Rahul...

25 June 2012

खंड-खंड सागर को ......

...सिर्फ जिस्म
 नहीं होती है लड़कियां
और... 
सपना भी नहीं
तिरते आसमान में
रंग-बिरंगे बादलों
जैसी भी...
नहीं होती है लड़कियां
कि...कोई समेट ले
अपने हाथों में..
सूखी हुई नदी की
आँखों में भी
भींगने भर को
नहीं होती है लड़कियां
की... कोई  डुबो दे 
अपने गलीच तालाब में
सूरज की बारिश में
छम-छम कर
जब उत्सव बिखेरती  हैं
लड़कियां...
आँगन में टूटने से पहले
जब माँ से चिपकती है
लड़कियां...
सागर को भी..
खंड-खंड कर देती हैं
लड़कियां.....
जब बाप के माथे पर
तर बतर होती हैं
लड़कियां...
कांच की सड़कों पर
जब दौड़ती हैं
लड़कियां
तब ...सिर्फ जिस्म
नहीं होती है
और न ही कोई सपना..
सूरज की बारिश
कांच की सड़कें
और सूखी हुई नदी 
के  मिलने पर भी
अपने बंजारे मन में
चेतन सी ..विराट
खुशबू को आह्लादित करती 
खंड-खंड सागर को
पी जाती हैं
लड़कियां


                                                                   राहुल

22 June 2012

सिसकती है स्मृति..

जब कभी हम
शीशे पे चिपकी
नन्ही बूंदों को..
अपने पास लाने की
कोशिश करते हैं ...
बूँदें चुपचाप..
सिमट जाती है
उँगलियों के आसपास..
घेरे में
आ ही जाता है..
किसी के लिखे हुए
इतिहास का अधूरा
पन्ना...
बिखरे शब्दों को
मिल जाते हैं
स्पर्श का प्राणवायु
तीत सी रौशनी में
नहा उठता है..
मृत अक्षरों का उद्वेग
सिसकती है  स्मृति..
पानी की कुछ बूँदें
जब सदी पर भारी पड़ती है
..तब  सब कुछ
आवरणहीन
और... निर्लज्ज सा दीखता है 

                                                                       राहुल




19 June 2012

रात.. अब तुम जाओ

कहाँ  से आती है
रातें ?
कहाँ से रिसता है
उम्मीद ?
 एक रात
एक उम्मीद
दोनों के बीच
खड़ा
कच्ची धूप का फासला
रात कहती है
इन धूपों को पकने दो
सहर होने तक...
जब सब जाग जायेंगे
हम...
उसी फासले में
मिटकर एक तो हो जायेंगे

उम्मीद कहता है
आओ...
निर्वाण को...
तलाशे
तेरे छिलते मन में
जब मेरा अंश
साकार होगा..
हम फिर से..
वैसे ही काँटों का
एक बुत बनायेंगे
मुझे अब भी
यकीन है तुम पर..
जब पिछली बार
तुमने...
अपने सीने में
छुपाकर
काँटों में पिरोया था...
फिर से..
मुझे उसी शक्ल में
ला दो...
तुम्हारी पकती हुई
कच्ची धूप में
ख्वाब की पंखुरियां
गुनगुनाने वाली है..

 मै तो वैसा ही ...रहूँगा
काँटों में भी...
रात.. अब तुम जाओ
सहर  की बेला
आसपास बिखरनेवाली है....
हमे तो
तुम्हारे हर अंश में
कितनों  के प्रारब्ध को
 जीना है..

                                             राहुल........

12 June 2012

सवालों के सामने-३


...बातें कहाँ से शुरू हुई ...और कहाँ पर विराम लेने लगी...अभी तक के अल्प सफ़र में उपलब्धियां नाम मात्र की रही है... अपने मनोभावों को शब्दों में पिरोने की आदत कब लगी... कुछ ख्याल नहीं... जब ब्लॉग के बारे नहीं जानता था..  तब इधर-उधर लिखकर छोड़ दिया करता था.. जाने-अनजाने लोगों ने उसे सहेजा.... मेरे लिए...
... वर्ड वेरिफिकेशन....कमेंट्स......पोस्ट.....वीणा स्टूडियो....उसकी .निर्विकार... यथावत तस्वीर.. दार्जीलिंग के तिब्बती शरणार्थी कैंप का रंग.... इन सबके बीच एक सच्चा इंसान... मेरे अन्दर हमेशा मौजूद रहेगा...इस छोटी सी कायनात में ललक इस बात की भी नहीं कि कभी उनके आमने-सामने होंगे कि नहीं..... हाँ जब कभी हमारा बेरहम वक़्त इसकी इजाजत देगा... तो अपना लैपटॉप सामने रख देंगे......
                                                                                                                               
