4 मार्च 2012 की रात को जब कोलकाता के धर्मतल्ला बस स्टैंड से सिलीगुड़ी के लिए रवाना हुआ था तो मन कुछ अजीब उधेड़बुन में घिरा था. तबादले का आदेश तो एक सप्ताह पहले ही मिल गया था. मुझे नयी जिम्मेवारी के साथ सिलीगुड़ी भेजा जा रहा था. 5 मार्च की सुबह 9 बजे वॉल्वो बस से 500 किलोमीटर की थका देने वाली यात्रा कर जब सिलीगुड़ी के तेनजिंग नोर्गे बस टर्मिनल पहुंचा तो सब कुछ नया-नया सा था ...मौसम ...चेहरे ...सड़कें और भीड़ ...कहाँ एक तरफ कोलकाता की गहमागहमी और कहाँ दूसरी तरफ सिलीगुड़ी का सीमित कोलाहल... काफी सुना था इस शहर के बारे में ... पहली नजर में ये एहसास हुआ कि आखिर लोग यहाँ के मौसम की तारीफ़ क्यों करते हैं .. बस से उतरते ही नर्म धूप का स्पर्श मन को आनंदित कर गया... मै अपनी पूरी टीम के साथ था..नए शहर में नयी कर्म यात्रा शुरू हुई.. जिसमे कई चुनौतियां थी.. कई ऐसे इलाके थे..जो मेरे लिए पूरी तरह अनोखा व अनजान था..अलग-अलग मन मिजाज के लोग... धीरे-धीरे हम सब में शामिल होते गए..
दार्जिलिंग...जुबान पर नाम आते ही चाय की मदहोशी व न कितने रंग आँखों में तिरने लगते हैं. सिलीगुड़ी आने से पहले मैंने इसे सिर्फ फिल्मों और समाचारों में देखा था.. जरा याद कीजिये गुलजार की फिल्म मौसम को, जिसमें अमरनाथ गिल यानी संजीव कुमार व चन्दा मतलब शर्मिला टैगोर की कालजयी अभिनय यात्रा को आपने देखा होगा... कमलेश्वर की लिखी कहानी पर गुलजार साहब ने मौसम में कोलकाता से लेकर दार्जिलिंग तक अपना कौशल दिखाया.. आपको जानकर हैरत होगी कि फिल्म की काफी शूटिंग इंडोर में हुई है ...इसके बावजूद गुलजार भूपिंदर द्वारा गाये गीत.. दिल ढूँढता है के साथ संजीव कुमार को दार्जिलिंग में भटकाते रहे ...संजीव हर किसी से चन्दा का पता पूछते और मायूस हो जाते ... दार्जिलिंग के अपर बाजार की सीढ़ियों पर से शुरू हुई कहानी कही और खत्म हो गयी.. दार्जिलिंग फिल्म मौसम को यादगार बना गया...मगर अब अपर बाजार की सीढ़ियाँ कहाँ और किस हालत में है ? दार्जिलिंग की चर्चा में फिल्म आराधना का जिक्र न हो, ये न्यायसंगत नहीं होगा... एक ऐसी फिल्म जिसने पहली बार दार्जिलिंग व टॉय ट्रेन को दुनिया के नक़्शे पर उतारा.. टॉय ट्रेन में बैठी शर्मिला टैगोर को सदाबहार गीत सुनाते राजेश खन्ना इतिहास रच गए ..और टॉय ट्रेन को अमर कर दिया... आज टॉय ट्रेन किस जगह पर पटरी से उतर गयी है.. ? कुछ और फिल्मों में इस शहर का अक्स उभरा .... फ़िल्में बॉक्स ऑफिस पर हिसाब-किताब करती रही और दार्जिलिंग वहीँ रह गया..दार्जिलिंग की चाय के क्या कहने .. इसकी चर्चा देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में है.. चाय के मुरीद किस्म-किस्म की बात कहकर इसकी तारीफ़ किया करते हैं, पर अभी इस इलाके के चाय बागानों की दशा क्या है, ये बहुत कम लोग जानते हैं ... बागानों में काम करने वाले मजदूरों, लड़कियों व महिलाओं को क्या-क्या झेलना पड़ता है, ये भी एक अनजान तथ्य है.. दार्जिलिंग यहाँ भी सबसे पीछे की कतारों में खड़ा है ....गर्मी के दिनों में घनघोर पानी का संकट झेलते दार्जिलिंग में लकड़ी के बने मकान कब आग की भेंट चढ़ जाए, कोई नहीं बता सकता...
