कुछ सुनहरे राख का मंजर
बिखरा मिला
उस समर शेष में
जहाँ समंदर एक
काफिला सा...
पिघलते जज्बात को
अपने में भिंगोये
गुम हो रहा है...
कभी ऐसा भी हुआ
थके मन से
सपनों को मुक्त करना..
सौ संताप में... हर बार
एक-दो नजरें..
जर्जर यायावर वक़्त
हाथ से निकलता
चेहरे का धुआं ..
और...
कुछ सुनहरे राख का मंजर
तुम नहीं भी कहोगे तो...
सिमट जायेगा..
तेरी साँसों में मेरी रूह
जन्म लेगी..
मै उस वक़्त शायद..
रहूँ.. न रहूँ
राहुल
बहुत सुन्दर कविता| धन्यवाद|
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