कर थोड़ा आगे बढ़े और जो नजारा दिखा, वो काफी हैरतंगेज था. एक बार फिर मैडम अग्निकन्या अपने टेबलेट के खिलौने के साथ तीस्ता को कैद करने में मशरूफ दिखीं... अलग-अलग कोणों से उन्होंने खूब तस्वीर उतारी... जबकि कुछ टीवी चैनल के कैमरामैन उनके इस प्रकृति प्रेम को अपने कैमरे में कैद करते दिखे.. वहीँ तमाम सुरक्षा ऑफिसर आसपास मुस्तैदी से डटे रहे... करीब 15 मिनट तक उन्होंने तीस्ता की मचलती अदाओं को अपने टेबलेट में समेटा और वहां से विदा हो गयीं......
            क्रमश ....

30 April 2013

दार्जिलिंग डायरी-1


4 मार्च 2012 की रात को जब कोलकाता के धर्मतल्ला बस स्टैंड से सिलीगुड़ी के लिए रवाना हुआ था तो मन कुछ अजीब उधेड़बुन में घिरा था. तबादले का आदेश तो एक सप्ताह पहले ही मिल गया था. मुझे नयी जिम्मेवारी के साथ सिलीगुड़ी भेजा जा रहा था. 5 मार्च की सुबह 9 बजे  वॉल्वो बस से 500 किलोमीटर की थका देने वाली यात्रा कर जब सिलीगुड़ी के तेनजिंग नोर्गे बस टर्मिनल पहुंचा तो सब कुछ नया-नया सा था ...मौसम ...चेहरे ...सड़कें और भीड़ ...कहाँ एक तरफ कोलकाता की गहमागहमी और कहाँ दूसरी तरफ सिलीगुड़ी का सीमित कोलाहल... काफी सुना था इस शहर के बारे में ... पहली नजर में ये एहसास हुआ कि आखिर लोग यहाँ के मौसम की तारीफ़ क्यों करते हैं .. बस से उतरते ही नर्म  धूप का स्पर्श मन को आनंदित कर गया... मै अपनी पूरी टीम के साथ था..नए शहर में नयी कर्म यात्रा शुरू हुई.. जिसमे कई चुनौतियां थी.. कई ऐसे इलाके थे..जो मेरे लिए पूरी तरह अनोखा व अनजान था..अलग-अलग मन मिजाज के लोग... धीरे-धीरे हम सब में शामिल होते गए.. 

