Rahul...

02 November 2011

 रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है
रात खामोश है, रोटी नहीं, हंसती भी नहीं
कांच का नीला सा गुम्बद है, उड़ा जाता है
खाली-खाली कोई बजरा - सा बहा जाता है

चाँद की किरणों में वो रोज़ सा रेशन भी नहीं
चाँद की चिकनी डली है कि घुली जाती  है

काश इक बार कभी नींद से उठकर तुम भी
हिज्र की रातों में ये देखो तो क्या होता है ?........


                         (गुलज़ार साहब के पुखराज से ) 

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