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अपनी मर्जी से आखिर हम आवारगी तय नहीं कर सकते. मै उस पेड़ को आज भी नहीं भूल पाती... जिसके दरख्तों में भी इतने जख्म कि मन सब कुछ खो बैठे. नहीं समझ सकी..... तुम इन सब के बीच क्यों डूब गए ? सुबह- सुबह की गीली और चमकते सूर्य की मीठी धूप में अनायास तुम्हारा दिखना.. अगले पल की वीरानगी में नजरों का सूनापन. सदियाँ थक जायेगी.. और मुमकिन है कि इतना मंजर गुजरे कि मौसम को एहसास तक न हो..तुम पत्थरों की पदचाप को भी जी लोगे. तुम हमेशा कहा करते थे.. सब कुछ मौन कर देना.. मगर तुम अपनी साँसों की उमस को कहाँ मिटा पाओगे ? रात के थकते मन कारवां सा होने लगता है. जैसे सपनों को अपनी यात्रा में तलाशने की ख्वाहिश.. पर ये क्या... मेरे आँचल में एक कतरा तक नहीं बचा. न जाने इतने ही ख्वाब तक मेरी पलकों पर टिक पाते हो.. न जाने फिर कभी अपनी हाथों में तुम्हारी उमस को कैद कर पाउंगी ?
आगे अभी और भी .....
राहुल
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