                                                                                                                      राहुल

सवालों के सामने -2



....हमें अभी भी नहीं मालूम कि मेरे ब्लॉग से वर्ड वेरिफिकेशन हटा कि नहीं... आज हम उस इंसान को इसीलिए याद कर रहे हैं कि उन्होंने काफी खूबसूरत पोस्ट लिखा. हर विधा में, हर शैली में.. एक नहीं...दो नहीं, बल्कि कई बार... उनके शब्दों ने हमें संबल दिया... मेरी कविता और उनके कमेंट्स को लेकर एक और बात हुई... हमें इतना तो पता था कि उस सच्चे इंसान को हमने आहत किया है....बाद के दिनों में जब एक दिन ब्लॉग का पिछला पन्ना पलट रहे थे...तो  कुछ पुराने पोस्ट पर उनका कमेंट्स दिखा... बेहद ही सारगर्भित और सच्चा.... यकीन नहीं हुआ कि ऐसा भी हो सकता है... करीब साल भर पुराने पोस्ट पर कमेंट्स देना... हमारे लिए अनमोल धरोहर है...वो हमेशा मेरे पास रहेगा....और तो कुछ नहीं बचता है हमलोगों के लिए..  वैसे हम कोई आदतन कवि या लेखक तो नहीं थे, एक अदना सा पत्रकार (जो अभी तक अपने आप की तलाश नहीं कर सका है..) ख़बरों की खोज में कितना कुछ खोते गए... और अब तो ये सोचने का वक़्त भी नहीं कि कुछ बचा भी है या सब शेष हो गया.. पटना में पत्रकारिता की क्या दशा-दुर्दशा है... हमने इसे लगभग १२ सालों में खूब समझा है... ख़बरों को कवर करने के नाम पर.. अखबार के नाम पर  धौंसपट्टी दिखाकर दलाली करना... और ऑफिस के भीतर बड़े पदों पर बैठे दिग्गज नाम और उनका कर्म.... बताने की जरुरत नहीं... आप इतना ही समझ लीजिये कि दुनिया के सबसे पुराने पेशे और इसमें कोई ज्यादा अंतर नहीं रह गया है... अगर सिर्फ कंटेंट कि बात करें तो वो हमसे ज्यादा बेहतर हैं... सच को खुल कर स्वीकार तो करते हैं... खैर....
फिर एक बार राष्ट्रीय सहारा का जिक्र करना चाहेंगे... ठीक बोरिंग रोड चौराहा पर इसका ऑफिस है.. चौराहा से पूर्व की तरफ जाने पर एक फोटो स्टूडियो है.. वीणा स्टूडियो...आप सोच रहे होंगे कि ये स्टूडियो बीच में कहाँ से आ गया .. तो एक बार जरुरी काम से हम वहां गए... वहाँ काम चलता रहा और हम चुपचाप तमाशा देखते रहे... दरअसल उस स्टूडियो का काफी नाम है.. शादी-ब्याह के लिए लड़कियों की तस्वीर यहाँ निराले तरीके से तैयार की जाती है.. और उससे भी ज्यादा दिलचस्प होता है फोटोग्राफर महाशय का तस्वीर उतारने का बेलौस अंदाज.. कुछ ऐसे ही काम से हम वहां थे और सब कुछ बाहर में खड़े होकर देख रहे थे... स्टूडियो के बाहर एक छोटा सा गार्डेन भी है.. आप अपनी पसंद के मुताबिक कहीं भी बैठ जाइए और..फ्रेम तैयार......फोटोग्राफर महाशय जितनी बार कैमरा क्लिक करते, उससे कहीं ज्यादा हंसने और मुस्कराने की बात दोहराते... सजी-धजी लड़कियां चुपचाप कभी बैठ जाती तो कभी खड़ी हो जाती (किसी भी लड़की के लिए नए जीवन में कदम रखने का ये उम्मीदों भरा शगुन होता है.......ओह... रे मन.. कब तक... कितने सपने....) और फोटोग्राफर महाशय कैमरा क्लिक करने के साथ.. हँसते रहिए.. मुस्कराते रहिये .... कहते जाते... ये पूरा नजारा आज भी मेरी आँखों के सामने जी उठा है....
उसी स्टूडियो की एक तस्वीर (बहुत हद तक यकीन के साथ कह रहे हैं ) ...उसका फ्रेम... बहुत कुछ याद दिला देता है... इतने सालों में कितना कुछ बदल गया... दिन अब दिन न  रहा.. रातें राख में मिल गयी ... जहाँ बात के बात में विचार बदलते गए और रातों रात इतिहास बदल गए... वहां हमारे-आपके बदलने में कितना वक़्त लगेगा ? लेकिन नहीं बदली तो वो तस्वीर...निर्विकार... यथावत...... जो उसी वीणा स्टूडियो की है (बहुत हद तक यकीन के साथ कह रहे हैं )...
आज से करीब दो महीना पहले यानि १९ मार्च को ऑफिस के काम से दार्जिलिंग जाने का मौका मिला... एक ही दिन में लौटना था.. काम ख़त्म होने के बाद थोड़ा घूमने निकले ... दार्जीलिंग में एक जगह तिब्बती शरणार्थी कैंप और सेंटर है.. वहां भी गए.. तिब्बत की आजादी के संघर्ष और बलिदान की पूरी गाथा आप यहाँ देख सकते हैं.. कैंप में घूमने के दौरान हस्तनिर्मित सामान को देखकर काफी हैरत हुई... जाहिर है सब कुछ सुन्दर तरीके से हाथों से बना हुआ था.. फिर एक सामान पर नजर पड़ी... यकीन नहीं हुआ... वीणा स्टूडियो की उस निर्विकार... यथावत तस्वीर का रंग उसमे पूरी तरह समाहित था... बहुत देर तक रंगों से बात होती रही...लेकिन  सब कुछ मौन और.....दिव्य.....                                            
            