ये बड़ा मुश्किल है कि दार्जिलिंग पर क्या लिखा जाए ? ..हमने थोड़ी कोशिश की है ..मै पूरी कोशिश करूँगा आपसे सब कुछ बांटने की... सिलीगुड़ी में रहते हुए पिछले 13 महीने के दौरान लगभग 24-25 बार दार्जिलिंग आना-जाना हुआ. हर बार एक नयी तस्वीर नजर आई.. बाहर की दुनिया में सुन्दर तस्वीरों में झांकता ये हिल का इलाका अन्दर में काफी गुबार समेटे बैठा है .. हर मौसम में दार्जिलिंग की अलग कहानी.. अलग दर्द मैंने काफी करीब से महसूस किया कि जितना यहाँ घूमने में आनंद नहीं है , उससे ज्यादा मजा यहाँ पहुंचने की यात्रा में है.. घुमावदार सड़कों पर कसरत करती गाड़ियां और आसपास दिखती पहाड़ों पर हरियाली... अगर आपका ड्राइवर जोशीला हुआ तो दिल थाम ही लीजिये...सच कहा जाए तो हिल का ये पूरा इलाका कुदरत की बेशुमार सुन्दरता में डूबा हुआ है.. सिर्फ एक बात की कसक रह जाती है कि बदलते पाखंडी राजनीतिक घटनाक्रमों के कारण ये शहर काफी पीछे चला गया है..गोरखालैंड आन्दोलन को लेकर यह केंद्र व राज्य सरकार की दोरंगी नीतियों का शिकार होता रहा है.. अलग राज्य व अस्मिता की लड़ाई लड़ते भोले-भाले गोरखा व भारतीय मूल के नेपाली लोग सालों से तमाशा देखते आ रहे हैं ...और उम्मीद लगाए बैठे हैं कि शायद इस बार कुछ न कुछ होगा ? मगर सब व्यर्थ ..
दार्जिलिंग की अब तक की यात्रा में मैंने लगभग यहाँ चप्पे-चप्पे को देखा.. लोगों के चेहरे भी देखे और आदतें भी..उतार-चढ़ाव भरा जीवन देखा और गरीबी-लाचारी को झेलते सपनों को भी...मै अक्सर अपने दार्जिलिंग रिपोर्टर रोबिन गिरी से हिल के बुनियादी मसलों पर बातचीत करता...वे मुझे हरसंभव जानकारी उपलब्ध कराते..शाम को जब रोबिन अपनी न्यूज़ भेजते तो उसके बाद एक बार फ़ोन पर जरुर बात होती..मै हमेशा उनसे एक बार मौसम के बारे में जरूर पूछता... दरअसल हिल में मौसम की तबीयत हर दिन अलग से एक खबर होती है...खासकर उन टूरिस्टों के लिए जो ऑफ सीजन में आते रहते हैं..रोबिन गिरी की बात चल गयी है तो उनके बारे में बता ही दूं ...मूल रूप से अंग्रेजी अखबार द टेलीग्राफ के लिए काम करने वाले रोबिन दार्जिलिंग के एक अच्छे पत्रकार हैं.. पर उनकी हिंदी बेहद ही कामचलाऊ है. राजनीतिक गलियारे में उनकी काफी गहरी पैठ है.. मै जिस अखबार में हूँ, उसके लिए भी वे काम करते है.गोरखालैंड की राजनीति को उन्होंने काफी करीब से देखा है. जीएनएलऍफ़ सुप्रीमो सुभाष घिसिंग से लेकर गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के मुखिया व जीटीए के चेयरमैन विमल गुरूंग व उनकी पत्नी और नारी मोर्चा की सर्वेसर्वा आशा गुरूंग, अखिल भारतीय गोरखा लीग की अध्यक्ष भारती तामांग व उनके शहीद पति मदन तामांग और कुछ अन्य नामी-गिरामी लोगों की चरित्र कुंडली को रोबिन अच्छी तरह जानते हैं..रोबिन साहब का दार्जीलिंग में अपना मकान भी है. काफी साल पहले उसी मकान में एक हिंदी फिल्म की शूटिंग हुई थी.. पर इसकी चर्चा आगे करूँगा.. क्योंकि उस चर्चा में एक फिल्म और शामिल होगी.. अनुराग बासु की बर्फी .. उस चर्चा में बर्फी के सिनेमेटोग्राफर रवि बर्मन, कोलकाता में मेरे लेंसमैन अजय बोस, सिलीगुड़ी में मेरे अजीज फोटो जर्नलिस्ट पुलक कर्मकार व नाजुक अभिनेत्री इलियाना डिक्रुज भी शामिल होंगी ....फिलवक्त रोबिन साहब के बारे में ...