दार्जिलिंग...जुबान पर नाम आते ही चाय की मदहोशी व न कितने रंग आँखों में तिरने लगते हैं.  सिलीगुड़ी आने से पहले मैंने इसे सिर्फ फिल्मों और समाचारों में देखा था.. जरा याद कीजिये गुलजार की फिल्म मौसम को, जिसमें अमरनाथ गिल यानी संजीव कुमार व चन्दा मतलब शर्मिला टैगोर की कालजयी अभिनय यात्रा को आपने देखा होगा... कमलेश्वर की लिखी कहानी पर गुलजार साहब ने मौसम में कोलकाता से लेकर दार्जिलिंग तक अपना कौशल दिखाया.. आपको जानकर हैरत होगी कि फिल्म की काफी शूटिंग इंडोर में हुई है ...इसके बावजूद गुलजार भूपिंदर द्वारा गाये गीत.. दिल ढूँढता है के साथ  संजीव कुमार को दार्जिलिंग में भटकाते रहे ...संजीव हर किसी से चन्दा का पता पूछते और मायूस हो जाते ... दार्जिलिंग के अपर बाजार की सीढ़ियों पर से शुरू हुई कहानी कही और खत्म हो गयी.. दार्जिलिंग फिल्म मौसम को यादगार बना गया...मगर अब अपर बाजार की सीढ़ियाँ कहाँ और किस हालत में है ? दार्जिलिंग की चर्चा में  फिल्म आराधना का जिक्र न हो, ये न्यायसंगत नहीं होगा... एक ऐसी फिल्म जिसने पहली बार दार्जिलिंग व टॉय ट्रेन को दुनिया के नक़्शे पर उतारा.. टॉय ट्रेन में बैठी शर्मिला टैगोर को सदाबहार गीत सुनाते राजेश खन्ना इतिहास रच गए ..और टॉय ट्रेन को अमर कर दिया... आज टॉय ट्रेन किस जगह पर पटरी से उतर गयी है.. ?   कुछ और फिल्मों में इस शहर का अक्स उभरा .... फ़िल्में बॉक्स ऑफिस पर हिसाब-किताब करती रही और दार्जिलिंग वहीँ रह गया..दार्जिलिंग की चाय के क्या कहने .. इसकी चर्चा देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में है.. चाय के मुरीद किस्म-किस्म की बात कहकर इसकी तारीफ़ किया करते हैं, पर अभी इस इलाके के चाय बागानों की दशा क्या है, ये बहुत कम लोग जानते हैं ... बागानों में काम करने वाले मजदूरों, लड़कियों व महिलाओं को क्या-क्या झेलना पड़ता है, ये भी एक अनजान तथ्य है.. दार्जिलिंग यहाँ भी सबसे पीछे की कतारों में खड़ा है ....गर्मी के दिनों में घनघोर पानी का संकट झेलते दार्जिलिंग में लकड़ी के बने मकान कब आग की भेंट चढ़ जाए, कोई नहीं बता सकता...
ये बड़ा मुश्किल है कि दार्जिलिंग पर क्या लिखा जाए ? ..हमने थोड़ी कोशिश की है ..मै पूरी कोशिश करूँगा आपसे सब कुछ बांटने की... सिलीगुड़ी में रहते हुए  पिछले 13 महीने के दौरान लगभग 24-25 बार दार्जिलिंग आना-जाना हुआ. हर बार एक नयी तस्वीर नजर आई.. बाहर की दुनिया में सुन्दर तस्वीरों में झांकता ये हिल का इलाका अन्दर में काफी गुबार समेटे बैठा है .. हर मौसम में दार्जिलिंग की अलग कहानी.. अलग दर्द  मैंने काफी करीब से महसूस किया कि जितना यहाँ घूमने में आनंद नहीं है , उससे ज्यादा मजा यहाँ पहुंचने की यात्रा में है.. घुमावदार सड़कों पर कसरत करती गाड़ियां और आसपास दिखती पहाड़ों पर हरियाली... अगर आपका ड्राइवर जोशीला हुआ तो दिल थाम ही लीजिये...सच कहा जाए तो हिल का ये पूरा इलाका कुदरत की बेशुमार सुन्दरता में डूबा हुआ है.. सिर्फ एक बात की कसक रह जाती है कि बदलते पाखंडी राजनीतिक घटनाक्रमों के कारण ये शहर काफी पीछे चला गया है..गोरखालैंड आन्दोलन को लेकर यह केंद्र व राज्य सरकार की दोरंगी नीतियों का शिकार होता रहा है.. अलग राज्य व अस्मिता की लड़ाई लड़ते भोले-भाले गोरखा व भारतीय मूल के नेपाली लोग सालों से तमाशा देखते आ रहे हैं ...और उम्मीद लगाए बैठे हैं कि शायद इस बार कुछ न कुछ होगा ? मगर सब व्यर्थ ..
दार्जिलिंग की अब तक की यात्रा में मैंने लगभग यहाँ चप्पे-चप्पे को देखा.. लोगों के चेहरे भी देखे और आदतें भी..उतार-चढ़ाव भरा जीवन देखा और गरीबी-लाचारी को झेलते सपनों को भी...मै अक्सर अपने दार्जिलिंग रिपोर्टर रोबिन गिरी से हिल के बुनियादी मसलों पर बातचीत करता...वे मुझे हरसंभव जानकारी उपलब्ध कराते..शाम को जब रोबिन अपनी न्यूज़ भेजते तो उसके बाद एक बार फ़ोन पर जरुर बात होती..मै हमेशा उनसे एक बार मौसम के बारे में जरूर पूछता... दरअसल हिल में मौसम की तबीयत हर दिन अलग से एक खबर होती है...खासकर उन टूरिस्टों के लिए जो ऑफ सीजन में आते रहते हैं..रोबिन गिरी की बात चल गयी है तो उनके बारे में बता ही दूं ...मूल रूप से अंग्रेजी अखबार द टेलीग्राफ के लिए काम करने वाले रोबिन दार्जिलिंग के एक अच्छे पत्रकार हैं.. पर उनकी हिंदी बेहद ही कामचलाऊ है. राजनीतिक गलियारे में उनकी काफी गहरी पैठ है.. मै जिस अखबार में हूँ, उसके लिए भी वे काम करते है.गोरखालैंड की राजनीति को उन्होंने काफी करीब से देखा है. जीएनएलऍफ़ सुप्रीमो सुभाष घिसिंग से लेकर गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के मुखिया व जीटीए के चेयरमैन विमल गुरूंग व उनकी पत्नी और नारी मोर्चा की सर्वेसर्वा आशा गुरूंग, अखिल भारतीय गोरखा लीग की अध्यक्ष भारती तामांग व उनके शहीद पति मदन तामांग और कुछ अन्य नामी-गिरामी लोगों की चरित्र कुंडली को रोबिन अच्छी तरह जानते हैं..रोबिन साहब का दार्जीलिंग में अपना मकान भी है. काफी साल पहले उसी मकान में एक हिंदी फिल्म की शूटिंग हुई थी.. पर इसकी चर्चा आगे करूँगा.. क्योंकि उस चर्चा में एक फिल्म और शामिल होगी.. अनुराग बासु की बर्फी .. उस चर्चा में बर्फी के सिनेमेटोग्राफर रवि बर्मन, कोलकाता में मेरे लेंसमैन अजय बोस, सिलीगुड़ी में मेरे अजीज फोटो जर्नलिस्ट पुलक कर्मकार व नाजुक अभिनेत्री इलियाना डिक्रुज भी शामिल होंगी ....फिलवक्त रोबिन साहब के बारे में ...
रोबिन साहब के साथ एक बुनियादी और सनातन दिक्कत है.. उनसे जब भी फ़ोन पर बात होती तो वे हर बार राईट-राईट.. कह कर अपनी बात खत्म करते...ख़बरों को लेकर हिंदी के कुछ शब्दों का वे अर्थ से अनर्थ कर बैठते और मै सिर पीट लेता.. अगर शाम 6 बजे के बाद उनसे बात होती तो वे राईट-राईट कहते-कहते इस कदर रॉंग हो जाते कि ..बस मै ही हाथ जोड़ लेता...इन तमाम दिक्कतों के बाद भी रोबिन एक नेकदिल इंसान हैं ...इसमें कोई शक नहीं..हमने उनके साथ दार्जिलिंग की खूब ख़ाक छानी है.. रिपोर्टिंग के दौरान हमलोग पैदल ही घूमते..चौक बाजार की ठसाठस भीड़ और वहाँ से अपर बाजार व चौरास्ता की तरफ जाने के लिए बनी सीढ़ियों पर कई बार आना-जाना होता..चौक बाजार से नीचे की तरफ स्थित जिस गेस्ट हॉउस में मै ठहरता, वहाँ से चौरास्ता जाने में सिर्फ 10 मिनट लगते.. रोबिन कई ऐसे रास्ते जानते थे जो एकदम पतली गलियों से होकर गुजरते थे.. उन सड़कों और गलियों के दोनों तरफ सिर्फ दुकान और दुकान.. अपने काम से निपट कर अक्सर शाम के वक़्त हम दोनों चौरास्ता में आकर अपनी थकान मिटाते.. रोबिन कॉफ़ी पसंद  करते, जबकि मै चाय... गपशप शुरू होता..रोबिन हर हाल में 6 बजे से पहले जाने की जिद करते... मै उनसे कभी-कभी कहता- आप अगर आज नहीं पियेंगे तो कोई परेशानी तो नहीं होगी.. वे हँसते हुए जवाब देते- वो बात नहीं है.. मुझे रिपोर्ट भी तो भेजनी है... चौरास्ता की चहल-पहल को देखकर मन में अजीब ख्याल आते.. निडर कबूतरों का जमघट नाच-नाच कर आता और दाना चुग कर चला जाता.. बेंचों पर बैठे हर उम्र वर्ग के लोग अपनी धुन में रमे रहते... कुछ बच्चे घुड़सवारी का आनंद उठाते और उनके मम्मी-पापा उसे देखकर सुकून और हर्ष की मुस्कान बिखेरते... टूरिस्टों की भीड़ वहीँ उमड़ती... थके-मांदे लोग आते और दार्जिलिंग की वादियों को निहारते...जबकि कुछ लोग राजभवन की तरफ जानेवाली सड़कों पर टहलने में मशगूल हो जाते .....आज भी ऐसा ही होता है ...                                                                          क्रमश ....

