Rahul...

06 August 2012

स्वप्निल रूहों का..


कितनी नैतिकता
मान्यताओं की
देहरी लांघ...
बेकल वक़्त को
परे हटाकर 
जब जन्म लेता है प्रेम...
सांझ के कटोरे में
स्वप्निल रूहों का
अबोलापन...
कई परिभाषाओं को
तोड़ता-मरोड़ता 
समय का  ...
हाहाकारी संकल्प
बदलते मायनों ..
की वेदना साध  
जब पग भरता है प्रेम
तब.. न कहानी
न... कोई फेहरिश्त 
बस तीखी हो जाती है 
आग... 
ठहरे हुए संवाद की 
तुम कहते हो... जो भी 
निराकार बादलों 
जैसी बातें..
तृष्णा की पनघट पर 
जब समंदर हो जाता है प्रेम  
सूरज खुद में 
डूबता हुआ
पानी के इतिहास में 
दर्ज होती किताबें 
तब.. न कहानी
न... कोई फेहरिश्त 
बस तीखी हो जाती है 
आग... 
ठहरे हुए संवाद की...........
जब जी उठता है प्रेम 
अपनी रूहों के 
अबोलेपन में................

                                              राहुल  

 


10 comments:

  1. क्या कहूँ राहुल...........
    दिल बैठ सा गया...अद्भुत प्रभाव है आपके शब्दों में.

    अनु

    ReplyDelete
  2. प्रेम की पराकाष्ठा सभी नैतिकता से परे
    है...गहरे अहसास लिए
    अद्दभुत रचना...:-)

    ReplyDelete
  3. तब.. न कहानी
    न... कोई फेहरिश्त
    बस तीखी हो जाती है
    आग...
    ठहरे हुए संवाद की...........
    जब जी उठता है प्रेम
    अपनी रूहों के
    अबोलेपन में................

    वाह ......!!

    बहुत अच्छी रचना .....

    ('कई परिभाषा' की जगह 'कई परिभाषाएं' कर लें )

    ReplyDelete
  4. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  5. निराकार बादलों सा हठ करने लगे हैं मेरे शब्द..कुछ न कहेंगे..

    ReplyDelete
  6. स्वतन्त्रता दिवस की बहुत-बहुत ............शुभकामनाएँ.........
    .............जयहिन्द............
    ............वन्दे मातरम्..........







    ReplyDelete
  7. जब पग भरता है प्रेम
    तब.. न कहानी
    न... कोई फेहरिश्त
    बस तीखी हो जाती है
    आग...
    बहुत अच्छी रचना।

    ReplyDelete
  8. महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ...

    ReplyDelete