रोबिन साहब के साथ एक बुनियादी और सनातन दिक्कत है.. उनसे जब भी फ़ोन पर बात होती तो वे हर बार राईट-राईट.. कह कर अपनी बात खत्म करते...ख़बरों को लेकर हिंदी के कुछ शब्दों का वे अर्थ से अनर्थ कर बैठते और मै सिर पीट लेता.. अगर शाम 6 बजे के बाद उनसे बात होती तो वे राईट-राईट कहते-कहते इस कदर रॉंग हो जाते कि ..बस मै ही हाथ जोड़ लेता...इन तमाम दिक्कतों के बाद भी रोबिन एक नेकदिल इंसान हैं ...इसमें कोई शक नहीं..हमने उनके साथ दार्जिलिंग की खूब ख़ाक छानी है.. रिपोर्टिंग के दौरान हमलोग पैदल ही घूमते..चौक बाजार की ठसाठस भीड़ और वहाँ से अपर बाजार व चौरास्ता की तरफ जाने के लिए बनी सीढ़ियों पर कई बार आना-जाना होता..चौक बाजार से नीचे की तरफ स्थित जिस गेस्ट हॉउस में मै ठहरता, वहाँ से चौरास्ता जाने में सिर्फ 10 मिनट लगते.. रोबिन कई ऐसे रास्ते जानते थे जो एकदम पतली गलियों से होकर गुजरते थे.. उन सड़कों और गलियों के दोनों तरफ सिर्फ दुकान और दुकान.. अपने काम से निपट कर अक्सर शाम के वक़्त हम दोनों चौरास्ता में आकर अपनी थकान मिटाते.. रोबिन कॉफ़ी पसंद करते, जबकि मै चाय... गपशप शुरू होता..रोबिन हर हाल में 6 बजे से पहले जाने की जिद करते... मै उनसे कभी-कभी कहता- आप अगर आज नहीं पियेंगे तो कोई परेशानी तो नहीं होगी.. वे हँसते हुए जवाब देते- वो बात नहीं है.. मुझे रिपोर्ट भी तो भेजनी है... चौरास्ता की चहल-पहल को देखकर मन में अजीब ख्याल आते.. निडर कबूतरों का जमघट नाच-नाच कर आता और दाना चुग कर चला जाता.. बेंचों पर बैठे हर उम्र वर्ग के लोग अपनी धुन में रमे रहते... कुछ बच्चे घुड़सवारी का आनंद उठाते और उनके मम्मी-पापा उसे देखकर सुकून और हर्ष की मुस्कान बिखेरते... टूरिस्टों की भीड़ वहीँ उमड़ती... थके-मांदे लोग आते और दार्जिलिंग की वादियों को निहारते...जबकि कुछ लोग राजभवन की तरफ जानेवाली सड़कों पर टहलने में मशगूल हो जाते .....आज भी ऐसा ही होता है ... क्रमश ....
बहुत सुन्दर वृतांत.......
ReplyDeleteवादियाँ आवाज़ लगाती सी महसूस हुईं......
अनु
बेहतरीन सुंदर प्रस्तुति दार्जिलिंग की-,,,
ReplyDeleteRECENT POST: मधुशाला,
ReplyDeleteअखरोट (दो अखरोट रोजाना )का सेवन कोलेस्ट्रोल कम करता है .अच्छे कोलेस्ट्रोल को पुष्ट करता है बुरे को कम .
आपने सही कहा दार्जिलिंग की वादियाँ तो देखने लायक है बेहतरीन सुंदर मौसम चारों ओर हरियाली बहुत खूब...... सुंदर वर्णन .
ReplyDeleteसुकून और हर्ष की मुस्कान बिखेरते..बच्चे और हरी-भरी वादियो के बीच यदि कोई रचनाकार हो तो कलम भी अपना हुऩर दिखा ही देती है ... बहुत ही अच्छी लगी यह प्रस्तुति
ReplyDeleteआभार
दार्जलिंग का बहुत ही खूबसूरत वर्णन किया आपने ....भाषा शैली मंजी हुई और शब्दों की रोचकता प्रभावित करती है ....
