Rahul...

18 January 2011

जिन्दगी से मिले.........

                                                       जब कभी हम यूँ जिन्दगी से मिले
                                                       अजनबी जैसे अजनबी से मिले......
                                                       फूल ही फूल हमने मांगे थे
                                                       दाग ही दाग जिन्दगी से मिले.........
             
                                                                                          courtesy by-  classic story - jagjit singh

17 January 2011

देर से.. मिले

तेरी मर्जी के
सफ़र में
सोचा था...
 कहीं मिल जाता
वक़्त जो इतना था..
काँटों को समेटते..
बटोरते
तेरे अल्फाज
बिखर गए
उस सफ़र में
जहाँ..
घर आये मेहमान
जैसा दिखा
तेरे आँगन का रास्ता
जलती-तपती
वीरान सी बिखरती नींद
देर से.. मिले
कोई हद..
न तो तेरे नाम पर ..
जो सोचा था 
जीया था
 भोर में जन्म लेती
तेरी सदी के पहर में
बिखर गए
जहाँ तुम्हारे बाद
कोई चेहरा
आईने सा..
अब नहीं दिखेगा
जो बचेगा......
जलती-तपती नींद
उसी सदी में
 तेरी मर्जी के
सफ़र में... शायद
होंगे........
                             राहुल

                                       


 

15 January 2011

मुनचुन के मन से...४

... गाँव के माहौल में बेफिक्री का जो आलम था,  वो शहरों में ख़त्म हो गया. मुझे आज भी यही महसूस होता है कि कम पढ़े लिखे लोग कितनी ईमानदारी  से अपनी जय-पराजय, गिला- शिकवा और हर पल की जद्दोजहद को सामने रख देते हैं. जितने चेहरे, उतनी बातें... दरअसल हम सब अपनी- अपनी व्यथा को जीते हैं. काल के गर्भ में पनपते एक आम आदमी के पास ऐसा कुछ भी नहीं होता, जिसे वो अपना कह सके. अगर कुछ अपना होता है तो वो है जुर्रत... हमेशा जिन्दा रहने की, सुकून से जीने और आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ जमा करने की.. ऐसे लोग हर वक़्त किसी दोराहे पर पहुँच कर ठिठक जाते हैं. ठगे जाते हैं. मुझे नहीं लगता कि उम्मीदों का सूरज उनके जीवन में कोई पुंज फैला पाता है. आधी जिन्दगी इसी में कट जात्ती है और आधी जिन्दगी का कोई हिसाब बन नहीं पाता.
मुझे वो पूरा मंजर अब भी सामने  दिखता है. घर में सामंती परिपाटी को जीने वाले कई लोग मुझसे कहते कि तुम जो सोचते हो, ऐसा यहाँ नहीं है. तुम अपनी  नेकनीयती अपने पास रखो. पटना में जो करते हो, वही करो. और भी बहुत कुछ.. सुनता. देखता रहता... पटना में जहाँ घर है. मेलजोल के अपने नजरिये से आसपास के बहुत लोग मेरे करीब नहीं आ सके. ऐसा भी कहा जा सकता है कि मै ज्यादा नहीं मिल पाया. हाँ.. ये जरूर हुआ कि आत्मीय होकर जब भी किसी के काम आया तो धारणा बदलते भी देर नहीं लगी. मुझे भी वक़्त-दर- वक़्त किसी की जरूरत हुई तो लोगों ने साथ दिया. आज भी आसपास के बहुत कम लोग जानते हैं कि मीडिया सेक्टर में मै हूँ .. 
     ...... शेष

14 January 2011

पलकों की कतारों में

.. सिर्फ तुमको समेट लेती
छुपा देती
समय से
 जो लौट कर आती
समय की कहानियां
तेरी आँखों के..
साए में
जिन्दा होती
अप्रतिम सा स्पर्श..
मुझे वापस कर दो
सपनों के शोर में
आंच सी बर्फ में
समय की कहानियां
मुझे दे दो...
जहाँ  सिर्फ..
इतना शेष..
कभी निगाहों से
जो सौगात दी..
पलकों की कतारों में
सिर्फ तेरा नाम 
तेरा स्पर्श..
पूरा वजूद
समेट लेती
.. जो लौट कर आती
समय की कहानियां