13 April 2013

क्यों न हम ...

आतुरता को रौंदती है
प्रतिध्वनि की प्रतीक्षा ..
कोशिश को तोड़ती है
अघोषित प्रतिकार ..
मौत की ओर भागते
बेचैन पर्वतों को
मटियामेट करते हैं
जीवन की दुर्गम लालसाएं ...
अनगढ़ बोझ को
ओढ़ते-बिछाते
तुम्हारे हिस्से का
पराजित कोना
कब से धूल-धूसरित पड़ा है...
हमें मालूम है
सभ्यता के बाजार में
पागलपन की नीलामी
चलती ही रहेगी....
समवेत साँसों को 
अनुर्वर मिट्टी में
थरथराते मुस्कुराहटों की
प्रतीक्षा बोते
तुम्हारे हिस्से का
अनचीन्हा आदमी...
मेरे नहीं होने का
इतिहास गिरवी रख देगा ...
..तो बिना शोर-शर्त के  
क्यों न हम सब जी लें
एक-दूसरे का शोक गीत...
क्यों न हम सब मिटा दें
एक दूसरे का पश्चाताप ...
क्यों न हम सब पा लें
एक दूसरे का सानिध्य ...
उसी अनुर्वर मिट्टी में.






08 April 2013

हम कुछ रात चलते हैं ...

अदना तमाशा बनकर
जिद्दी शोर में गलकर
न जाने ..कैसे ?
अकेले अजनबी शब्द बनते हैं
हम कुछ रात चलते हैं ........

सलीकों का ताप बुन कर
धधके रूह की खुशबू चुनकर
न जाने ..कैसे ?
मुमकिन मुस्कान बदलते हैं
हम कुछ रात चलते हैं ........
 
हौसला कहाँ संभलता है 
बुझा सैलाब कब सुलगता है
न जाने .. कैसे ?
स्वप्न सुख की शक्लों में ढलते हैं
हम कुछ रात चलते हैं ........

निष्पाप आंसुओं का आलिंगन
अल्हड़ सा गुनगुना चुम्बन
न जाने .. कैसे ?
वो हालात पल-पल मचलते हैं 
हम कुछ रात चलते हैं ........

20 March 2013

मेरे पी के देश जाना...

ओ रे बेदर्दी रंग
नाज मत दिखाना
कहीं और नहीं जाना
बस..पी के देश जाना
जलते मेरे मन का
आगोश लेकर आना........
जाना तो ऐसे जाना
सितारों को लेकर जाना
यूं ही न बिखर जाना
गुलाबी बांहों का
स्पर्श तुम सजाना
और ..जलते मेरे मन का
आगोश लेकर आना.........
जब पास तुम जाना
..तो चुपके से जाना
उनींदे पत्थरों का
लम्हात न सुनाना
कुछ सोंधी बर्तनों का
तन्हा जिस्म गुनगुनाना
और ..जलते मेरे मन का
आगोश लेकर आना.........
बहकी-सहकी बातों का
कोई किस्सा न फ़साना
दबी सी घुंघरुओं को
तारों सा यूं टिमटिमाना
बेतरतीब मिन्नतों सा
तुम उन पर बिखर जाना
और ..जलते मेरे मन का
आगोश लेकर आना.........
ओ रे बेदर्दी रंग
कहीं और नहीं जाना
बस.. मेरे पी के देश जाना...
 

जो बच सका ...