ReplyDeleteआप किसी समाचार पत्र से जुड़े हैं ...?
मेरे माता-पिता दार्जीलिंग टी के बहुत बड़े शौक़ीन है इसलिए बचपन से दार्जीलिंग से जुड़ा हूँ चाय के माध्यम से. एक बार शोध के सिलसिले में हिमाचल प्रदेश के पालमपुर चाय संस्थान में गया था. कई तरह के चाय से आशना हुआ था वहाँ मगर आजतक दिल में दार्जीलिंग टी ही है.
ReplyDelete'राईट-राईट से रोंग' करने की बात से फिल्म 'एक और एक ग्यारह' याद आया. पीएचडी के दरम्यान हमारी प्रयोगशाला में सबको दो घोलकों (जिसका एक हिस्सा अल्कोहल था ) के मिश्रण से काम करना होता था. उसकी तासीर कुछ ऐसी थी की एक घंटे के अन्दर-अन्दर हल्का नशा भी हो जाता था और क्षणिक स्मृति दोष भी. उस चक्कर में अक्सर 'राईट से रोंग' होता रहता था.
सुन्दर वर्णन. कभी ज़िन्दगी मोहलत दे तो घूमने का मन है. आगे की कड़ियों का इंतज़ार रहेगा.
ये एक ही रिपोर्ताज कई रंग और स्पर्श लिए है कहीं ओबिन क एक व्यक्ति चरित्र कहीं पहाड़ के प्रति सरकारी उपेक्षा और कहीं पनिहारिन का दर्द पानी की तंगी.उजड़ता पहाड़ और सबसे बढ़के यात्रा वृत्तांत .कुदरत की खूब सूरती को ब्यान करती पोस्ट .फिल्मों का ज़िक्र मेरे सपनों की रानी कब आयेगी की याद दिला गया .इस पोस्ट पर हमने एक टिपण्णी और भी की थी .देखिएगा स्पेम में होगी .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर वर्णन। आप कौन से अखबार में कार्यरत् हैं?
ReplyDeleteदार्जलिंग के बहाने कई मौसम का स्पर्श कराया आपने जो मन को आनंदित कर गया. उत्सुकता भी जगा गया और प्रतीक्षा को कतार में लगा गया..
ReplyDeleteदार्जिलिंग देखने की बहुत इच्छा है ..फिल्मों में ही देखा है अब तक तो..आज आप के दिए विवरण में बहुत कुछ नया जाना ..आप ने सही लिखा इस सुन्दर स्थान को भी स्थानीय राजनीति ने पनपने नहीं दिया है ..गोरखा अपनी बहादूरी और ईमानदारी के लिए जाने जाते हैं.
ReplyDeleteजानकारी पूर्ण लेख.
सुन्दर वृतांत.... बहुत ही खूबसूरत वर्णन किया आपने
ReplyDeleteभाई जी मैं तो दार्जलिंग हो आया
ReplyDeleteक्या बेहतरीन यात्रा का शब्द खींचा है
वाह
बहुत बढ़िया जानकारी
बधाई
शुक्रिया आपकी टिप्पणियों का हौसला जुटाया है बाबा की पोस्ट्स लिखने का जिसे आपके प्रोत्साहन ने सान पे चढ़ाया है .ॐ शान्ति .
ReplyDeleteदार्जलिंग की खूबसूरती को शब्दों में बाँध दिया है आपने ...
ReplyDeleteदेखने की इच्छा जाग गई ...
जीवंत चित्रण।।
ReplyDeleteBehtareen Shuruaat...
ReplyDeleteनित नूतन सौंदर्य सा बढ़िया संस्मरण .शुक्रिया आपकी टिपण्णी का .
ReplyDeleteLovely Description...
ReplyDeleteचौरास्ता की चहल-पहल को देखकर मन में अजीब ख्याल आते.. निडर कबूतरों का जमघट नाच-नाच कर आता और दाना चुग कर चला जाता.. बेंचों पर बैठे हर उम्र वर्ग के लोग अपनी धुन में रमे रहते...
ReplyDeleteदार्जीलिंग पुनः आँखों के सामने घूम गया ...!!
सुन्दर संस्मरण ...