कुछ मद्धिम सी चुभन है
सिमटते हुए उजालों के पार
डूबता हुआ पानी है ...
कितना ठहराव हो सकता है ?
उस आकाशगंगा में ..
उतना ही शब्द..
वही शाम रहने दो..
अनायास मुस्कान दिखती आकाशगंगा में
शोर सी उठती हुई
घायल पहाड़ों की ढलान पर
तुम आती-जाती रहती हो...
तुम हवा को अपने होठों से
धराशायी करने की जिद में बैठी हो
पर ऐसा नहीं.. कभी नहीं..
पिघलती हुई सिर्फ वो शाम
मेरे आकाशगंगा में जी उठी है..
अलबेली बारिश की बूंदों में
तुम गुमसुम सी चुपचाप
पास ही तो मेरी बारिश में
भींगी सी मदहोश थी...
न जाने नींद का भ्रम था
या .. सच में एक अप्रतिम मखमली स्पंदन
राहुल...
अप्रतिम ..
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