Rahul...

06 August 2012

स्वप्निल रूहों का..


कितनी नैतिकता
मान्यताओं की
देहरी लांघ...
बेकल वक़्त को
परे हटाकर 
जब जन्म लेता है प्रेम...
सांझ के कटोरे में
स्वप्निल रूहों का
अबोलापन...
कई परिभाषाओं को
तोड़ता-मरोड़ता 
समय का  ...
हाहाकारी संकल्प
बदलते मायनों ..
की वेदना साध  
जब पग भरता है प्रेम
तब.. न कहानी
न... कोई फेहरिश्त 
बस तीखी हो जाती है 
आग... 
ठहरे हुए संवाद की 
तुम कहते हो... जो भी 
निराकार बादलों 
जैसी बातें..
तृष्णा की पनघट पर 
जब समंदर हो जाता है प्रेम  
सूरज खुद में 
डूबता हुआ
पानी के इतिहास में 
दर्ज होती किताबें 
तब.. न कहानी
न... कोई फेहरिश्त 
बस तीखी हो जाती है 
आग... 
ठहरे हुए संवाद की...........
जब जी उठता है प्रेम 
अपनी रूहों के 
अबोलेपन में................

                                              राहुल  

 


02 August 2012

ऐसे ही गुजर गया....

ये तस्वीर मेरे दोस्त और कालिम्पोंग के रिपोर्टर मुकेश शर्मा ने कुछ दिनों पहले भेजी थी... मुकेश ने ये स्नैप अपने कमरे से लिया था. नीचे लिखे शब्दों के लिए मेरे पास और कोई दूसरी तस्वीर नहीं थी..