                                                                                                        राहुल






01 June 2012

सवालों के सामने.....




कहाँ से शुरू किया जाए ? ... सवाल इतना ही नहीं है ? कई बार हमें लगा कि कुछ सवालों को चुपचाप सहेज कर रख दिया जाए.. कई बार लगा कि इस पर क्या जवाब दिया जाए? इसी कशमकश में कुछ सवालों को जिन्दा रखा.. सोचा... जब कभी अपने लिए वक़्त मिलेगा... तो उन सवालों के आमने-सामने बैठेंगे. करीब एक साल से हम घुमक्कड़ बन कर अपने घर-शहर से दूर होते गए.. लेकिन एक दो शब्द लगातार मेरे पीछे चिपका रहा. ब्लॉग लिखने की शुरुआत से लेकर अब तक की यात्रा में हमने कोई  चमत्कार नहीं किया. मेरे जैसे हजारों लोग रोज न जाने कितने लिख-लिख कर पन्ने भरते रहते हैं.. उसी में हम भी थोड़ी जोर-आजमाइश कर लिया करते हैं.
ब्लॉग लिखने की हमारी कहानी थोड़ी अजीब है. जहाँ तक मुझे याद रहा है कि जब हम राष्ट्रीय सहारा, पटना (२००८ ) में चीफ रिपोर्टर थे तो कुछ जरुरी काम से देहरादून जाना हुआ. दो-तीन दिनों तक वहां रहने और घूमने के बाद एक दिन के लिए मसूरी गया. फिर उसी दिन दून वापस लौटकर दिल्ली के लिए बस पकड़ ली. सुबह पहुँचने के बाद अपने एक ममेरे भाई के डेरे पर गया. बस.. वहीँ से इसकी शुरुआत हो गयी. उसने मुझे बताया कि भैया.. आप तो लिखते हैं ?.. हमने कहा.. थोड़ा सा... उसने फिर कहा... मेरी बात मानिये... आप अपना ब्लॉग बनाइये.और लिखिए.. हमने कहा.. ये कैसे होगा ? हम तो ब्लॉग का नाम सुने हैं, पर कुछ जानते नहीं.. तब उसने तुरंत अपना पीसी ऑन किया और सब कुछ समझाने लगा. उसने लगभग दस से पंद्रह मिनट में मेरा ब्लॉग तैयार कर दिया.. खैर.. जब पटना लौट कर आये तो ऑफिस में थोड़ा-थोड़ा उस पर लिखने लगा. वैसे भी फुरसत मिलती नहीं थी. फिर भी कुछ-कुछ समय निकाल कर लिख लेता. बाद के दिनों में जब मैंने सहारा की नौकरी छोड़ दी तो कुछ दिनों के लिए लिखना बंद हो गया. सहारा की सरकारी जैसी  नौकरी छोड़ने को लेकर मेरे दोस्तों और घरवालों को काफी हैरानी हुई. सब नाराज थे.. अपने घर की नौकरी छोड़ दी ? लगातार सात सालों तक हिंदुस्तान मुजफ्फरपुर में रहने के बाद घर वापसी हुई थी. ये क्या कर बैठे? और भी न जाने बहुत कुछ...... हमने कुछ जवाब नहीं दिया.. कुछ दिनों तक इधर-उधर भटकने के बाद एक छोटे से चैनल में गए.. हालांकि अब कहीं भी काम करने का मन नहीं कर रहा था, पर कुछ लोगों के लिए.. उनके चेहरे पर मुस्कान बनी रहे (दुनियादारी के लिहाज से आप कुछ लोगों के लिए सीधे जिम्मेवार होते हैं) .. मैंने वहाँ काम शुरू किया.