जरा ठहर जाओ संवाद 
तुम्हे लिखते हुए
जैसे..जीने की
जिद करते हुए
पवन कम्पन की तरह
अमृत बूंदों का
मौन स्वर सौंप
आहटों के बिना
दिन-रात को
सीने में साटते
भावों के बहते पुकार
क्यों उग आते हैं ? ..
सांझे आसमान पर
दौड़ती हुई स्पर्श ध्वनि
टकराती..खिलखिलाती
मेरे कन्धे से लगकर
किसी रूह की कामनाएं
दिव्य जादुई स्वर की
करूण पुकार सुन
शून्य आकाश तले
क्यों बहके क़दमों को
रोक लेते हैं ?
जरा ठहर जाओ संवाद
क्षण दर क्षण
गुजरते उम्र का एक पूरा दिन ..
वहशी बदरंग दुनिया से
बाहर खींच लाती है
न जाने कैसे.. हरदम ...
जीने की जिद करते हुए
भावों के बहते पुकार
क्यों उग आते हैं ?...
जरा ठहर जाओ संवाद
 

चटके चिनार
नर्म-नाजुक सी
बहकी बयारों में
दुःख बटोरती
दुबकी कविताओं के दर्द ..
कच्चे रेशम सी
फूटती फहराती
 लिपटी लहराती
नादाँ मिजाज के दर्द ..
टूटते सितारों की आहों में
परखच्चे-पसरे
ख्वाब के टुकड़ों के दर्द ...
भरे-पूरे दरिया के अधरों में
तिनके सा
हलचल छिपाते
अरमानों के दर्द ...
चटके चिनार की
दरख्तों में
मुद्दत की खुशबू ओढ़े
दम घुटती रातों के दर्द ...
पत्थर युग में
पतझड़ की तह सी
गिरती-बिछती
घर की दरों दीवार के दर्द ...
शबनमी शोकगीत
चुराते हुए
छुई-मुई जिस्मों में
वणजारे बसंत की
आहट के दर्द ...  

सच ... 
अजीब पत्ता है मन
आवेगों-संवेगों से
प्रारब्ध की शाखों पर
डोलता..उधम मचाता
सहमी हवाओं के
सूखे एहसासों को
अनगिन अँधेरे से
बाहर निकालता है
सच...कोई तो है
बिना कुछ कहे ..
जो ले जाता है
जीवन की ओर..................
हाथों की रेखाओं सी है
पत्तों की फितरत
एक-दूसरे को
काटती
पार करती है..हमेशा
मेरे भीतर ही
चकित है
मेरी फितरत
अजीबोगरीब है
पवित्र नेह की प्रतिध्वनि
अदम्य आह्लाद से सराबोर
करता है प्रवेश
 दर्द की दबी
शब्द यात्राओं को
थपकियाँ देता है ..
सच...कोई तो है
बिना कुछ कहे ..
जो ले जाता है
जीवन की ओर..................
पत्तों के इर्द-गिर्द
अल्हड़ भंवर की
सिर धुनती फितरत
फिर से चकित है..
पत्तों के पास
कोई इतिहास नहीं
पत्तों के पास
कोई सियासत नहीं ... 
 
मुझे रात तक 
भीतर कोई आईना है
हर दिन संवरता है
टूटता है.. बिखरता है ..
चेहरे बदल जाते हैं अचानक
अपने स्वभाव के साथ
 उजाले थककर
स्याह हो जाते हैं तब ..
अंधेरों की
हिफाजत के लिए
दिन का सूरज
मुझे रात तक
संभाल कर
रखना पड़ता है
हाँ .. भीतर कोई आईना है....
स्त्री जब भी रोती है
समय की आँखों से
टपकती है व्यथा
आद्रता के सागर में ...
तुम अपने होने की
जब भी कथा लिखते हो
अपने हिस्से रौशनी व
स्त्री के हिस्से में
धुएं की लकीरें
लिखते हो
दरअसल ..
भीतर जो आईना है
वह हर दिन संवरता है
टूटता है.. बिखरता है
भ्रम की
भीजती सांझ में
अपने को कब तक
अनचाहा करते रहोगे ?
अपने लिबास को
कब तक
खारिज करते रहोगे
तुम बेशक
धूप लिखते रहो
छाया बनेगी स्त्री
तुम बेशक
फूल गढ़ते रहो
खुशबू बनेगी स्त्री...

एकमेक किस्से की 
सीधे-सादे कागजों पर
एकमेक किस्से की
कोरी स्याही लिखकर
हम स्वप्न हो जाना चाहते हैं ...
तुमसे संदर्भित
तुमसे उच्चारित
तल्खियों की
हम ताबीर हो जाना चाहते हैं ...
 तेरे अधरों से
 लिपटी लताओं में
शून्य की स्मृतियों सा
हम विस्मृत हो जाना चाहते हैं ...
धरती को
अपलक चूमते हुए
पाखी की तरह
हम पहाड़ हो जाना चाहते हैं ...
नदी के ह्रदय पर
दहकती हद से अलग
दोनों तीरों में
हम बेहद हो जाना चाहते हैं ...


