दिन के कई हिस्सों में
बंटते हुए ..
खुद पर रोते-हंसते
रात जब मेरे घर में..
आती है..
मै तेरी ही कहानियों
किस्सों में खुद को
दफना देता हूँ..
ये सोचकर..
ये मानकर..
तुम फिर कहोगी
नींद से जागकर
करीब आकर ..
अपने सिरहाने
मुद्दत से
जो कुछ छिपाए बैठी हो..
उसे मेरे हाथों पर
देते हुए ..
मौन हो जाओगी
पर तुम सोचोंगी ....
अब कुछ नहीं
कभी नहीं..
दिन...रात के दरम्यान
सीने में उगते काँटों की..
वंशबेल...
रिवाजों की..
लिबास में नग्न दिखती
मान्यताएं..
इन्हीं कुछ घंटों से
वर्षों तक कितनी सदियाँ
मेरे क़दमों में भंवर सा
लोटती है
मै दिन-रात
कई बार..
कई हिस्सों में
ना तो अब ख्वाब बुनता हूँ
और ना ही..
तुम्हें जी पाता हूँ
सच ये है कि
मै बार-बार
कितने हिस्सों में
टूट जाता हूँ....
राहुल ...
तुम्हें जी पाता हूँ
ReplyDeleteसच ये है कि
मै बार-बार
कितने हिस्सों में
टूट जाता हूँ....
अन्तरमन के भाव मुखारित हुए।
आश्चर्य है .. शब्दों में मैं भी अर्थ भरा करती हूँ..पर आपको पढ़कर मैं अवाक..स्तब्ध हो जाती हूँ , या फिर सुन्दर शब्द नहीं मिलते प्रसंशा के लिए..
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