                                       राहुल

12 January 2011

मेरे सूखे पत्तों में

 
पहले जब तुम
घर के कोने में
मिलते थे..
तुम मेरे नहीं थे..
मै देखती रहती थी
तुम्हें किताबों में.
सूनी-सूनी सी
घर की छतों पर
नींद में तुम..
यदा-कदा तुम दिख
जाते..
आते-जाते
दूर भागते रहते थे..
थमती साँसे..
हवा को समेटने का जतन
बेवस सी होती..
मेरी नींद
तुम हवा में सिमटे..
तो सूखे पत्तों का
मंजर
पानी  पर तेरी-मेरी
किस्मत
किनारे-किनारे
दूर जा चुकी थी..
तुम आ नहीं सके
पर.. मेरे सूखे पत्तों में
तेरी किताबें
तेरी ख़ामोशी
शायद..
मिल जाए..
                                      राहुल

11 January 2011

मुनचुन के मन से.. ३

..... जब मुझे यह लगने लगा कि घर के कई मसलों पर कई लोगों से मेरे मतभेद हैं तो मैंने इसे स्वीकार किया. मुझे यह बात मानने में कोई गुरेज नहीं कि भावना और मिजाज के स्तर पर मेरी कई लोगों से पटती नहीं थी.. यह आज भी है.. दरअसल हम सभी लोग अपने सफ़र की कहानी में खुद रंग भरते हैं. कैनवास खाली हो या बेरंग.. तय हमें करना होता है.. रंग तो आपके आसपास सागर सा फैला है.. साइंस का स्टुडेंट होने के बावजूद मेरे कमरे में हर नामी गिरामी लेखक की बुक्स दिखती.. पढता और डूबता रहता.. उन दिनों सोचता कि किताबें सब कुछ होती है.. मगर ऐसा आज नहीं लगता.. इतने वक़्त में कितना लम्हा गुजर गया.. कितनी पीर सी जिन्दगी समय के लिबास में जमींदोज हो गयी..
१९९५-९६ के बाद तो मामला और संजीदा हो गया.. थोड़ा- बहुत कलम उठने लगा.. जो तबीयत पर गुजरता.. वो शब्दों में ढलता.. बादल.. हवा.. धूप.. पानी और ना जाने क्या- क्या.. आसपास मौजूद रहते. गाँव जाता तो खूब घूमता.. खेतों में काम करते लोगों में शामिल होता तो घर के कई लोग डांट-डपट करते.. लेकिन मैंने कभी परवाह नहीं की.. अपनी मिटटी को समझने की सनक बनी रही.. वो आज भी कायम है.. 

मुनचुन के मन से.. ३                          ...शेष

09 January 2011

ख़त के शब्द..

 
जब कभी आये
अश्कों की चांदनी में
नहाये..
तुम पलट कर
अपने हाथों में
थाम लेना
तड़प  की कशिश..
 मै कल भी मौन थी
गंगा में बहते तेरे
ख़त के शब्द..
और..चित्कार में
बिखरती तेरी हंसी
मै कल भी मौन रहूंगी .
सिर्फ...
इतना वक़्त होता है..
मेरे हाथों में
जब अश्कों की चांदनी में
सौ मौसम रोते हैं
हजारों शब्द डूब जाते हैं
                                             राहुल

07 January 2011

इतने से सवाल में..

सलज नंगे पांव ...
 