कितना सा बेवजह है ...
मन के दरम्यान
जिन्दा होते रश्मोरिवाज
साये से जुदा
बंद खिड़कियों में
जब ठहर जाती है..
कहानियाँ
जो लकीर खींच रखी है ....
बेकार.. बेसबब
जानता हूँ
मेरा होना..न होना
अब है भी नहीं..
जब चुभती है सहजता....
कितना सा बेवजह है ...
रातों की रुदाद
जो शाम डूब जाती है ऐसे ही..
जानता हूँ
मेरा होना..न होना
अब है भी नहीं..
जब चुभती है बारिश की शिद्दत ?
पलकों पे उतरती
धूप के होठों पर
छिपी तहरीर के साथ ..
जो शाम
डूब जाती है ऐसे ही..
जानता हूँ
मेरा होना..न होना
अब है भी नहीं..
जब टूटती है..
अकेली नज्म
ओस से तर लय
अधूरे शब्दों के बीच..
जो शाम डूब जाती है
ऐसे ही..
जानता हूँ
मेरा होना..न होना
अब है भी नही... 

जैसे.. फासले से
हारे हुए ख्वाब की
प्रतिध्वनि के बीच
तुम आते हो जब...
खसलत की बेदिली में
गल्प का अम्बार लिए
अश्कों की कतारों में
लिख जाते हो
मेरा आदिम सच ?
खुली हवा के
बंधे पांव से पूछो
 कब घूमना हुआ ?
हम दोनों के परिमोक्ष के साथ
तुम आते हो जब...
 पोर-पोर में रचे
ऐतबार के साथ
छोड़ जाते हो
अपनी असीमता ?
 फिजाओं में बहकते
शुष्क सन्नाटों के बीच
अनछुए पल वापस करने को
तुम आते हो जब..
बंद दरवाजों की
सांकल बजाते
अपने-पराये की
तर्क-समीक्षाओं से
अलग-थलग
तब सहेजकर
रखी जाती है यातनाएं
जैसे ..करीने से
रखा जाता है स्पर्श
जैसे.. फासले से
रखी जाती है आग
जैसे.. सुकून से
रखा जाता है शोर ... 

अलविदा कहना होगा..
धमाधम रौशनी
बरसती है
मेरे शहर के सीने पर
उफनाई..पगलाई
रात का जिस्म
यायावर सा झूमता-गिरता
सब कुछ समेटने की
जिद में है....
उस अहमक रात का
जिस्म किसका है ?
मुझे समझना होगा.....
कभी गलियों में
देहरी-आँगन में
मंद लौ की बाती
थरथराती लालटेन
थिरकती थी...
हम सब आह्लादित
 दुःख-सुख की
परछाइयों के साथ
जय-विजय की
संधियों में नहाते थे..
अब पहाड़ जैसी
 ठंडी.. अवसाद भरी
कहानियों को
छोड़ना होगा अपनी मुट्ठियों से..
मुझे समझना होगा
फिर से...
कुछ संबंधों को
धमाधम रोशनियों को
अलविदा कहना होगा..

कैसे शिनाख्त करोगे ?
मायावी खबर की
सलोनी सूरत पर
चिपका है
दम हारती
जिन्दगी का नक्शा......
घुप अंधेरों की दीवार में
इश्तिहार बनकर
तड़पती विपदाओं का संजाल
जहाँ...दुःख का गला
रेत रही है भूख......
पारदर्शी आंकड़ों की
काल कोठरी में डूबी है
 गुलाब की लपटें
भस्म होती
रूमानियत की महक......
बेहद-बेहद
सहज चेहरों का
क्रूर बाजार
रस-रंग मंचित
कोलाहल में
कामयाब होती देह गंध
तुम सब्जबाग के फर्क को
कैसे शिनाख्त करोगे ?

अतिरेक बहता
अवश परिंदों की
चटक घाम होती
झिलमिल चिराग की बातें
जो तुम कहती हो....
मेरे भीतर
अपना संकल्प
घोर शालीनता से
जहाँ नहीं है
अतिरेक बहता निर्जन पानी
जलते रंगों का
नमकीन स्वाद
जो तुम कहती हो....
जिस्म से उतरती
रूह तक दौड़ती-भागती
अदम्य यात्रा कथाएँ
समंदर बहता रहता है...
कांच की डोर में
दोनों के बीच भी
और समानांतर भी
यह भी होता है कि
उड़ान भरता खाली सा
दोनों का संकल्प
जो तुम कहती हो....
निर्वासित अधरों का
भींगा द्वन्द
अतिरेक बहता निर्जन पानी
यह जो हम हैं
भीतर में
जलते एहसासों के बीच
मिलता.. मन का नमकीन स्वाद
समंदर बहता रहता है...
अधूरे अक्षरों में
नहीं डूबेगा मन
मौत के हिस्से में
बराबर बंटकर भी...

ऐसा ही होता होगा 
तारे टूटते होंगे
 रंग चटकता होगा
सपने बस रह जाते होंगे
ऐसा ही होता होगा ..................
मदहोश नींदें आती होंगी
रात मुस्कुराती होगी
पतझर बरसता होगा
ऐसा ही होता होगा .................
खिड़कियाँ खुलती होंगी
ज्वार फैलता होगा
निर्भय इच्छा जागती होंगी
हवा में सन्देश घुलता
होगा ऐसा ही होता होगा....................
तसल्ली खनकती होगी
राख के फूल झरते होंगे
चाँद पलकों से उतरता होगा
भोर थक जाते होंगे
ऐसा ही होता होगा....................
बेतरतीब कोई आता होगा
सन्नाटे उग आते होंगे
धूप..हवा..पानी के बीच
माँ का चेहरा भी भींगता होगा
ऐसा ही होता होगा .............. 