खैर... बात हो रही थी ब्लॉग लिखने की. लेकिन वो पुराना ब्लॉग बंद हो चुका था. फिर से नयी शुरुआत हुई.. थोड़ा-थोड़ा लिखना शुरू किया. हम इस बात को ईमानदारी से स्वीकार करते हैं कि इस मामले में तकनीकी रूप से हम ज्यादा कुछ नहीं जानते थे और आज भी नहीं जानते हैं. सिर्फ तस्वीर और टेक्स्ट को कैसे अपलोड किया जाता है ? बाकी बहुत कुछ नहीं मालूम.. कुछ लोगों ने मेरे पोस्ट पर कमेन्ट्स देना शुरू किया. जाहिर है अच्छा लगता.. थोड़ा हौसला बढ़ता.. इसी बीच एक-दो लोगों ने मुझसे कमेंट्स देने के साथ ये कहा कि.. आप वर्ड वेरिफिकेशन हटा दें..कमेंट्स देने में आसानी होती है.... इस पर मैंने ध्यान नहीं दिया.. सोचा.. बाद में देखेंगे.... बहरहाल... लिखते रहे और कमेंट्स आते रहे.. लेकिन ज्यादा नहीं .. बस दो-तीन ही... हर बार इस सलाह के साथ कि... आप वर्ड वेरिफिकेशन हटा दें.. हमने एकाध बार कोशिश भी की. मगर समझ नहीं पाया और छोड़ दिया.. मुझे अब अपने आप पर शर्मिंदगी होने लगी... पर  वर्ड वेरिफिकेशन नहीं हटा सका.
फिर चैनल की नौकरी छोड़ने के बाद हम वहीँ आ गए, जहाँ हम जैसे लोगों का ठिकाना होता है.. तब थोड़े दिनों के लिए फिर लिखना छूट गया... अब एक बार फिर से हम वहीँ खड़े थे... जहाँ आज से दस साल पहले थे.. घर से बाहर...घर की तलाश.. उम्मीदों की तलाश.. उसी मुस्कान को फिर से वापस लाने की तलाश.. जिसके लिए आप सीधे जिम्मेवार होते हैं... नयी यात्रा शुरू हुई..........................
जब कोलकाता आये तो नए शिरे से सब कुछ शुरू हुआ. सब कुछ बदला हुआ.. यहाँ थोड़ा समय मिलता तो लिख लिया करते. कमेंट्स आते और फिर से सलाह ... कृपया आप वर्ड वेरिफिकेशन हटा दें. अभी तक आपने हटाया नहीं.. ओह... अब हम करे तो क्या करें ? इसी बीच उन्होंने लगातार मेरे पोस्ट पर कमेंट्स दिया.. मुझे सराहा... अंत में उन्होंने वर्ड वेरिफिकेशन हटाने का पूरा प्रोसेस समझाया.. लिखकर.... मैंने फिर कोशिश की.. नहीं हुआ.. रिप्लाई में हमने लिखा... मैं सच कहता हूँ.. पूरी कोशिश की, पर हुआ नहीं..हालाकि उनके कमेंट्स लगातार आते रहे.. कुछ दिनों के बाद उन्होंने एक पोस्ट पर कमेंट्स दिया.... अब मै आपको कभी नहीं........ वर्ड वेरिफिकेशन को.. वैसे आपने अच्छा लिखा है...|  तब से लेकर आज तक ये अपराध बोध मेरे मन पर पैबस्त है.. सोचते हैं... हम एक ऐसे इंसान की बात को पूरा नहीं कर सके.. जिसने हमेशा मेरे शब्दों, जज्बातों और  भावनाओं पर सच्चे मन से शब्द दिए... हम कभी नहीं सोचते थे कि कोई इस तरह से संज्ञान लेगा...क्या हम इस लायक थे.... कोई लगातार एक साल से ज्यादा तक वर्ड वेरिफिकेशन हटाने को कहता रहा और हम कुछ नहीं कर सके....
                                                                                                                                 अभी और भी......