जब तुम मिलोगे
चुप से भंवर में
कहोगे..
और चुप से हो जाओगे
मै कहूँगी..
माँ कैसी है
तुम कुछ कह..
खामोश हो जाओगे
मैं घर की दर-ओ- दीवार
का हाल मांगूंगी 
जानती हूँ
जवाब नहीं होगा
मैं फिर कुछ..
कहूँगी
तपती दोपहर में
सलज नंगे पांव
तेरा भटकना
याद है तुम्हें
शायद हाँ..
मै फिर से तुम्हें
कहूँगी
और बताइए..
इतने से सवाल में..
तुम रोज मिलते हो
रोज
देखो..
मेरी तस्वीर में
हाथों से आंसू मत समेटना
जी लेना..
उस धूल को..
जहाँ सब बिखरा है
तेरे नाम से..
माँ के बारे में
सच बताना
मैं जानती हूँ
उनके आँचल के पास
हमेशा लिपटी रही
इतने से सवाल में..
तुम रोज मिलते हो
पर तुम रोज..
चुप हो जाते हो
अनंत काल तक
मैं घर की दर-ओ- दीवार
का हाल मांगूंगी 
                                                       राहुल

06 January 2011

मुनचुन के मन से..2

... स्कूल का सफ़र तय करने के बाद घर में यह बताया जाने लगा कि तुम्हें क्या होना है. जाहिर सी बात है कि अगर आप सब में बड़े हैं तो सब आप पर टूटेंगे. धीरे-धीरे यह लगने लगा कि मुझे हर जगह जिम्मेवारी के साथ दखल देने की आदत सी हो गयी है. कभी सोचता कि कुछ ज्यादा ही बड़ा हो गया हूँ.. मगर पापा हर बार लकीर छोटी कर देते. एक ऐसे परिवार में इतना द्वन्द था कि माँ पूरी तरह हमलोगों को  समर्पित थी और पापा किसी और चीज़ में उलझे रहते थे. पैसों की कदर करना और बचा लेना कोई उनसे सीखता.. समझता. कई मायनों में जिंदगी बेतरतीब थी. शहर की भूल भुलैया और गाँव-जवार की खुरदुरी जिंदगी में हम सब हमेशा झूलते रहे.
मेरे जेहन में हमेशा गाँव..उसके लोग..और न जाने कितने चेहरे कैद रहते. ऐसा कभी नहीं हुआ कि.. मैंने इनको अपने आप से जुदा करने की कोशिश की होगी.. मुझे लगता कि अपनी मिटटी से कट जाना खुद को मिटा देने के जैसा है. ऐसा कभी नहीं लगा नहीं. कॉलेज की दुनिया में घूमते-फिरते घर की दीवार याद आती.. पढना-लिखना यथावत जारी रहा.. रंग-रूप और कद-काठी पर काफी कुछ झेलना पड़ता. कहा जाता कि तुम्हें अपना होश नहीं रहता. कब ख्याल करोगे ? काफी सुना. हर कोई अपने शुभचिंतक होने का दावा करता.. कहानी यही से घूमती गई.
                                                                                                                                  ... शेष  
मुनचुन के मन से.. २

मै तुम में ही मिलूंगा..

  • पलकों में कैद सपनों को मुक्त कर दो.. जिस सोच की कशिश में तुम डूबी हो.. वो न तो हमारा है और न तुम्हारा.. तेरे लम्हे के कतरे में जो निशां बाकी है.. उसमे हम सब समाहित हैं.. अपने-पराये की जो दुहाई तुम बार-बार देती हो..उससे अलग हो जाओ.. ना तो मैंने कुछ दिया है.. और ना हीं तुम्हें अफ़सोस हो कि.. मैंने कुछ दिया नहीं.. जो मंजर तेरी आँखों में गुजरा है.. जो मुस्कान तुम्हारी उस सदी में बिखरेगी.. वही पल हमारा है..मै तुम में ही मिलूंगा..  
                                                                                                                                                                                     राहुल