जख्म दर जख्म ..
हंसी के महामिलन में
अबोध आलिंगन का उत्ताप
जख्म दर जख्म ..
मेरे पांव सजते हैं
तुम्हारी अंतरंगता में.....
विवश विलाप के
मादक उत्सव का
दावानल फैल रहा है...
सच ये भी कि ...
यज्ञ की परिधि में
अग्नि मन्त्रों का
उन्माद उच्चारित करती हुई मै...
जख्म दर जख्म ..
अपलक बहना चाहती हूँ.
सच तो है कि...
 फैलते दावानल में
प्यार के व्यर्थ परिवेश को
अन्दर संजोये
निरर्थक विनम्रताओं के साथ
मुझे भरमाना चाहते हो ???
सच ये भी कि ...
मै...जख्म दर जख्म ..
तुम्हारे उत्सव.....
 हाँ.... विवश विलाप के
मादक उत्सव में भी
जीना चाहती हूँ......
तुम जानते हो
वक़्त के मारक क्षणों का
अतृप्त इतिहास है मेरे अन्दर.......

 आलोकित शब्द
 सूखे हरे रंगों वाले
 ख्वाब की
 अभिनव धरती पर
निर्वसन की स्याही जैसी
पागलपन की बतकहियाँ..
उसी धरती के सीने में
भटकती लालसाओं के
रेत मग्न बिम्ब
नि:शब्द पीड़ा की
ऊँगली थाम
आकाश में घुलता
भीतर का बेसबब दर्प .......
अपनी दलीलों के
ठहरे हुए पन्नों पर
अंजुरी में भरकर
कोई चुपके से
ले आता है
अपनेपन का
आलोकित शब्द ....
 मानसरोवर जैसे
आत्मिक शब्द.....
मेरे सिरहाने
कोई अचानक
छोड़ जाता है
स्नेहिल स्वप्न ......


शोर रंजिश भरे

उपासना की गहरी एकांतिकता में
जीवन की ओर
वापस आती
संवेद स्वर की तासीर.......
लौटना चाहती है
देह-मन की
शिराओं को पार कर
चोटिल कदमों की धूल......
हम कब-कहाँ सोच पाते हैं तुम्हें..?
तुम्हारी मरूभूमि के साथ
 सिर्फ रास्तों के
संशय का पता छोड़ जाते हैं
हम वहां से कहाँ लौट पाते हैं ?
 संवेद स्वर की
तासीर ठंडी होगी एक दिन
मुझे पता है
उपासना की चुप्पी
प्रविष्ट हो जायेगी..
शोर रंजिश भरे
 डूबते किस्सों की
 सदियों में
हम वहां से अलग
जब सोच नहीं पाते हैं ...
मीठी नींद सी बातें...
तुम्हारी मरूभूमि के साथ.....

12 March 2013

नील लोहित ...

तुम्हें बार-बार दिखेगा
बीहड़ उम्मीदों जैसा
नील लोहित का रंग ...
अब तक तुम
इस संगीन शब्द को
दूर रखते आये हो
मुझसे बहुत दूर ...
थोड़े से बहरे सपनों की
उलझी किताबों को
पढ़ते-ऊंघते
जरूर दिखेगा
नील लोहित का रंग...
अधम जिस्म पर
बिखरी-सिमटी बेलें
चेतनशून्य मन के
पन्नों को
नोचते-खसोटते
मुझसे ही
अलग करते आये हो ..
तब भी
तुम्हें दिखेगा
नील लोहित का रंग...
मुझे ले चलो
कच्ची मिट्टी से बने
आखिरी रास्ते के पास,
शून्य पर टिमटिमाती
मेरी धरती के पास
मुझे ले चलो
गुमसुम पानी से बने
मेरे शब्दों के पास
थोड़ी सी बची हुई
जमा पूँजी के पास
मुझे ले चलो
तुम्हें दिखेगा
नील लोहित का रंग ...
                                        

10 March 2013

निमंत्रणा...



करीब १० दिन पहले मिरिक, बुन्ग्कुलुंग के रहने वाले नर बहादुर लिम्बु साहब का एक लिफाफा मेरे नाम से ऑफिस में आया..  उस सफ़ेद लिफाफे में  सुपारी, नारियल के टुकड़े व लौंग रखे हुए थे. एक बार ऊपर से नीचे देखने के बाद मै समझ गया कि लिम्बु साहब ने मुझे फिर याद किया है. इस बार उन्होंने अपनी भांजी की शादी का निमंत्रण कार्ड भेजा था . आप सबको शायद याद होगा कि नवम्बर में बुन्ग्कुलुंग पर रिपोर्ताज लिखने के दौरान उनसे हमारी जान-पहचान हुई थी. वे बुन्ग्कुलुंग बस्ती प्रजापति महासंघ के सचिव हैं और काफी विनम्र किस्म के इंसान हैं . अक्सर उनसे फ़ोन पर बात होती रहती थी . वे जब भी सिलीगुड़ी आते तो एक बार जरूर फ़ोन करते .. आपको एक बार फिर से बता दें कि बुन्ग्कुलुंग दार्जिलिंग जिले के मिरिक प्रखंड की वो बस्ती है  जहाँ सिर्फ लिम्बु जनजाति के लोग रहते हैं . लिम्बु जनजाति मूल रूप से नेपाल की जनजाति है . अब इनकी संख्या काफी कम हो गयी है .. हरे-भरे बुन्ग्कुलुंग की ख़ूबसूरती के बारे में कहने और लिखने को बहुत कुछ है .. अभी दुर्भाग्य से मेरे ब्लॉग के कई पोस्ट डिलीट हो गए . उसी में एक बुन्ग्कुलुंग पर रिपोर्ताज भी था . खैर ... लिम्बु साहब ने शादी का कार्ड भेजने के बाद कई बार हमे फ़ोन कर आने की गुजारिश की . मैंने उन्हें हर बार कहा कि आने की कोशिश करूंगा .. शादी के दिन यानी आठ मार्च को दिन के 1 1  बजे जब हम अपने सहयोगी विशाल दत्त ठाकुर के साथ बुन्ग्कुलुंग पहुंचे तो लिम्बु साहब शादी की तैयारियों में व्यस्त दिखे . उन्होंने हमारा दिल खोल कर स्वागत किया और शादी के हर पहलू से अवगत कराया . उस शादी के बारे में बहुत कुछ लिखने का मन हो रहा है, पर अभी आप सिर्फ चुनिन्दा तस्वीरों को देखिये .. अगले किसी पोस्ट में जरूर विस्तार से शादी से जुड़े हर पहलू की चर्चा करूंगा ...........................................................................................................























