 पिछले कई दिनों से ऑफिस जाते  वक़्त ऐसा ही होता..दुकानों पर चहल-पहल देखता और आगे बढ़ जाता... कभी कभार अपनी हाथों पर भी नजर पड़ती.. फिर सोचना बंद हो जाता..कुछ तारीखें पीछे लग जाया करती... वो दिन किसी साल  कभी २७ जुलाई होता.. कभी २८ तो कभी ८ अगस्त.... और अबकी बार तो २ अगस्त.... पहले ठीक से याद कर लेता हूँ... हाँ... आठ साल तो गुजर गए...अंतिम बार २००४ में जब तुम्हारे घर इसी दिन जैसे एक दिन को बारिश में भींगता हुआ मुजफ्फरपुर से गया था... तुम्हारे पास... अपनी दो पहिया गाड़ी चलाकर... तुम भींगने को लेकर कितनी नाराज हुई थी... कहीं रूक जाते..ऐसे में कोई इस तरह गाड़ी चलाता है क्या ? कुछ हो जाता ...आप आदत से बाज नहीं आयेंगे.. तुम बोलती चली गयी... मै सब कुछ सुन रहा था..आसपास कई लोग तुम्हारे घर के मेरे जवाब का इन्तजार कर रहे थे.. पर कुछ नहीं कहा... चलिए कपड़ा बदल लीजिये... मैंने तुम्हारी बात मान ली.... मुझे मालूम था कि तुम अभी तक कुछ खायी नहीं होगी... ऐसा तुम शुरू से करती आ रही थी...कुछ देर बाद बरामदे में आकर बैठा था...मैंने कहा... मीठा  क्या बनायी हो ? तुम कहने लगी, खाते तो हैं कुछ नहीं... हां बनायी तो हूँ... तुमने कितने  स्नेह से एक थाल में सब कुछ समेट लायी.. आरती और चन्दन के बाद तुम्हारी तरफ हाथ बढ़ाते हुए मै कई लोगों को देख रहा था.. जो वहां मौजूद थे. और तुम बीते दिनों में मुझे ढूंढ रही थी... अचानक मुझे याद आ गया...एक मिनट रूको... कहते हुए गाड़ी की डिक्की से निकलने के लिए उठ गया..सब कहने लगे... बाद में दे दीजियेगा... मैंने कहा... ऐसा कैसे ? डिक्की खोली... उसे निकालते हुए वापस लौटा....फिर हाथ तुम्हारी तरफ बढाया....और  मैंने डिक्की से निकाले गए  पैकेट तुम्हारी ओर...तुमने इसके बारे में काफी पहले मुझसे कहा था... इस बार सोचा... इसको पूरा कर दिया जाए.... फिर इस समय के लौटने की उम्मीद में आठ साल गुजर गए...
 इस बार दो अगस्त की सुबह सवा नौ बजे मुंबई से तुम्हारा जब फ़ोन आया..मै उस वक़्त नींद में था... जब तक
नींद खुलती... रिंग बंद हो चुका  था... मैंने इधर से लगाया... दो रिंग के बाद ही तुमने फट से फ़ोन उठाया... नींद में थे क्या भैया ? नहीं जग गया हूँ... क्या हाल है तुम्हारा ? कहते हुए  रूक सा गया... आप इस बार भी नहीं आ सके ना ? काम ज्यादा हो गया है ? हाँ... थोड़ा  सा... अलसाए हुए जवाब दिया.. कुछ और बातचीत के साथ तुम्हारे लिए सटीक सा कोई शब्द नहीं मिल पा रहा था..तुम कहने लगी... अभी पहले पटना बात हुई है तो उसके बाद आपको फ़ोन किया... आज माँ ने  भी छुट्टी ले रखी है... मामा आने वाले हैं...आपकी तबीयत अब कैसी है ? अब ठीक है ... कहते हुए तुम्हारी बात सुनने लगा...... पर तुमने कहाँ कभी भी मुझसे कुछ कहा ? पहले भी ऐसा ही था... कैलेंडर घूमता रहा... १४-१५ साल पहले....  अपने घर में कितनी बार तुमसे कहता.... बोलना सीखो... सुधा... तुम मेरे कमरे में किताबों को उलट-पुलट कर रख देती...कोई किताब नीचे हॉल में धूल में सना मिलता तो कोई सबसे ऊपर वाले रूम में... जब मै पूछता तो तुम सबको फिर से समेट देती... हाँ... तुम जानती थी कि मेरा गुस्सा कैसे नर्म हो सकता है ? देर रात तक पढ़ने और जागने की आदत में भी  तुम्हारी चाय का दखल कुछ ज्यादा ही था... मै भला उसके आगे कैसे नाराज रह सकता हूँ... अब भी जागता हूँ... लगातार कई सालों से...हर दिन.... पर तुम्हारी चाय कहाँ गुम हो गयी है.... सोचता हूँ ..उन तारीखों को पकड़ अपने पास बिठा लूं...
कुछ और तारीखें फिर से सामने आ गयी है..... १९९३... जब एक परीक्षा देने जोधपुर गया था.. वापस दिल्ली लौटने के बाद पालिका बाजार से तुम्हारे लिए ख़रीदे  गए सलवार शूट के साथ पटना लौटा तो जेब में नाम मात्र के पैसे बच गए थे..ये अक्सर होता... उस वक़्त जहाँ भी जाते... कुछ न  कुछ तुम्हारे लिए होता.... भले कम कीमत की सही.... आज जबकि सब कुछ रहता है.... पर वो तारीखें कहीं नजर नहीं आती....
मुझे याद है तुम्हारी एक बात मैंने नहीं मानी थी....तुम घर में सबको कह रही थी... यही ठीक रहेगा... मानेंगे कैसे नहीं ? जबकि माँ ने तुम्हे सब कुछ बता दिया था.. फिर भी तुम जिद पर थी... जब से तुम्हारा  घर-आँगन बदला तो मेरी किताबों पर काफी गर्द जमा होने लगी... मुझसे खूब बात करने वाली माँ अब कम बोलने लगी... मै जानता था... ये बड़ा ही अजीब रंजोगम है ? कई महीनों तक ऐसा ही चलता रहा.. जबकि तुम माँ से बहुत कुछ कहती...अब घर के और लोग भी तुम्हारी बात सोचने-समझने के लिए उतावले रहते...जब मैंने चुपचाप तुम्हारी बातों को सिरे से नकार दिया तो तुमने बहुत दिनों तक मुझसे बात नहीं की..... कई महीनों के बाद जब मुंबई से टेस्ट देकर वापसी में सीधे सतना स्टेशन पर उतरा और वहां से रीवा तुम्हारे पास गया.. यही दो अगस्त वाला एक दिन था... बिना बताये जब पहुंचा तो सब कुछ धुल चुका था. तुमने फिर कहा... आपको भैया मेरी बात मान लेनी चाहिए थी... जाने भी दो अब....बाद में सोचेंगे......
जब तुम  मैट्रिक में पूरे जिले में अव्वल आई थी..गाँव से लेकर पटना तक सब गदगद थे..तुम अक्सर कहा करती.... मेरा दाखिला पटना वोमेन्स कॉलेज में हो जाएगा न ? तब मै कहता... हो जाना चाहिए.... काफी दौड़ धूप के बाद दाखिला हो गया..पढ़ाई को लेकर तुम्हारी जिज्ञासा को देखते हुए सबको बड़ा सुकून मिलता... मुझे भी काफी संतोष होता...आज भी है... तुम एक अच्छी स्टूडेंट रही... चाहे वो कोई चैप्टर रहा हो... किताबों से इतर भी..
अब देखिये ना .... दो अगस्त फिर से ऐसे ही गुजर गया..... सुबह सवा नौ बजे मुंबई से आये हुए फ़ोन की घंटियाँ अब भी गूँज रही है..पूरे दिन ऑफिस में कितनें जगहों से राखी बंधी कलाई की तस्वीरें-ख़बरें आती रहीं..हँसते-मुस्कुराते चेहरें भी.... पावन  दिन की निश्चल गाथा...  हम उसी में सिर खपाते रहे....और  खुद को सँभालते रहे.........

                                  राहुल