मुनचुन के मन से..1

ज्यादा वक़्त नहीं गुजरा. कभी- कभी इतना सा दिखता है. हम अपने आसपास न जाने कितने मौसम को बदलते देखते रहते हैं. हजारों नाम.. हजारों चेहरें आपके जेहन में घूमते रहते हैं.
इतना समझता हूँ और महसूस करता हूँ कि आपके न चाहते और न जानते कुछ नाम.. कुछ चेहरे आपको बार-बार जगाते रहते हैं. काफी मुश्किल होता है ऐसे सपने और उसमें जागती हुई तस्वीरों से खुद को जुदा करना.. बहुत दर्द.. बेहद तड़प..
                                                       स्कूल के साथी अभी कहाँ हैं.. भूलते-भागते पलों में जो नाम मुझसे चस्पां रहा. उसकी यादें ही शेष है. स्कूल की आधी दुनिया गाँव में सहेज कर रखी गयी.. बाकी की जिन्दगी शहरों में दफ़न होती गयी.. और हो रही है. घर के लोग मेरे बारे में जो बचपन में कहते थे.. उसी बात को आज भी दोहराते रहते है.. न एक रत्ती ज्यादा और न एक रत्ती कम.. मै मानता हूँ कि यह मेरी सबसे बड़ी जीत है. यह अलग बात है कि अब तक के सफ़र में सब कुछ खोने के अलावा बाकी कोई चीज़ नहीं हासिल कर सका. मुझे बार-बार एक हिंदी फिल्म की एक सटीक लाइन याद आती है. वो इंसान ही क्या.. जो बदल जाए.. अगर इस लाइन को अपनी जिन्दगी में न उतारते तो संभव था बहुत कुछ दुनियावी चीज़ें पा लेता. मगर ऐसा हो ना सका.
                                                                                                                    शेष.......

मुनचुन के मन से..




                           

05 January 2011

बेदर्द हवा के पन्नों पर


इक आग सी मैं पीती हूँ..
 

जब कभी तुम
रोते हो..
मै शोर सी हो जाती  हूँ....
...बेमौत ही मर जाती हूँ
तुम कह भी  नहीं पाते
दूर भी नहीं जाते
मै शोर सी हो जाती  हूँ....
..बेमौत ही मर जाती हूँ
बस यातना को जीती हूँ
इक आग सी मैं पीती हूँ
जब कभी तुम
रोते हो..
मैं देखती रह जाती हूँ ..
बेदर्द हवा के पन्नों पर
तुमको समेटती रहती हूँ
यह बेकार सा जतन होता है
जीने का भ्रम होता है..
जब कभी तुम
रोते हो..
मै शोर सी हो जाती  हूँ....
...बेमौत ही मर जाती हूँ
                                                  राहुल

मेरे घर के दरवाजे..

हवाओं ने.. सजाया होगा

मेरे जैसे होते गए
मेरे घर के दरवाजे.. खिड़कियाँ
आहट किसी के ..
चुपके से आने की
बाट जोहते रहे
मै किताबों में सजा
बेमतलब सा पन्ना
कभी हवाओं ने..
मुझे समेटा.. समझाया होगा
मेरे घर के दरवाजे..
निहारते रहे इस तरह
जैसे..
कोई बेनाम सा आया होगा
उस तरह से
लौटा हुआ थका मंजर
सहमे-सहमे से मेरे कमरें से
हवाओं ने..
मुझे समेटा.. समझाया होगा
                                                        राहुल

03 January 2011

सदी सा गुजरता है..

इतना एहसास भींगता है.....
इतना एहसास भींगता है.....

तेरे हाथों की..
लकीरों में एक नाम सा
दिखता हूँ..
तुम बार-बार.
अपनी किस्मत को
हाथों से मिलाती हो..
जहाँ.. कुछ नहीं दिखता
मेरा नाम धुंधला सा है
मै जानता हूँ कि..
मुझे तलाशने का जतन
तेरे सीने पर सदी
सा गुजरता है..
मै तो सिर्फ
एक लकीर सा हूँ..
मुझे इतना पता है..
 तेरी निगाहों में
जो सदमा पैबस्त है..
उसमें हमदोनों हर पल
डूबते हैं..
इतना एहसास भींगता है
मेरा नाम..
 और
तेरे हाथों की लकीर
बहुत देर से मिले
शायद वही वक़्त होता है..
जब
तेरे हाथों की..
लकीरों में एक नाम सा
दिखता हूँ..
मेरी  धड्कनों में सिमटी हुई
तेरे सीने की सदी
मुझ पर टूटता है
इतना एहसास भींगता है

                                          राहुल