06 August 2012

स्वप्निल रूहों का..


कितनी नैतिकता
मान्यताओं की
देहरी लांघ...
बेकल वक़्त को
परे हटाकर 
जब जन्म लेता है प्रेम...
सांझ के कटोरे में
स्वप्निल रूहों का
अबोलापन...
कई परिभाषाओं को
तोड़ता-मरोड़ता 
समय का  ...
हाहाकारी संकल्प
बदलते मायनों ..
की वेदना साध  
जब पग भरता है प्रेम
तब.. न कहानी
न... कोई फेहरिश्त 
बस तीखी हो जाती है 
आग... 
ठहरे हुए संवाद की 
तुम कहते हो... जो भी 
निराकार बादलों 
जैसी बातें..
तृष्णा की पनघट पर 
जब समंदर हो जाता है प्रेम  
सूरज खुद में 
डूबता हुआ
पानी के इतिहास में 
दर्ज होती किताबें 
तब.. न कहानी
न... कोई फेहरिश्त 
बस तीखी हो जाती है 
आग... 
ठहरे हुए संवाद की...........
जब जी उठता है प्रेम 
अपनी रूहों के 
अबोलेपन में................

                                              राहुल  

 


02 August 2012

ऐसे ही गुजर गया....

ये तस्वीर मेरे दोस्त और कालिम्पोंग के रिपोर्टर मुकेश शर्मा ने कुछ दिनों पहले भेजी थी... मुकेश ने ये स्नैप अपने कमरे से लिया था. नीचे लिखे शब्दों के लिए मेरे पास और कोई दूसरी तस्वीर नहीं थी..

