एक बूँद.. दो बूँद.. और न जाने कितना बड़ा समंदर.. कांच के इस पार की दुनिया.. अनचाहे पत्थरों की मार से बचती हुई.. रूक-रूक कर सांस लेती हुई.. देखना तुम.. बाहर का मौसम.. बाहर की हवा तेरे जेहन में पैबस्त न हो जाये......
नीला आसमान.. कच्ची धूप.. और कांच के इस पार छनकर आती हुई तेरे भींगे हुए चेहरे की चटक यादें.. मै नहीं जानना चाहती आगे का कुछ भी.. फिर से मायने तलाशने की ललक.. तुम ही तो कहते थे... तेरे बगैर... तेरे बिना तपती हुई रेत पर नंगे पांव.. अनर्थ सा.. बेमजा.............
दोहरी जिन्दगी... जो कह दिया.. मान लिया.. अरे हाँ.. माँ भी कहती थी... शीशे की दीवार पर तेरे जैसा एक हमशाया दिखने लगा है.. बूंदों की दुनिया से वापस लौट सको तो लौट आना... अब कांच की दीवारों पर भी दूब की लत्तर उगने लगी है.....
आगे और भी....... राहुल