 पिछले कई दिनों से ऑफिस जाते  वक़्त ऐसा ही होता..दुकानों पर चहल-पहल देखता और आगे बढ़ जाता... कभी कभार अपनी हाथों पर भी नजर पड़ती.. फिर सोचना बंद हो जाता..कुछ तारीखें पीछे लग जाया करती... वो दिन किसी साल  कभी २७ जुलाई होता.. कभी २८ तो कभी ८ अगस्त.... और अबकी बार तो २ अगस्त.... पहले ठीक से याद कर लेता हूँ... हाँ... आठ साल तो गुजर गए...अंतिम बार २००४ में जब तुम्हारे घर इसी दिन जैसे एक दिन को बारिश में भींगता हुआ मुजफ्फरपुर से गया था... तुम्हारे पास... अपनी दो पहिया गाड़ी चलाकर... तुम भींगने को लेकर कितनी नाराज हुई थी... कहीं रूक जाते..ऐसे में कोई इस तरह गाड़ी चलाता है क्या ? कुछ हो जाता ...आप आदत से बाज नहीं आयेंगे.. तुम बोलती चली गयी... मै सब कुछ सुन रहा था..आसपास कई लोग तुम्हारे घर के मेरे जवाब का इन्तजार कर रहे थे.. पर कुछ नहीं कहा... चलिए कपड़ा बदल लीजिये... मैंने तुम्हारी बात मान ली.... मुझे मालूम था कि तुम अभी तक कुछ खायी नहीं होगी... ऐसा तुम शुरू से करती आ रही थी...कुछ देर बाद बरामदे में आकर बैठा था...मैंने कहा... मीठा  क्या बनायी हो ? तुम कहने लगी, खाते तो हैं कुछ नहीं... हां बनायी तो हूँ... तुमने कितने  स्नेह से एक थाल में सब कुछ समेट लायी.. आरती और चन्दन के बाद तुम्हारी तरफ हाथ बढ़ाते हुए मै कई लोगों को देख रहा था.. जो वहां मौजूद थे. और तुम बीते दिनों में मुझे ढूंढ रही थी... अचानक मुझे याद आ गया...एक मिनट रूको... कहते हुए गाड़ी की डिक्की से निकलने के लिए उठ गया..सब कहने लगे... बाद में दे दीजियेगा... मैंने कहा... ऐसा कैसे ? डिक्की खोली... उसे निकालते हुए वापस लौटा....फिर हाथ तुम्हारी तरफ बढाया....और  मैंने डिक्की से निकाले गए  पैकेट तुम्हारी ओर...तुमने इसके बारे में काफी पहले मुझसे कहा था... इस बार सोचा... इसको पूरा कर दिया जाए.... फिर इस समय के लौटने की उम्मीद में आठ साल गुजर गए...
 इस बार दो अगस्त की सुबह सवा नौ बजे मुंबई से तुम्हारा जब फ़ोन आया..मै उस वक़्त नींद में था... जब तक
नींद खुलती... रिंग बंद हो चुका  था... मैंने इधर से लगाया... दो रिंग के बाद ही तुमने फट से फ़ोन उठाया... नींद में थे क्या भैया ? नहीं जग गया हूँ... क्या हाल है तुम्हारा ? कहते हुए  रूक सा गया... आप इस बार भी नहीं आ सके ना ? काम ज्यादा हो गया है ? हाँ... थोड़ा  सा... अलसाए हुए जवाब दिया.. कुछ और बातचीत के साथ तुम्हारे लिए सटीक सा कोई शब्द नहीं मिल पा रहा था..तुम कहने लगी... अभी पहले पटना बात हुई है तो उसके बाद आपको फ़ोन किया... आज माँ ने  भी छुट्टी ले रखी है... मामा आने वाले हैं...आपकी तबीयत अब कैसी है ? अब ठीक है ... कहते हुए तुम्हारी बात सुनने लगा...... पर तुमने कहाँ कभी भी मुझसे कुछ कहा ? पहले भी ऐसा ही था... कैलेंडर घूमता रहा... १४-१५ साल पहले....  अपने घर में कितनी बार तुमसे कहता.... बोलना सीखो... सुधा... तुम मेरे कमरे में किताबों को उलट-पुलट कर रख देती...कोई किताब नीचे हॉल में धूल में सना मिलता तो कोई सबसे ऊपर वाले रूम में... जब मै पूछता तो तुम सबको फिर से समेट देती... हाँ... तुम जानती थी कि मेरा गुस्सा कैसे नर्म हो सकता है ? देर रात तक पढ़ने और जागने की आदत में भी  तुम्हारी चाय का दखल कुछ ज्यादा ही था... मै भला उसके आगे कैसे नाराज रह सकता हूँ... अब भी जागता हूँ... लगातार कई सालों से...हर दिन.... पर तुम्हारी चाय कहाँ गुम हो गयी है.... सोचता हूँ ..उन तारीखों को पकड़ अपने पास बिठा लूं...
कुछ और तारीखें फिर से सामने आ गयी है..... १९९३... जब एक परीक्षा देने जोधपुर गया था.. वापस दिल्ली लौटने के बाद पालिका बाजार से तुम्हारे लिए ख़रीदे  गए सलवार शूट के साथ पटना लौटा तो जेब में नाम मात्र के पैसे बच गए थे..ये अक्सर होता... उस वक़्त जहाँ भी जाते... कुछ न  कुछ तुम्हारे लिए होता.... भले कम कीमत की सही.... आज जबकि सब कुछ रहता है.... पर वो तारीखें कहीं नजर नहीं आती....
मुझे याद है तुम्हारी एक बात मैंने नहीं मानी थी....तुम घर में सबको कह रही थी... यही ठीक रहेगा... मानेंगे कैसे नहीं ? जबकि माँ ने तुम्हे सब कुछ बता दिया था.. फिर भी तुम जिद पर थी... जब से तुम्हारा  घर-आँगन बदला तो मेरी किताबों पर काफी गर्द जमा होने लगी... मुझसे खूब बात करने वाली माँ अब कम बोलने लगी... मै जानता था... ये बड़ा ही अजीब रंजोगम है ? कई महीनों तक ऐसा ही चलता रहा.. जबकि तुम माँ से बहुत कुछ कहती...अब घर के और लोग भी तुम्हारी बात सोचने-समझने के लिए उतावले रहते...जब मैंने चुपचाप तुम्हारी बातों को सिरे से नकार दिया तो तुमने बहुत दिनों तक मुझसे बात नहीं की..... कई महीनों के बाद जब मुंबई से टेस्ट देकर वापसी में सीधे सतना स्टेशन पर उतरा और वहां से रीवा तुम्हारे पास गया.. यही दो अगस्त वाला एक दिन था... बिना बताये जब पहुंचा तो सब कुछ धुल चुका था. तुमने फिर कहा... आपको भैया मेरी बात मान लेनी चाहिए थी... जाने भी दो अब....बाद में सोचेंगे......
जब तुम  मैट्रिक में पूरे जिले में अव्वल आई थी..गाँव से लेकर पटना तक सब गदगद थे..तुम अक्सर कहा करती.... मेरा दाखिला पटना वोमेन्स कॉलेज में हो जाएगा न ? तब मै कहता... हो जाना चाहिए.... काफी दौड़ धूप के बाद दाखिला हो गया..पढ़ाई को लेकर तुम्हारी जिज्ञासा को देखते हुए सबको बड़ा सुकून मिलता... मुझे भी काफी संतोष होता...आज भी है... तुम एक अच्छी स्टूडेंट रही... चाहे वो कोई चैप्टर रहा हो... किताबों से इतर भी..
अब देखिये ना .... दो अगस्त फिर से ऐसे ही गुजर गया..... सुबह सवा नौ बजे मुंबई से आये हुए फ़ोन की घंटियाँ अब भी गूँज रही है..पूरे दिन ऑफिस में कितनें जगहों से राखी बंधी कलाई की तस्वीरें-ख़बरें आती रहीं..हँसते-मुस्कुराते चेहरें भी.... पावन  दिन की निश्चल गाथा...  हम उसी में सिर खपाते रहे....और  खुद को सँभालते रहे.........

                                  राहुल